मर्यादा लांघता मीडिया
July 15, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • धर्म-संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • धर्म-संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • धर्म-संस्कृति
  • पत्रिका
होम Archive

मर्यादा लांघता मीडिया

by
Nov 15, 2016, 12:00 am IST
in Archive
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

दिंनाक: 15 Nov 2016 11:10:56

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आज सेकुलर मीडिया कुछ भी दिखा रहा है और कुछ भी परोस रहा है। ऐसा लगता है कि समाज के पैसे पर फलने-फूलने वाले इस मीडिया का सामाजिक सरोकारों से कोई नाता नहीं रह गया है। देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मामलों को भी सार्वजनिक किया जा रहा है। एनडीटीवी से जुड़ा हालिया विवाद सवाल खड़ा करता है कि क्या मीडिया समाज-निरपेक्ष हो सकता है? लोग कहने लगे हैं कि मर्यादा को भूल चुका है मीडिया

जवाहरलाल कौल

यह मुद्दा नया नहीं है, उतना ही पुराना है जितना कि मीडिया पर बाजार का एकाधिकार स्थापित होना, यानी कई दशक पुराना। लेकिन समाचार चैनल एनडीटीवी पर एक दिन के सरकारी प्रतिबंध (फिलहाल रोक लग गई है) के कारण फिर से यह मुद्दा चर्चा मंे आया। पहले यह समझना होगा कि मीडिया की स्वतंत्रता के मायने क्या होते हैं? हमारे देश में और लोकतांत्रिक देशों की ही भांति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, किसी को अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है। राय के अतिरिक्त सूचना देना भी उस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में आता ही है। लेकिन हमारे देश में नागरिकों के कई और अधिकार भी हैं। जैसे व्यक्तिगत मामलों में गोपनीयता का अधिकार हमें है, हम अपने निजी जीवन को सार्वजनिक न करें और किसी को करने का अधिकार न दें। हम किसी के बारे में ऐसी राय नहीं दे सकते जिसके तथ्यात्मक प्रमाण हम नहीं दे सकते। हम किसी ऐसे काम को सार्वजनिक नहीं कर सकते जिसकी गोपनीयता की शपथ हमने संवैधानिक पद स्वीकार करते हुए ली है। किसी की धार्मिक भावनाआंे को ठेस नहीं पहंुचा सकते हैं, उसका जातीय स्तर पर अपमान नहीं कर सकते। देश की सुरक्षा एक ऐसा संवेदनशील मामला होता है जिसकी गोपनीयता के लिए कानून बने होते हैं।

राष्ट्र की सुरक्षा राज्य का सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है। तात्पर्य यह कि हमारी राय या हमारी सूचना की अभिव्यक्ति के अधिकारों की भी सीमा है। ये अधिकार असीम नही हैं और किसी भी समाज में नहीं हो सकते हैं। जब तक पत्रकारिता सामाजिक आग्रह, आंदोलन या आकांक्षाओं की वाहक थी, तब तक इन सीमाओं का आम तौर पर पालन होता था। यदि कहीं नहीं होता था तो समाज उसे सही नहीं मानता था। तब समाचार पत्र की सबसे बड़ी नियामक-शक्ति पाठक यानी समाज ही हुआ करता था। यह बात तब बिल्कुल सही थी कि लेखक और पत्रकार या समाचारपत्र को दण्ड केवल पाठक दे सकता है, उसे पढ़ने से इनकार करके। तब पाठक सबसे महत्वपूर्ण हुआ करता था। अभिव्यक्ति के असीमित अधिकार की बातें तब से ही उठने लगीं जब से पाठक गौण हो गया। अब समाचारपत्र पाठक की अवहेलना करने की स्थिति में आ गए हैं और दावा कर सकते हैं कि हमारा कोई सामाजिक सरोकार नहीं है।

स्वतंत्रता आंदोलन के आरंभिक चरण में जो पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं, उनका एकमात्र उद्देश्य विदेशी शासन के विरुद्ध जनजागरण ही था। इसी दौर में ऐसी भी पत्र-पत्रिकाएं छपने लगी थीं, जो कुछ विशेष जातियांे या राजनीतिक गुटों के हित में प्रचार करती थीं। लेकिन फिर भी पत्रकारिता समाज के विभिन्न वगार्ें की भावना और आवश्यकताओं के आधार पर ही चलती थी। इस दौर के समाचार पत्रों को दो वगार्ें में बांटे जा सकता है। एक वर्ग में वे थे, जो अपने आपमें आंदोलन थे, यानी किसी विदेशी शासन के प्रति असंतोष के विभिन्न आयामों को ही अपना प्रमुख आधार मानते थे। भले ही उनमें गंभीर वैचारिक मतभेद रहे हों, सामाजिक सरोकार उनकी सामान्य विशेषता थी। दूसरे वर्ग में वे थे, जो यथास्थ्िति के पक्ष में थे, यानी जिनकी दृष्टि में अंग्रेजी शासन ही भारत के लिए ठीक था। जिन्हें गांधी के स्वदेशी के बदले पश्चिमी सभ्यता और शासन व्यवस्था ही उपयोगी लगती थी। इन पत्र-पत्रिकाओं के पाठक मैकाले की बनाई शिक्षा व्यवस्था से निकले थे और अधिकतर सरकरी नौकर थे। लेकिन इन दोनों तरह के प्रकाशनों की एक सामान्य विशेषता भी थी, उन्हें बाजार की वित्तीय सहायता नहीं मिलती थी, क्योंकि बाजार हमारे देश में उस स्थिति में नहीं था कि वह प्रेस का उपयोग कर पाए और बदले में उसे वित्तीय आधार प्रदान कर सके। प्रेस, अधिकतर भारतीय भाषा प्रकाशकों के लिए मुनाफे का सौदा नहीं था, केवल एक भावात्मक मिशन ही उसके लिए प्रेरक तत्व था, लेकिन सरकार समर्थक प्रकाशनों को किसी न किसी रूप में सरकारी सहायता जीवनदान देती रहती थी। इस सिलसिले में एक उदाहरण सरकार और प्रेस के रिश्तों को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। 28 जून, 1930 को ब्रिटिश वाइसराय की सिफारिशी चिट्ठी लेकर एक व्यक्ति आर.एस. शर्मा जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के पास आए, जिसमें वाइसराय ने राजा को लिखा था कि शर्मा के समाचार पत्र 'द बंगाली' को कुछ वित्तीय सहायता की आवश्यकता है। मुझे प्रसन्नता होगी अगर आप इनकी मदद करें। लेकिन राजा का उत्तर बहुत ही सारगर्भित था। उन्होंने लिखा, ''यह आवश्यक है कि किसी पत्र के साथ कोई वित्तीय रिश्ता न जोड़ा जाए, क्योंकि यह तो 'अपनी गंदगी धोने वाला पर्चा' पालने की इच्छा ही माना जाएगा। श्री शर्मा के लिए मैं बस इतना ही कर पाया हूं कि उनके पत्र बंगाली को उन प्रकाशनों की सूची में शामिल करवा लिया, जिन्हें हमारा प्रशासन विज्ञापन जारी करता है।'' इसके उलट 'अराजकता की शक्तियों' यानी कांगे्रस पार्टी का समर्थन करने वाले पत्र 'बॉम्बे क्रॉनिकल' से अपनी पूंजी वापस निकालने के लिए जब भोपाल और पटियाला के शासकों को कहा गया तो उन्होंने तत्काल उस आदेश पर         अमल किया।

इस दौर में समाचार पत्रों का वित्तीय आधार अनिश्चित ही था और इसीलिए अधिकतर पत्र कुछ वर्ष चलकर बंद होते रहते थे। लेकिन स्वतंत्रता की आहट आते-आते विश्व बाजार भारत में प्रवेश कर चुका था और कुछ हद तक प्रेस को विज्ञापनों का सहारा तो मिल गया था और उनकी आर्थिक दशा में सुधार आया था। लेकिन अब भी वे पूरी तरह बाजार पर निर्भर नहीं हो गए थे। पाठक का लगाव अब भी महत्वपूर्ण था। समाचारपत्रों का अपना एक व्यक्तित्व बन गया था और उसी से आकर्षित होकर पाठक किसी पत्र-पत्रिका के साथ जुड़ जाते थे। पाठक का लगाव अब भी किसी पत्र के दीर्घ जीवन और आर्थिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक तत्व थे। यद्यपि बाजार पश्चिम, विशेषकर अमेरिका के अर्थिक जीवन का मुख्य कारक बन गया था, फिर भी प्रेस का बाजार से भिन्न अलग अस्तित्व था, वित्तीय आधार में भी और सामाजिक सरोकार में भी। लेकिन मालिकों की सोच में बदलाव आने लगा था। वे समाज से पिंड छुड़ाने की कोशिश में थे। वे यह मानने लगे थे कि समाचार पत्र दरअसल एक निजी सम्पत्ति की तरह ही होता है और उसी तरह उस पर मालिक के अतिरिक्त किसी प्रतिष्ठान का कोई नियंत्रण नहीं होना चाहिए। प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक डेनिस मैक्कुइन के अनुसार, बहुत से मामलांेे में प्रेस की स्वतंत्रता निजी सम्पत्ति के साथ एकाकार हो गई है और इसका मतलब है-सरकार के हस्तक्षेप के बिना प्रकाशन के स्वामित्व का अधिकार और उसका निर्बाध रूप से उपयोग का अधिकार। इस मत का औचित्य यह मान्यता है कि आमतौर पर स्वतंत्रता का मतलब है सरकार से स्वतंत्रता। इसके अतिरिक्त यह भी माना जाता है कि विचारांे का स्वतंत्र बाजार वास्तविक स्वतंत्र बाजार के ही समतुल्य है, जहां सूचना और संवाद ऐसे माल हैं जिनका उत्पादन हो सकता है और बिक्री भी। इसका मतलब यह तो नहीं हो सकता कि सरकारी कायदे-कानूनों से मुक्त होकर व्यापार करने का अधिकार मिलना चाहिए। यह अधिकार अगर किसी और व्यापार को नहीं मिलता तो प्रेस या मीडिया को क्यों होना चाहिए? क्या सरकार से स्वतंत्रता का मतलब समाज से भी स्वतंत्र होना होता है? समाज का एक वर्ग अगर मानता है कि प्रेस के किसी काम से उस की हानि हुई है तो वह क्या करे? जब पाठक समाचार पत्र के लिए प्रमुख हुआ करता था तो इस बात का भी ध्यान रखा जाता था कि पाठक आहत न हो। लेकिन अब जबकि पाठक नहीं, विज्ञापनदाता ही सबसे महत्वपूर्ण है तो उससे डर कैसा? निस्संदेह अगर समाज का वह वर्ग बडे़ रसूख वाला हो तो उसके पास अदालत के दरवाजे खुले हैं, लेकिन जिसके पास ये सुविधाएं जुटाने का उपाय नहीं है, वह तो चुपचाप सहने को मजबूर है।

मीडिया कितना व्यापार है और कितना नहीं, यह चिंता पश्चिम में भी बहस का मुद्दा बन गई है। 1955 में ब्रिटेन के प्रतिष्ठित समाचार पत्र 'द टाइम्स' के एक अग्रलेख मे चिंता व्यक्त की गई कि ''मीडिया में, निकृष्ट प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जा रहा है, कामुकता का अतिरंजित प्रदर्शन हो रहा है। ईर्ष्या, वैर, असहिष्णुता, संदेह-सभी को परोक्ष रूप में प्रोत्सहित किया जाता है। उत्तरदायित्वहीनता का बोलाबाला है। बोलनेे का सुर लगभग चीख जैसा होता जा रहा है। तथाकथित शोखी ही सब कुछ है। ़..़. निस्संदेह वे पत्रकार, जो ऐसे समाचारपत्रों में काम करते हैं, इस स्थिति से खुश नहीं हैं। लेकिन प्रेस को मुख्य रूप से व्यापार में बदलने के कारण इस मामले में समाचारपत्रों के अर्थशास्त्र को लाभदायक स्थिति में रखने के लिए पाठकांे की छीना-झपटी से लाखों की पाठक संख्या जुटाने के क्रम में ऐसे तत्व पैदा हो गए हैं, जो पत्रकारों से बहुत बडे़ हो गए हैं।'' यह टिप्पणी आज टीवी चैनलों पर एक दम सही बैठती है, लेकिन समाचारपत्र भी इससे बहुत दूर नहीं हैं। प्रेस के संचालक या मालिक कहते हैं कि खबर बनाना, बेचना बस एक व्यापार ही है। लेकिन क्या खबर बेचते हैं?

समाज के कुत्सित रूप को, उसकी गंदगी को या उसके उस निकृष्ट रूप को, जो दरअसल व्यापक समाज नहीं, मलिन हिस्से भर हैं। इसे इस प्रकार बेचा जा रहा है जैसे वही सारा समाज हो। इन पत्रों या चैनलों में काम करने वाले पत्रकार व्यक्तिगत तौर पर इससे संतुष्ट नहीं हैं, लेकिन जब यह मान लिया गया है कि यही मीडिया का सही अर्थशास्त्र है तो वे चाह कर भी कुछ बदल नहीं सकते, क्योंकि मीडिया को नियंत्रित करने वाली ऐसी शक्तियां पैदा हो गई हैं, जो इन हजारों पत्रकारों से भी अधिक शक्तिशाली हैं। ऐसी स्थिति में एक बड़ा सवाल पैदा होता है कि अगर मीडिया के मालिक यह दावा करते हैं कि उन का कोई सामाजिक सरोकार नहीं है, वे एक निजी सम्पत्ति के रूप में उसका वैसा इस्तेमाल करना चाहते हैं जैसा आर्थिक रूप से लाभकारी हो तो फिर उसे कोई विशेषाधिकार क्यों दिया जाए? यदि पुलिस किसी व्यापारिक कर्मचारी को अतिक्रमण के आरोप में पकड़ती है, तो वही करने का अधिकार पत्रकार को किस आधार पर दिया जाए?

मीडिया विशेषज्ञ सीपी स्कॅाट प्रेस के बारे कहते हैं, ''इसके दो पक्ष होते हैं। यह अन्य प्रकार के व्यापार की ही तरह एक व्यापार है ़.़ लेकिन यह व्यापार से काफी अधिक है। इसका नैतिक और भौतिक दोनों तरह का जीवन होता है और इन दोनों तरह की शक्तियों के संतुलन से ही इसके चरित्र और प्रभाव तय होते हैं।'' इसी बात को आगे ले जाते हुए प्रसिद्ध पुस्तक 'द डेंजरस ऐस्टेट' के लेखक फ्रांसिस विलियम्स कहते हैं, ''इन दो उद्देश्यों (सामाजिक दायित्व और आर्थिक आधार) की पूर्ति के अनुपात से ही एक समाचार पत्र का सही आकलन हो सकता है।''

इस बात में संदेह नहीं है कि हर देश की अपनी मान्यताएं और सामयिक आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न हो सकती हैं और दोनों पक्षों के बीच तालमेल सबके लिए एक जैसा हो, यह आवश्यक नहीं है। लेकिन मुख्य बात यह है कि हम इस बात को स्वीकार करें कि मीडिया केवल व्यापार नहीं है, उसका एक रूप ऐसा भी है जिसका समाज और उसके सरोकारों से निकट का रिश्ता है। लेकिन लगता नहीं कि मीडिया के संचालक इस बात को मानने के लिए तैयार हैं। इससे मीडिया के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है। अगर मीडिया समाज निरपेक्ष होने का दावा करता रहेगा तो समाज यह सवाल भी पूछ सकता है कि अगर मीडिया केवल व्यापार है तो इसे किस आधार पर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाए,

जबकि यह सम्मान किसी और व्यापार को नहीं मिलता?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

 

ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

समोसा, पकौड़े और जलेबी सेहत के लिए हानिकारक

समोसा, पकौड़े, जलेबी सेहत के लिए हानिकारक, लिखी जाएगी सिगरेट-तम्बाकू जैसी चेतावनी

निमिषा प्रिया

निमिषा प्रिया की फांसी टालने का भारत सरकार ने यमन से किया आग्रह

bullet trtain

अब मुंबई से अहमदाबाद के बीच नहीं चलेगी बुलेट ट्रेन? पीआईबी फैक्ट चेक में सामने आया सच

तिलक, कलावा और झूठी पहचान! : ‘शिव’ बनकर ‘नावेद’ ने किया यौन शोषण, ब्लैकमेल कर मुसलमान बनाना चाहता था आरोपी

श्रावस्ती में भी छांगुर नेटवर्क! झाड़-फूंक से सिराजुद्दीन ने बनाया साम्राज्य, मदरसा बना अड्डा- कहां गईं 300 छात्राएं..?

लोकतंत्र की डफली, अराजकता का राग

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

समोसा, पकौड़े और जलेबी सेहत के लिए हानिकारक

समोसा, पकौड़े, जलेबी सेहत के लिए हानिकारक, लिखी जाएगी सिगरेट-तम्बाकू जैसी चेतावनी

निमिषा प्रिया

निमिषा प्रिया की फांसी टालने का भारत सरकार ने यमन से किया आग्रह

bullet trtain

अब मुंबई से अहमदाबाद के बीच नहीं चलेगी बुलेट ट्रेन? पीआईबी फैक्ट चेक में सामने आया सच

तिलक, कलावा और झूठी पहचान! : ‘शिव’ बनकर ‘नावेद’ ने किया यौन शोषण, ब्लैकमेल कर मुसलमान बनाना चाहता था आरोपी

श्रावस्ती में भी छांगुर नेटवर्क! झाड़-फूंक से सिराजुद्दीन ने बनाया साम्राज्य, मदरसा बना अड्डा- कहां गईं 300 छात्राएं..?

लोकतंत्र की डफली, अराजकता का राग

उत्तराखंड में पकड़े गए फर्जी साधु

Operation Kalanemi: ऑपरेशन कालनेमि सिर्फ उत्तराखंड तक ही क्‍यों, छद्म वेषधारी कहीं भी हों पकड़े जाने चाहिए

अशोक गजपति गोवा और अशीम घोष हरियाणा के नये राज्यपाल नियुक्त, कविंदर बने लद्दाख के उपराज्यपाल 

वाराणसी: सभी सार्वजनिक वाहनों पर ड्राइवर को लिखना होगा अपना नाम और मोबाइल नंबर

Sawan 2025: इस बार सावन कितने दिनों का? 30 या 31 नहीं बल्कि 29 दिनों का है , जानिए क्या है वजह

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • धर्म-संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies