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पाकिस्तानी कब्जे वाले इलाकों में आतंकी ठिकानों पर कमांडो कार्रवाई देश के आम लोगों के लिए भले ही गौरव का विषय हो, कुछ मुट्ठी भर लोगों के लिए यह विवाद खड़े करने का मौका है। जब राजनीति राष्ट्रहित से भी जरूरी हो जाती है तब ऐसा होता है। यह राजनीति अगर सिर्फ राजनेता करते तो भी चल जाता। समस्या तब पैदा होती है जब मीडिया भी इसका हिस्सा बन जाता है। उरी कांड और उसके बाद के पूरे घटनाक्रम में इस बात को साफ देखा जा सकता है। यह वह राजनीति है जिसमें खबरों और सूचनाओं को लेकर एक भ्रम पैदा करने की कोशिश होती है। सेना की सर्जिकल स्ट्राइक ने आतंकी हमलों से घायल देश के सामूहिक आत्मसम्मान के लिए मरहम का काम किया। लेकिन मीडिया के इस तबके ने पहले दिन से ही अपना धंधा शुरू कर दिया। एक अंग्रेजी चैनल के संपादक ने सेना की कार्रवाई को उत्तर प्रदेश और पंजाब के भावी चुनावों के साथ जोड़ दिया। मीडिया को विश्लेषण की छूट है, लेकिन क्या इसकी कोई मर्यादा नहीं होनी चाहिए? कोई नेता अगर ऐसा करता तो मीडिया उस पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता। लेकिन अगर कोई बड़ा पत्रकार सेना की कार्रवाई को 'चुनावी तैयारी' का हिस्सा मानता है तो इसे किस तरह देखना चाहिए?
मीडिया के एक तबके ने बेहद योजनाबद्घ तरीके से सर्जिकल स्ट्राइक को विवादों की ओर धकेल दिया। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के नेता इस काम में उनके मददगार बने। इन दोनों की जुगलबंदी ने कुल मिलाकर लोगों के मन में यह बात तो डाल ही दी कि पता नहीं, फौजी कार्रवाई हुई भी है या नहीं। ऐसी स्थिति में सोशल मीडिया हमेशा सामान्य लोगों की आवाज बनकर उभरता है। लोगों ने सर्जिकल ऑपरेशन को नकली कहने वाले नेताओं और इसे हवा दे रहे मीडिया के दिग्गजों की जमकर खबर ली।
'हिंदू' अखबार ने पुराने दस्तावेजों के आधार पर दावा किया कि 2008 और 2011 में भी सेना ने नियंत्रण रेखा पार करके कार्रवाई की थी। एनडीटीवी चैनल इस जानकारी से काफी उत्साहित दिखा। उसे यह साबित करने का मौका मिल गया कि अभी की सर्जिकल स्ट्राइक कोई बड़ी बात नहीं है। जबकि उन्हीं दस्तावेजों में यह भी जिक्र है कि कैसे तत्कालीन केंद्र सरकार ने सेना की कार्रवाई को समर्थन देने से इनकार कर दिया था, जबकि मौजूदा भाजपा सरकार न सिर्फ सेना के साथ मजबूती से खड़ी थी, बल्कि किसी भी गड़बड़ी की जिम्मेदारी अपने सिर लेने को तैयार रही।
भ्रम फैलाने की ऐसी ही कोशिशों के तहत एक अखबार ने यह खबर छापी कि सरकार ने सैनिकों के लिए विकलांगता पेंशन को कम कर दिया है। यह पूरी तरह से गलत खबर थी। लेकिन बिना तथ्यों की जांच किए या सरकार से उसका पक्ष पूछे मीडिया के कई चैनलों ने इसे दिन भर दिखाया। यह खबर भ्रम फैलाने और सैनिकों के मनोबल को हिलाने की कोशिश का हिस्सा मालूम होती है। बेहतर होता, अगर दूसरे चैनल और अखबार इस भ्रामक खबर को हू-ब-हू उठाने के बजाय पहले तथ्यों की पड़ताल कर लेते।
राष्ट्र्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर मीडिया का रवैया कई बार बेहद बचकाना मालूम होता है जो कई बार हास्यास्पद भी हो जाता है। हिंदी के लगभग सभी चैनलों ने भारत और पाकिस्तान के एटम बमों की गिनती शुरू कर दी और बताया कि अगर परमाणु युद्घ छिड़ गया तो क्या होगा। लोगों को डराकर टीआरपी बटोरने का यह फॉर्मूला वैसे तो काफी पुराना है, लेकिन क्या नाजुक वक्त पर भी इसे इस्तेमाल किया जाना चाहिए? सरकार और सेना ने बार-बार साफ किया है कि लड़ाई आतंकी कैंपों के सफाये तक सीमित है। क्या मीडिया को यह छूट होनी चाहिए कि वह इस बात से काफी आगे निकलकर परमाणु युद्घ जैसे सवालों पर कल्पना के घोड़े दौड़ाए?
उधर, केरल में राष्ट्रवादी ताकतों का 'सफाया' जारी है। तिरुवनंतपुरम में भाजपा के दलित कार्यकर्ता विष्णु की उनके घर में बर्बर तरीके से हत्या कर दी गई। हत्यारों ने जाते-जाते उनकी मां पर भी चाकू से वार किया। इस घटना के कुछ दिनों के अंदर ही कन्नूर में मुख्यमंत्री के पड़ोस में रहने वाले संघ कार्यकर्ता रमित के गले को चाकू से काटकर उन्हें मार दिया गया। इस राज्य में एक तरह का 'राजनीतिक आतंकवाद' जारी है, लेकिन मीडिया ने आंखें और मुंह बंद कर रखे हैं। क्या यह बहस का विषय नहीं होना चाहिए कि माकपा अपने राजनीतिक विरोधियों का सफाया करवा रही है? केरल में हो रही इन हत्याओं के लिए क्या दिल्ली में बैठे वामपंथी नेताओं से भी प्रश्न नहीं
होने चाहिए?
ओलंपिक में देश का गौरव बढ़ाने वाली दीपा कर्मकार ने पुरस्कार के तौर पर मिली महंगी कार को यह कहते हुए लौटा दिया कि उनके राज्य त्रिपुरा में सड़कों की हालत बहुत खराब है। त्रिपुरा में लंबे समय से माकपा की सरकार है, शायद इसलिए मीडिया ने खबर दबा दी। क्या इस महत्वपूर्ण समाचार को थोड़ी और जगह नहीं मिलनी चाहिए?
अंग्रेजी पत्रिका 'ओपन' ने दिल्ली सरकार केभ्रष्टाचार पर एक विस्तृत रिपोर्ट छापी। इससे आआपा के खतरनाक मंसूबों का इशारा मिलता है। लेकिन इसे किसी अखबार या चैनल ने नहीं उठाया। हमारी जानकारी के मुताबिक ऐसा विज्ञापनों के दबाव का असर था कि कुछ चैनलों ने इस बारे में कार्यक्रम की तैयारी के बाद आखिरी वक्त में विषय बदल दिया। मीडिया के कर्ता-धर्ताओं को कभी इस पर भी विचार करना चाहिए कि उनकी पत्रकारिता सरकारी विज्ञापनों की ऐसी धौंस के आगे झुक क्यों जाती है?
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