साक्षात्कार - ''आत्मबल और राष्ट्र भाव के साथ आगे बढ़ रही है भारत की बेटी''
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साक्षात्कार – ''आत्मबल और राष्ट्र भाव के साथ आगे बढ़ रही है भारत की बेटी''

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Oct 3, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Oct 2016 14:57:15

लक्ष्मीबाई केलकर उपाख्य मौसी जी ने 1936 में राष्ट्र सेविका समिति के नाम से जो बिरवा रोपा था, आज 80 सावन बाद वह वटवृक्ष का रूप ले चुका है। महिलाओं में राष्ट्रभाव जागरण के साथ ही आत्मबल जागरण का अनूठा कार्य आज पूरे देश में पूरेी प्रखरता के साथ चल रहा है। संगठन का आकार बढ़ा है, कार्य का विस्तार हुआ है। समिति के  इस 80 वर्षीय सफर में आईं चुनौतियों और उपलब्धियों पर आलोक गोस्वामी ने समिति की प्रमुख कार्यवाहिका सुश्री अन्नदानम सीता से विस्तृत बातचीत की, जिसके प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं-   

1936 में राष्ट्र सेविका समिति के गठन के पीछे मूल प्रेरणा क्या थी? क्या उद्देश्य था?
वह ऐसा काल था जब समाज में महिलाओं की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे संगठित होकर कुछ कर या कह सकती थीं। आत्मरक्षा की दृष्टि से आज जैसा हम पत्र-पत्रिकाओं में देख-पढ़ रहे हैं, तब ऐसी स्थिति नहीं थी। उस कालखण्ड में महिलाओं में आत्मरक्षा में क्षमता -वृद्धि की आवश्यकता थी। समिति की संस्थापिका वंदनीया लक्ष्मीबाई केलकर उपाख्य मौसी जी के मन में इस संदर्भ में चिंतन चल रहा था कि समाज में महिलाओं के लिए इस प्रकार के काम करने चाहिए। वे महात्मा गांधी के कार्यक्रमों में भी इसी चिंतन को और आगे बढ़ाने के लिए जाती थीं। एक बार ऐसे ही एक कार्यक्रम में एक महिला ने प्रश्न किया-भारत की महिलाओं के लिए आदर्श कौन होना चाहिए? इस पर गांधी जी का उत्तर था-सीता। उन्होंने कहा कि अगर सीता तैयार हो जाए तो राम तो स्वत: तैयार हो जाएंगे। उस उत्तर से मौसी जी ऐसी प्रभावित हुईं कि उन्होंने पूरी रामायण एक बार फिर से पढ़ी। उसमें सीता जी के चरित्र को पढ़कर उन्हें लगा कि आज महिलाओं में वैसा ही आत्मबल निर्माण करने की आवश्यकता है। उसी चिंतन के संदर्भ में उनका रा. स्व. संघ से परिचय हुआ। और बाद में संगठन की स्थापना हुई। तो मूल आवश्यकता थी महिलाओं में विस्मृत हुए आत्मबल को फिर से जाग्रत करना। इसी उद्देश्य से राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना की गई।

वह ऐसा काल था जब महिलाओं का घर से बाहर निकलना वर्जित था। तो स्वाभाविक है  संगठन निर्माण करने में कई चुनौतियां आई होंगी। वे कौन-सी चुनौतियां थीं जो वंदनीया मौसी जी के सामने आईं?
सही बात है। उस वक्त छोटी-छोटी बालिकाओं को लेकर मैदान में शारीरिक अभ्यास करने पर लोग उपहास करते थे। महिलाओं में शिक्षा का प्रसार भी कम था तब। तो लोगों में काम की स्वीकार्यता के लिए मौसी जी ने नागपुर से शिक्षित महिलाओं को बुलाकर बालिकाओं को शिक्षित करने का साथ प्रयास किया था। उन्होंने समाज में इस प्रकार से वातावरण निर्माण करते-करते उनमें राष्ट्रभाव जगाने का कार्य किया। यानी बालिकाओं को पढ़ने का मौका भी मिल रहा था और साथ ही उनमें राष्ट्रभाव भी जग रहा था। आज हम ये कार्य  सेवाकार्य के नाते कर रहे हैं, पर तब ये दोनों काम साथ-साथ चलते थे।
इसके बाद धीरे-धीरे संघ शाखाओं को देखते हुए वर्धा में समिति के गठन के साथ ही पूना, फिर अकोला और फिर भंडारा में महिलाओं को संगठित करके उनमें राष्ट्रभाव जगाने का प्रयास शुरू हो गया। इसे देखकर डॉक्टर हेडगेवार जी ने लोगों को बताया कि वर्धा में महिला संगठन का काम हो रहा है तो क्यों न आप जाकर वहां मौसी जी से संपर्क करें। तो अलग-अलग चल रहे ऐसे सब प्रयासों का समिति के साथ विलीनीकरण हुआ। सब मौसी जी के व्यक्तित्व और नेतृत्व गुण से बेहद प्रभावित हुए थे। हम कह सकते हैं      कि यह मौसी जी की क्षमता ही थी कि       सब संस्थाओं का सेविका समिति में विलीनीकरण हुआ।

वर्धा में सेविका समिति की पहली शाखा में कितनी बहनें आई थीं?
वर्धा के एक मैदान में पहली शाखा में 30 बहनें आई थीं। पिछले साल जुलाई में हमने ठीक उसी मैदान में अ. भा. चिंतन बैठक की थी और वहीं प्रार्थना की थी। एक ऐसी अद्भुत अनुभूति हुई कि उसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता। 1936 में उस पहली शाखा को याद करके मन में कई भाव उमड़ रहे थे।

80 वर्ष के सफर के बाद आज क्या ऐसा कह सकती हैं कि समिति उद्देश्यों को भलीभांति पूरा कर पाई है? या कहीं कोई कमी रही है?
यह सफर या प्रवास तो जारी है। पर हां, अगर पीछे मुड़कर देखें तो पाएंगे कि सेविका समिति का समाज में एक ऊंचा स्थान है, वह एक शक्ति की तरह खड़ी है। आज सेविका समिति देश का सबसे बड़ा महिला संगठन है। यही एकमात्र संगठन है जिसका पूरे देश में व्यवस्थित तंत्र है। समिति ने उन दिनों में आत्मबल का जो विचार किया था, उसकी आज इतनी व्याप्ति हो गई है कि इस मुद्दे पर बोलने वाले और काम करने वाले लोग आगे आ रहे हैं। महिलाओं की शिक्षा के लिए समिति ने जो प्रत्यक्ष काम किया उसी के प्रतिफल स्वरूप आज महिलाएं शिक्षा में ऊंचे प्रतिमान गढ़ रही हैं। राष्ट्रभाव जागरण के लिए भी समिति जब-जब मुद्दे लेकर एक ताकत के रूप में खड़ी होती है तो लोग भारी संख्या में साथ जुड़ते हैं। जैसे, 1990 में समिति ने कश्मीर बचाओ आंदोलन किया था। उसके अंतर्गत कश्मीर जाकर वहां की परिस्थिति देखने के बाद समिति ने पूरे देश में उसके प्रति भावना जगाने का काम किया था। तो ऐसे कई मौकों पर जब-जब राष्ट्र की एकात्मता के लिए आंदोलन होते हैं समिति ने महिलाओं को सामने आकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए तैयार किया है। चाहे वह रामजन्मभूमि आंदोलन हो, या जम्मू में अमरनाथ यात्रा आंदोलन, या फिर कश्मीर बचाओ आंदोलन। इन सबमें महिलाएं बाहर आकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रही हैं तो उसके पीछे समिति की ही ताकत है।

80 साल के सफर के दौरान समिति ने और कौन से अभियान हाथ में लिए हैं?
1995 में हमने स्वदेशी भाव जागरण अभियान शुरू किया था। कहने का अर्थ है  कि संदर्भ लेकर उस वक्त समाज में जो आवश्यकता है, अपनी संस्कृति संरक्षण के लिए जो भी सामाजिक आंदोलन हुए हैं उन सभी आंदोलनों में समिति अपना दायित्व निभाती आई है। जैसे, गोरक्षा आंदोलन में समिति की महत्वपूर्ण भूमिका थी। कश्मीर बचाओ आंदोलन समिति ने ही चलाया था।

यानी समिति के कार्य दो तरह के होते हैं-आंदोलन और जगजागरण।
जी हां। यही दो तरह के कार्य होते हैं। जनजागरण के पक्ष में तो समिति अपने संगठन के बल पर अलग-अलग संदर्भों में अभियान चलाती आई है। 2005 में वंदनीया मौसी जी के जन्म शताब्दी वर्ष की पूर्व तैयारी के तौर पर उस वक्त की सह प्रमुख संचालिका प्रमिलाताई मेढ़े जी देश भर में 108 स्थानों पर उनके जीवन से जुड़ी चित्र प्रदर्शनी लेकर गई थीं। लगभग 4 लाख से ज्यादा लोग उन कार्यक्रमों में प्रमिलाताई जी को सुनने आए थे। इसी तरह पिछले साल समिति के 80 वर्ष के उपलक्ष्य में हमने देश भर में तरुणी सम्मेलन के कार्यक्रम किए थे, जिसके अंतर्गत 16 से 45 आयु वर्ग की बहनों के लिए एक दिन के कार्यक्रम किए। पूरे भारत में 293 कार्यक्रम हुए शताब्दी वर्ष की पूर्व तैयारी के निमित्त, जिनमें लगभग 88,000 बहनों ने भाग लिया था। उसमें हमने चर्चा का विषय रखा था-'हम हैं भारत भाग्य विधाता', और उनमें 'तेजोमय भारत' विषय पर बौद्धिक हुए थे। समापन के बौद्धिक हुए 'राष्ट्र भाव जागरण में समिति की भूमिका' विषय पर। कितनी ही बहनों ने प्रपत्रों के  माध्यम से, नवाचार से परिपूर्ण विचार प्रस्तुत किए कि हम कैसे भारत की भाग्य विधाता बन सकती हैं। साथ ही अलग अलग तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए। लगभग 3,000 प्रबुद्ध महिलाएं स्वागत समितियों के माध्यम से समिति से जुड़ी हैं। 700 से 800 बहनें कार्यशालाओं में ऐसे विषयों पर चर्चा लेने हेतु तैयार हुई हैं। समाज में महिलाएं अपने अधिकारों के लिए आवाज कैसे उठाएं, पुरुषों के उनको देखने के रवैए में बदलाव कैसे लाएं, इन सब विषयों के साथ ही राष्ट्रभाव जगाकर महिलाएं कैसे एक साथ एक मंच पर आएं, इसके लिए समिति अपने बल पर एक शक्ति के रूप में खड़ी है।

इन राष्ट्रीय महत्व के विषयों के साथ ही आज भी समाज में ऐसे मुद्दे हैं जिन पर काफी कुछ सुनने में आता है। बात चाहे, बेटियों की घटती संख्या की हो या महिलाओं में असुरक्षा की भावना की। इन मुद्दों पर समिति का क्या मत है?
स्थानीय स्तर और समय विशेष पर जैसी आवश्यकता होती है उसमें एक संगठित नारी शक्ति के रूप में जैसी प्रतिक्रिया की जरूरत होती है, वह की जाती है। जैसे लोकतंत्र के बारे में कहते हैं न-लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा। उसी प्रकार हम राष्ट्र सेविका समिति के बारे में बोलते हैं-महिलाओं की, महिलाओं के द्वारा, लेकिन राष्ट्र के लिए। हम केवल महिलाओं की समस्याओं तक संगठन को सीमित न रखते हुए राष्ट्रीय उत्थान के लिए कार्य कर रहे हैं। आरम्भ से ही हमारी यही भूमिका रही है। लेकिन समिति का स्वरूप प्रतिक्रियात्मक भी नहीं है।

समाज में बदलाव की गति को देखते हुए समिति के कार्य की गति कैसी रही है? क्या  समिति कोई समयबद्ध लक्ष्य लेकर चली थी?
 एक समय था जब समिति में सेवा विभाग नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे महिलाओं में सेवा के प्रति उत्सुकता जगने लगी तो समिति में सेवा विभाग भी शुरू हुआ। महिलाएं जुड़ने लगीं। आज केवल महिलाओं के द्वारा 400 अलग-अलग प्रकार के सेवा कार्य चल रहे हैं। कन्या छात्रावास शुरू किए गए जिनमें उन क्षेत्रों से बालिकाओं को पढ़ाई के लिए लाया जाता है जो अभावग्रस्त हैं, गरीब हैं या अनाथ हैं। तो कहने का अर्थ है कि सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार हमारा काम भी बढ़ रहा है। लेकिन प्रतिशत के हिसाब से उतना काम नहीं बढ़ा है। कारण यह है कि इन कामों के लिए समय बहुत देना होता है। महिलाएं बाहर काम करने भी जाती हैं, फिर परिवार की भी जिम्मेदारी होती है। समिति कभी किसी को ये जिम्मेदारियां छोड़कर काम करने को नहीं कहती। ऐसे में सामाजिक कार्यों के लिए समय निकालने में महिलाओं को परेशानी आती है। यही वजह है कि हम अपेक्षित गति से नहीं बढ़ पा रहे हैं। भावना तो बहुत है बहनों में। दूसरे, हमारे परिवारों में संस्कार देने की जो प्रक्रिया है, उसके अनुसार हमारी शाखाओं, वर्गों, शिविरों, कार्यक्रमों में शिक्षित बहनें यह जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं। लेकिन शाखाओं में प्रत्यक्षत: उतनी वृद्धि नहीं हो पा रही है।

समिति की शाखाओं की संख्या कितनी है? काम के आयाम कितने हैं?
पूरे भारत में 2,784 शाखाएं हैं। शैक्षिक प्रकल्प, धार्मिक विभाग और सेवा प्रकल्प-ये तीन आयाम हैं काम के। धार्मिक विभाग के अंतर्गत भजन वर्ग, पौरोहित्य वर्ग भी चलते हैं। योग केन्द्र भी चलते हैं।

मुस्लिम समाज में तीन तलाक के विरुद्ध महिलाएं एकजुट हुई हैं। इस मुद्दे पर समिति का क्या दृष्टिकोण है?
जुलाई 2015 में हमारी अ. भा. बैठक में हमने समान नागरिक संहिता पर एक प्रस्ताव पारित किया है। हमारा कहना है कि सभी महिलाओं के लिए न्याय समान होना चाहिए। हमने कहा था, यह जाति-पंथ के आधार पर न हो। इस पर न्यायालय का निर्णय आया है जिस पर हमने अपनी खुशी भी व्यक्त की थी। लेकिन मुस्लिम समुदाय से इस पर अलग प्रकार की राय आई है।

इस लंबी यात्रा में कौन-कौन सी बड़ी उपलब्धियां मिलीं और चुनौतियां आईं। आज के संदर्भ में ऐसे काम में बड़ी चुनौती क्या है?
उपलब्धि के लिहाज से आज महिलाओं की राष्ट्रीय विचारों में अपना मत रखने की बहुत अच्छी स्थिति बन गई है। मौसी जी एक द्रष्टा थीं। उन्होंने 1953 में स्त्री जीवन विकास परिषद नाम से एक गैर सरकारी संस्था की स्थापना की थी। उसमें बहुत से लोगों से चर्चा करने के बाद मौसी जी ने एक कन्या छात्रावास की शुरुआत की थी। उन दिनों लड़कियों के बाहर रहकर पढ़ाई करने की व्यवस्था नहीं थी। मौसी जी ने डाक्टरों की सलाह से महिलाओं के स्वास्थ्य की दृष्टि से योगासनों में संशोधन करके समिति में योग केन्द्र शुरू किया था। और आज तो भारत भर में महिलाएं आगे आकर स्वास्थ्य के लिए योग कर रही हैं। मौसी जी ने तो कितना पहले इस बारे में सोचा था।उन्होंने इस बारे में भी सोचा था कि महिलाएं घर में रहते हुए आर्थिक रूप से स्वावलंबी कैसे बनें। तोे ध्यान में आया कि घर में हल्दी और मिर्च पीस कर भी महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन का मार्ग बन सकता है। 1953 में मुम्बई में ऐसे 100 स्वावलंबन केन्द्र चलते थे। मौसी जी ने एक द्रष्टा के नाते जो स्वालंबन केन्द्र शुरू किए थे, आज देश भर में ऐसे कितने ही केन्द्र चल रहे हैं।
चुनौतियों की बात करें तो उस काल में महिलाओं का घर से बाहर निकलना ही एक चुनौती थी। बाहर आकर काम करना और फिर घर संभालना भी एक चुनौती बन गया। महिलाओं में व्यावसायिक दक्षता भी ज्यादा हो गई है। इसके बाद भी सामाजिक कामों के लिए महिलाओं का जुटना एक उपलब्धि के साथ ही चुनौती भी है। महिलाएं अपने पास उपलब्ध समय को परिवार, व्यवसाय और समाज के लिए तीन हिस्सों में बांटकर काम कर रही हैं। यह चुनौती है जो आगे चलकर और बढ़ने वाली है। परिवारों में पश्चिमी सोच हावी होती जा रही है। तो ऐसी सब चुनौतियों में बल देने और एक चिंतन देने का काम समिति कर रही है। समिति की सेविकाओं में आज वह ताकत है कि हम कोई बात रखें तो उसे माना जाए, समिति महिलाओं में ऐसी क्षमताओं के संवर्धन में लगी है। इन्हीं सब क्षमाताओं के चलते सेविका समिति दूसरे सभी महिला संगठनों से अलग है। हम राष्ट्र भाव जागरण में परिवार की भूमिका पर एक संगोष्ठी करने वाले हैं। परिवार के द्वारा संस्कृति संरक्षण करना, सामाजिक समरसता कैसे लाई जा सकती है, राष्ट्र के आर्थिक विकास में परिवार अपनी भूमिका कैसे निभा सकता है, ये सब मुद्दे हम अपनी बहनों के सामने रखने वाले हैं। इन्हीं से आगे के 8-10 साल के कार्यक्रम की रूपरेखा तय होने वाली है, क्योंकि असली भारत का स्वरूप इसी   में है।

क्या समिति का विदेशों में भी कार्य चलता है?
नहीं, प्रत्यक्ष सेविका समिति के नाम से नहीं, बल्कि सेविका समिति की प्रेरणा से हिन्दू सेविका समिति के नाम से कुछ देशों में अलग शाखाएं चलती हैं। 

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