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लगता है, मुख्यधारा के मीडिया को खुद ही अपनी विश्वसनीयता की चिंता नहीं है। ऐसे वक्त में जब झूठी खबरें फैलाने के लिए ढेर सारी फर्जी न्यूज वेबसाइट्स आ चुकी हैं, मुख्यधारा के मीडिया पर दारोमदार था कि वह लोगों तक बिना मिलावट के साफ-शुद्ध समाचार पहुंचाए। लेकिन देश के पहले, दूसरे और तीसरे नंबर के अखबार और चैनल अगर फर्जी खबरें छापने और दिखाने लगें तो पत्रकारिता का भगवान ही मालिक है। अखबार और चैनल पहले कम से कम प्रधानमंत्री और दूसरे बड़े नेताओं के कथनों के साथ खिलवाड़ की हिम्मत नहीं करते थे। लेकिन अब यह मर्यादा भी खत्म हो गई है।
इंडियन एक्सप्रेस ने खबर छापी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा की एक बैठक में कहा, 'राष्ट्रवादी तो हमारे साथ हैं ही, हमें दलित और पिछड़ों को साथ लाना है।' यह पूरी तरह फर्जी बयान था। खंडन के बावजूद अखबार ने खेद जताने तक की रस्म नहीं निभाई।
दरअसल, यह अखबार पिछले कुछ वक्त से एक के बाद एक झूठी और देश-विरोधी खबरें छाप रहा है। इसके पीछे छिपी उसकी मंशा को समझना बहुत मुश्किल नहीं है। इसी अखबार ने अरुण जेटली का फर्जी बयान छापा कि 'कश्मीर में पथराव करने वाले पाकिस्तान की कठपुतली हैं।' ऐसा लगता है जैसे यह बयान कश्मीर की आग में घी डालने की नीयत से 'निर्मित' किया गया था। जेटली ने अपने भाषण का पूरा टेप जारी कर दिया। पोल खुल गई तो अखबार ने पिछले पन्ने पर-छोटी सी माफी मांग ली।
कुछ इसी तरह से जनसंख्या पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत और आजादी की लड़ाई पर मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडे़कर के बयानों को संदर्भ बदलकर दिखाया गया। आम लोगों ने इन बयानों का पूरा वीडियो जारी करके इस फर्जीवाड़े की पोल खोल दी। लेकिन किसी अखबार और चैनल ने माफी तो दूर, दोबारा सही खबर देने की जरूरत भी नहीं समझी।
संस्कृति मंत्री महेश शर्मा को भी इसी तरह के झूठे बयान के खेल में फंसाया गया। मंत्री ने कहा कि हम विदेशी सैलानियों से कहते हैं कि वे धार्मिक स्थलों या सुनसान जगहों पर वहां के हिसाब से पहनावा रखें। बयान के एक खास हिस्से को चैनलों ने सारा दिन इतना चलाया कि हर किसी को यकीन हो गया कि मंत्री ने वाकई वैसा ही बोला है। हद तब हो गई जब एक चैनल के रिपोर्टर ने एक विदेशी लड़की से पूछा, ''हमारे देश के मंत्री ने कहा है कि मिनी स्कर्ट पहनने वाले इंडिया न आएं। आपका क्या कहना है?'' यह पड़ताल होनी चाहिए कि ऐसी हरकतें मूर्खता में हो रही हैं या देश की छवि को धूमिल करने की किसी सोची-समझी साजिश के तहत यह सब किया जा रहा है।
मीडिया की इन फर्जी खबरों का शिकार आम लोग भी हैं। कुछ दिन पहले सभी चैनलों ने छत्तीसगढ़ में जसपुर के एक सरकारी स्कूल का वीडियो दिखाते हुए दावा किया था कि अध्यापक छात्रों से मालिश करवा रहे हैं। सभी ने बिना सचाई जांचे यह वीडियो पूरे दिन दिखाया। जांच के बाद पता चला है कि जिस अध्यापक को मालिश करवाते बताया गया था, उन्हें दिल का दौरा पड़ा था और बच्चे उनकी जान बचा रहे थे। प्राथमिक चिकित्सा का यह तरीका उन्हीं अध्यापक ने बच्चों को सिखाया था। जिस घटना को एक अच्छे उदाहरण की तरह दिखाया जाना चाहिए था, उसे हमारे देश के 'महान' मीडिया ने ऐसे दिखाया कि उन अध्यापक और छात्रों को मानसिक यातना से गुजरना पड़ा। क्या 'सेल्फ-रेगुलेशन' का दम भरने वाले किसी तथाकथित बड़े पत्रकार को आपने इस घटना की निंदा करते सुना?
उड़ीसा में पत्नी का शव कंधे पर ले जा रहे व्यक्ति की तस्वीरों ने पूरे देश को झकझोर दिया। इस खबर ने इस ओर ध्यान दिलाया कि कैसे एक गरीब व्यक्ति सिसटम से कोई उम्मीद तक नहीं रखता। इस मामले को सामने लाने वाले पत्रकार की जितनी भी तारीफ की जाए, कम है।
कुछ चैनलों ने इस पत्रकार को लेकर सवाल उठाए थे। लेकिन ठंडे दिमाग से देखें तो यही समझ में आता है कि वहां पर इस पत्रकार को छोड़कर बाकी सारा सिस्टम फेल हो चुका था। इस पत्रकार ने जो काम किया, उससे दिल्ली में बैठे सुविधाभोगी पत्रकारों को भी कुछ सबक लेना चाहिए। अक्सर ऐसे सच्चे पत्रकारों को उनके काम का श्रेय तक मिल नहीं पाता।
सेकुलरवाद के नाम पर जैन मुनि तरुण सागर जी के अपमान का मामला भी सुर्खियों में रहा। आम आदमी पार्टी के विशाल डडलानी के अलावा कांग्रेस के तहसीन पूनावाला ने भी उन्हें लेकर भद्दी टिप्पणियां कीं। 24 घंटे तक मीडिया ने इस खबर को छुआ तक नहीं। जब पहली बार खबर चली तो वह भी अरविंद केजरीवाल की सफाई के साथ। सफाई की चाशनी में लपेट कर सभी ने ऐसी खबर बनाई कि ज्यादा से ज्यादा लीपापोती की जा सके। विशाल डडलानी का तो फिर भी थोड़ा बहुत जिक्र हो गया, कई अखबारों और चैनलों ने तो प्रियंका वाड्रा के रिश्तेदार तहसीन पूनावाला का नाम तक नहीं लिया।
मीडिया ने भले ही बाकी सारी मर्यादाएं तोड़ दी हैं, लेकिन आज भी एक बड़ा
तबका है जो गांधी और वाड्रा परिवार से जुड़े लोगों के मामले में फूंक-फूंककर काम
करता है। ल्ल
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