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'कई बार छोटी घटनाओं में बड़े परिवर्तनों की आहट सुनी जा सकती है। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का ताजा बयान ऐसी ही घटना है। बच्चों-युवाओं को आगे कर राज्य की शांति और व्यवस्था को तार-तार करने निकले पत्थरमार हुजूमों पर यह बयान भारी शिलाखंड की तरह गिरा है।
हैरानी की बात है कि राज्य के 95 फीसदी लोगों की इच्छाओं को 5 फीसदी षड्यंत्रकारियों द्वारा बंधक बनाए जाने का खुलासा करते इस बयान को अधिकांश मीडिया ने सिर्फ खबर की तरह लिया और इसके विश्लेषण में नहीं उतरा। दरअसल, इस कथन में वह सब कुछ है जिसकी घाटी में बैठे अलगाववादियों और पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं ने कतई उम्मीद नहीं की थी।
पीडीपी पर आतंक और अलगाव के मुद्दों पर नर्म पड़ जाने का आरोप लगाने वालों के लिए यह वक्तव्य काफी चौंकाऊ है। लेकिन सच यही है कि इस बयान में वह समझ और स्पष्टता है जिसकी अपेक्षा राज्य की परिस्थितियां सत्ता से करती हैं।
निश्चित ही यह बयान दिल्ली-श्रीनगर के बीच समझ और समन्वय बढ़ने का नतीजा है। यह साफ है कि अलगाववादियों द्वारा रचित अराजकता का भय दिखाकर 'राजनीतिक पहल' की डफली बजाने वाले अगर राज्य के चुने हुए राजनीतिक नेतृत्व को नकारकर आगे बढ़ना चाहेंगे तो इसकी गुंजाइश अब नहीं है।
अब जरा दूसरी ओर देखें। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री के इस रुख और हुर्रियत के हाशिए पर जाने से पाकिस्तान बेचैन ही नहीं, बल्कि बुरी तरह हिला हुआ है। घाटी के आतंकी कमांडर की मौत पर पाकिस्तान में 'शहीद दिवस' मनाने वाले प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अपने फैसलों के कारण घिरे हुए हैं। भारतीय सदाशयता का दशकों पुरानी पाकिस्तानी शैली में जवाब देते हुए उन्होंने कल्पना नहीं की होगी कि स्थितियां इस तेजी से करवट लेंगी। कश्मीर अब पाकिस्तान के लिए भारत को आहत, उत्तेजित और अलग-अलग करने वाली कूटनीतिक छुरी नहीं, बल्कि स्वयं पाकिस्तान के अस्तित्व पर लटकती तलवार है।
राज्य के पाकिस्तान अधिक्रांत भाग के अलावा करीब आधे पाकिस्तान में ''खूनी पंजे'' से छूटने की आवाजें तेज होती जा रही हैं। सरकार के दमन के बावजूद बलूचिस्तान और सिंध के लोग पाकिस्तान के भीतर 'आजादी' की मांग को लेकर लामबंद होने लगे हैं। जर्मनी, ब्रिटेन सहित यूरोप के अनेक भागों में भी ऐसे प्रदर्शनों की खबरें बता रही हैं कि पाकिस्तान के लिए भविष्य की राह सहज नहीं है। दरअसल, आज जो स्थितियां पैदा हुई हैं, उनके लिए पाकिस्तान स्वयं जिम्मेदार है।
कड़वा सच यह है कि पाकिस्तान की समग्र नीतियां और हितवाद कुछ नहीं है बल्कि विभाजन के बाद से यह सिर्फ और सिर्फ सुन्नी मुसलमानों के हितों का हिंसक जखीरा और आतंक का पालनहार भर साबित हुआ है। इस नफरत और हिंसा की लपटों ने पाकिस्तान के भीतर सिंधी, बलूच एवं अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को झुलसाया है तो सीमा के दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर में सुन्नी अलगाववाद को पोसते हुए शिया, बक्करवाल, सिख, गुर्जर व पंडितों को दशकों तक कुचला है। अब यह बात पाकिस्तान के भीतर और बाहर दोनों तरफ के लोगों की बर्दाश्त से बाहर है।
स्वायतत्ता, आजादी, मानवाधिकार को पाकिस्तान के भीतर रौंदते हुए और भारत में इन नारों को हवा देते हुए एक खास वहाबी इस्लामी विचार काम करता है, इस बात पर यदि किसी को कभी, कोई संशय रहा भी हो तो अब इस धुंध के छंटने का समय आ चुका है। दुनिया इस्लामी आतंक के फैलाव और मानवाधिकार की परिभाषाओं को ज्यादा बेहतर तरीके से समझने लगी है। आतंकियों के मानवाधिकारों की पैरवी करने वालों को वैश्विक स्तर पर कसकर फटकारें पड़ने लगी हैं।
यही वह वजह है जिसने पूरे पाकिस्तान का भविष्य अनिश्चित कर दिया है। अन्य मत-पंथों को कुचलने-निगलने वाला जो वहाबी उन्माद आज दुनिया की परेशानी है, पाकिस्तान पर्दे के पीछे से अब उसे नहीं पोस सकता। भले ही नवाज शरीफ ने कश्मीर पर 'वैश्विक जनसमर्थन' जुटाने के लिए 22 सांसदों का एक दल बनाया है, लेकिन आज की स्थितियों में दुनिया में कौन-सा देश पाकिस्तान का समर्थन करेगा? इस्लामी आतंक ने अमेरिका, बेल्जियम, जर्मनी, फ्रांस, नार्वे, ब्रिटेन— किसे चोट नहीं पहुंचाई? ले-देकर बचता है चीन। लेकिन मुस्लिम उइगर उपद्रवियों की मुश्कें कसने वाला चीन कट्टर इस्लामी रुझान को रोकने के लिए फिल्म सेंसर करने से लेकर रोजा-रमजान के कायदे तय करने तक, खुद वह सब कर रहा है जिसे पाकिस्तान अपने नजरिए से सही ठहराने की हिम्मत नहीं कर सकता।
उन्माद के सौदागरों की कलई खुल चुकी है। दुनिया नई और सहयोगपूर्ण भूमिका के लिए सकारात्मक शक्तियों के बीच ऐसे गठजोड़ तलाश रही है जहां संतुलन के समीकरण सिर्फ आर्थिक हितपोषण के कारण नहीं बनेंगे, बल्कि जिनमें मानवीय गरिमा और उदार सोच के साथ विकास की भरपूर संभावना रहेगी।
अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी का भारत दौरा हो या भारतीय प्रधानमंत्री की आगामी, बहुप्रतीक्षित चीन यात्रा… अंतरराष्ट्रीय राजनीति को जिस दिशा में बढ़ना है, वहां भारत एक सबल, सकारात्मक महत्वपूर्ण घटक की भूमिका में है और उन्मादी तत्वों के लिए कोई जगह नहीं है।
इधर हुर्रियत और उधर नवाज शरीफ को छोडि़ए, यह सोचिए कि बलूचिस्तान में ललकारे और अफगानिस्तान से बुहारे गए पाकिस्तान का भविष्य क्या होगा?
महबूबा मुफ्ती की सख्त मुद्रा के बाद घाटी का मुद्दा अपने छोटे से भूगोल में गिनती के अलगाववादियों के साथ आ सिमटा है। लेकिन पाकिस्तान की परेशानी यह है कि वह इसे छोड़ नहीं सकता, लेकिन यह भी साफ है कि सुन्नी आतंक को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से शह देने वाले एजेंडे के साथ वह प्रगतिशील दुनिया में बढ़ भी नहीं सकता। अपनी ही गढ़ी साजिश की चक्की के दो पाटों में पिसना अब पाकिस्तान की नियति है।
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