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पदक कम, सबक ज्यादा

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Aug 29, 2016, 12:00 am IST
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दिंनाक: 29 Aug 2016 12:28:55

बेशक रियो ओलंपिक में भारत के नाम सिर्फ दो पदक रहे, लेकिन हमारे युवा खिलाडि़यों के शानदार प्रदर्शन ने अगले टोक्यो ओलंपिक के लिए नई राहें खोल दी हैं। विदेशोें की तरह हम भी अपने खिलाडि़यों को तराशने पर ध्यान देंगे तो आने वाले दिनों में  भारतीय खिलाड़ी निश्चित रूप से अच्छा करेंगे

प्रवीण सिन्हा

खेलों का महाकुंभ समाप्त होते ही दुनियाभर में बहस का दौर शुरू हो गया है। चर्चा चल रही है कि हमने क्या खोया या क्या पाया? कहीं खुशी तो कहीं गम का दौर है। खिलाडि़यों और खेलप्रेमियों की ये प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक  हैं। उसैन बोल्ट और माइकल फेल्प्स जैसे महान खिलाडि़यों ने इतिहास रचकर अपने देशवासियों को खुशी मनाने का मौका दिया है। दूसरी ओर, ओलंपिक पदक के दावेदार के रूप में रियो गए कई खिलाडि़यों की झोली खाली रह गई या दुर्भाग्यवश कोई पदक से दूर रह गया तो उनके देश में मातम पसर जाना भी जायज है। हम भारतवासी इस मामले में थोड़े भाग्यशाली हैं। खुशी और गम के दौरों के बीच कई नए सितारों ने अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराते हुए उम्मीद की ऐसी किरणें जगाई हैं जिन पर हम गर्व भी कर सकते हैं और उनके दम पर विश्व खेल पटल पर भारतीय परचम लहराने का दावा भी। रियो ओलंपिक में जहां तक पदक तालिका के हिसाब से आकलन की बात है तो हम कहीं नहीं टिकते। बड़ी मुश्किल भारत के खाते में सिर्फ दो पदक आए, जो खेलप्रेमियों के इतराने के लिए काफी नहीं हैं। लेकिन रियो डि जनेरियो के मंच पर युवा भारतीय खिलाडि़यों के शानदार प्रदर्शन ने अगले टोक्यो ओलंपिक के लिए कई नई राहें खोल दी हैं। यकीनन पदक कम हैं, सबक ज्यादा।
अभी से अगले ओलंपिक के लिए सपने संजोना हो सकता है, थोड़ा अटपटा लगे। लेकिन हमारे कई युवा खिलाडि़यों ने शानदार प्रदर्शन करते हुए उम्मीदें जगाई हैं। बैडमिंटन स्टार खिलाड़ी पी. वी. सिंधु और महिला पहलवान साक्षी मलिक ने रियो ओलंपिक में पदक जीत खेलप्रेमियों को खुशी मनाने का भरपूर मौका दिया है। महिला कुश्ती में हम अभी महाशक्ति का रुतबा हासिल नहीं कर सके हैं, जबकि बैडमिंटन में शीर्षस्थ खिलाडि़यों की कतार में शामिल होने के बावजूद ओलंपिक पदकों के दावेदार के रूप में नहीं माने गए थे। लेकिन पी. वी. सिंधु और साक्षी मलिक ने इतने दमदार तरीके से पदक जीते कि कई स्टार खिलाड़ी इनके आगे पनाह मांगते नजर आए। इन मौकों पर भारतीय खिलाडि़यों ने न सिर्फ इतिहास रचा, बल्कि अपनी मजबूत दावेदारी का बिगुल भी बजाया। इसी क्रम में महिला जिम्नास्ट दीपा करमाकर, पिस्टल शूटर जीतू राय, तीरंदाज अतानु दास, नौकायन में दत्तू भोकानल,  महिला एथलीट ललिता बाबर और युवा महिला गोल्फर अदिति अशोक जैसे खिलाड़ी काफी करीबी मुकाबले में पदक से दूर रह गए। जिम्नास्टिक, नौकायन और महिला कुश्ती जैसे कुछ ऐसे खेल हैं जहां अब तक भारत की दावेदारी को कोई गंभीरता से लेता ही नहीं था। हां, तीरंदाजी, गोल्फ और कुछ हद तक एथलेटिक्स में हमारे खिलाडि़यों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान तो बनाई है, लेकिन इतनी भी नहीं कि ओलंपिक में पदक के करीब पहुंच जाए। इस स्थिति में दीपा, दत्तू भोकानल, ललिता बाबर, अतानु दास और अदिति अशोक ने भारतीय खेल जगत के दायरे को थोड़ा विस्तार जरूर दिया है। दूसरी ओर, सायना नेहवाल और योगेश्वर दत्त जैसे प्रतिभाशाली खिलाडि़यों ने निराशाजनक प्रदर्शन कर भारतीय खेलप्रेमियों को निराश किया है। कमोबेश यही स्थिति टेनिस और निशानेबाजी की रही जिसमें भारतीय दल खाली हाथ लौटा, लेकिन ये ऐसे खेल हैं जिनमें हमें पहले भी ओलंपिक पदक की उम्मीदें थीं और कुछेक सुधार के साथ भविष्य में भी उम्मीदें रहेंगी। रियो में कुछ ऐसे पदक के दावेदारों की असफलता ने बहस का मुद्दा जरूर खड़ा कर दिया है।

पी वी ने बढ़ाया रुतबा
पी. वी. सिंधु और सायना नेहवाल की मौजूदगी में भारतीय बैडमिंटन दल से रियो में पदक की उम्मीद थी। ओलंपिक खेलों में पहली बार भाग ले रहीं दसवीं वरीय पी. वी. ने उसे सच भी कर दिखाया। मैच दर मैच सिंधु ने धमाकेदार प्रदर्शन करते हुए रियो में इतिहास रच दिया। सिंधु ओलंपिक खेलों की व्यक्तिगत स्पर्धा में रजत पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनीं। इतिहास के पन्नों को जब-जब खोला जाएगा, हर वक्त सिंधु का नाम गर्व के साथ लिया जाएगा। वह इसलिए कि सिंधु ने फाइनल में स्पेन की कैरोलिना मारिन के हाथों हारने से पहले प्री क्वार्टर फाइनल में चीनी ताइपे की जू यिंग, क्वार्टर फाइनल में विश्व की नंबर दो चीनी खिलाड़ी वांग यिहान और सेमीफाइनल में ऑल इंग्लैंड चैंपियन जापान की नोजोमी ओकुहारा को लगभग एकतरफा मुकाबले में मात दी। वरिष्ठ खेल पत्रकार राकेश राव कहते हैं, ''सिंधु के दबदबे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने से ऊपर रैंकिंग की इन सभी खिलाडि़यों को लगातार दो-दो गेम में हराते हुए फाइनल में प्रवेश किया। फाइनल में विश्व की नंबर एक खिलाड़ी मारिन के खिलाफ भी उन्होंने पहले गेम में रोमांचक जीत दर्ज कर रोमांच बढ़ा दिया। लेकिन खेल जगत के सबसे बड़े मंच के दबाव और मारिन के अनुभव के आगे सिंधु अंतत: हार गईं। सिंधु ने रियो के अपने हर मैच में आक्रामकता, झन्नाटेदार स्मैश और नेट गेम से विपक्षी खिलाड़ी को मात दी, लेकिन फाइनल में मारिन की आक्रामकता व डिसेप्टिव शॉट्स सिंधु पर भारी पड़े।''
हालांकि मुकाबले के बाद सिंधु के कोच पुलेला गोपीचंद ने स्वीकार किया कि मारिन ने बेहतर प्रदर्शन कर स्वर्ण पदक जीता। उन्होंने माना कि सिंधु ने अपनी प्रतिभा से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया। सिंधु ने अपने खेल के स्तर को इतना ऊंचा कर लिया था कि मारिन को फाइनल मुकाबला जीतने के लिए अपनी सारी ताकत और अनुभव झोंक देना पड़ा। भारत को एक के बाद एक स्टार बैडमिंटन खिलाड़ी दे रहे गोपीचंद को भरोसा है कि महज 21 वर्ष की उम्र में सिंधु ने जो किया उससे ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती है।
सिंधु के अलावा पुरुष वर्ग में किदाम्बी श्रीकांत ने शानदार प्रदर्शन करते हुए शुरुआती मुकाबले आसानी से जीते, जबकि प्री क्वार्टर फाइनल में पांचवीं वरीयता प्राप्त डेनमार्क के जॉर्गेनसन को हराकर तहलका मचा दिया। भारतीय खेमे में उस वक्त एक बार फिर उम्मीद की किरण जगी जब श्रीकांत ने क्वार्टर फाइनल में दो बार के ओलंपिक और पांच बार के विश्व चैंपियन चीन के लिन डैन को दूसरे चक्र में 21-11 से मात देकर बराबरी हासिल कर ली। लेकिन लिन डैन ने अंतत: तीसरा चक्र 21-18 से जीतकर साबित कर दिया कि उन्हें क्यों बैडमिंटन का महानतम खिलाड़ी कहा जाता है।


सायना ने किया निराश

सिंधु और किदाम्बी अपने से कहीं बेहतर चैंपियन खिलाड़ी से हारे इसलिए खेलप्रेमियों को ज्यादा दु:ख नहीं हुआ। लेकिन सायना नेहवाल का दूसरे ही दौर में यूक्रेन की एक अनजान सी खिलाड़ी यूलितिना के हाथों हार कर बाहर हो जाना दु:खद था। वह सायना ही थीं, जिन्होंने कुछ साल पहले चीनी खिलाडि़यों को हराते हुए विश्व रैंकिंग में नंबर एक स्थान हासिल किया था। उससे पहले चीनी खिलाडि़यों को हराना भारतीयों के लिए एक सपना भर होता था। लेकिन सायना ने चीनी खिलाडि़यों को इतनी कड़ी चुनौती दी कि एक समय मुकाबलों को सायना बनाम चाइना का नाम दिया जाने लगा। वक्त बीतने के साथ हालांकि चीनी खिलाडि़यों ने फिर से सायना पर हावी होना शुरू कर दिया, लेकिन सायना से प्रेरणा लेकर ही सिंधु और किदाम्बी ने चीनी खिलाडि़यों को हराना शुरू किया। दरअसल, सायना ने रियो ओलंपिक से पहले खुद पर इतना बोझ डाल दिया कि वह मुकाबले शुरू होने से पहले ही एक तरह से हार गई थीं। रियो में स्वर्ण जीतने का सपना देखने वालीं सायना निर्धारित कार्यक्रम से ज्यादा अभ्यास कर-करके ओलंपिक से पहले ही चोटिल हो गई थीं। यह उन्हें भी पता था कि ओलंपिक के मंच पर बार-बार विपक्षी के चोटिल होने का फायदा नहीं मिलता है। पिछले लंदन ओलंपिक में सायना की विपक्षी चीनी खिलाड़ी वांग जिन चोटिल होकर बाहर हो गई जिससे उन्हें ओलंपिक खेलों में बैडमिंटन का पहला पदक (कांस्य) जीतने का मौका मिला। इस बार सायना को तमाम सरकारी सुविधाएं और सपोर्ट स्टाफ उपलब्ध कराए गए, लेकिन उन्हें योजनाबद्ध तरीके से अभ्यास न करने का नुकसान हुआ। रियो में मुकाबले से पहले ही उनका घुटना चोटिल हो गया था और अब उन्हें घुटने के ऑपरेशन के बाद कुछ समय के लिए बैडमिंटन कोर्ट से बाहर होना पड़ा है।

साक्षी का ऐतिहासिक पदक पर दांव
पिछले कुछ ओलंपिक खेलों में ऐसा होता रहा है कि निशानेबाजों ने शुरुआती दिनों में ही देश को पदक दिलाकर भारतीय खेमे का मनोबल ऊंचा कर दिया। यह सिलसिला 2004 एथेंस ओलंपिक से शुरू हुआ था। उसके बाद पहली बार भारतीय निशानेबाज पदक जीतने में सफल नहीं हो पाए और भारतीय खेमे में मायूसी की लहर दौड़ गई। हालांकि महिला कुश्ती में भारत को कुछ आस थी, लेकिन 48 किलोग्राम फ्रीस्टाइल कुश्ती के क्वार्टर फाइनल में विनेश फोगट के चोटिल होते ही निराशा और गहरा गई। उस बीच, अचानक से साक्षी मलिक के रूप में कुश्ती की नई मलिका का उदय हुआ जिसने 58 किलोग्राम भारवर्ग का कांस्य पदक जीतकर न केवल इतिहास रचा, बल्कि रियो ओलंपिक में भारत के पदक के सूखे को भी खत्म किया। ओलंपिक खेलों में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान साक्षी के बारे किसी ने सोचा भी नहीं था कि वे इतिहास रच देंगी। लेकिन साक्षी ने अपने कांस्य पदक मुकाबले के अंतिम क्षणों तक अपने कोच को कहा था कि सर, मैं हार नहीं मानूंगी। साक्षी ने इसे साबित किया और फोगट बहनों के साये से निकलकर एक नई स्टार के रूप में उभरीं।  इस बार भी रियो में विनेश फोगट से हर किसी को स्वर्ण पदक की उम्मीद थी, लेकिन वह चीनी पहलवान के खिलाफ चोटिल होकर मुकाबले से बाहर हो गईं।
रियो में इतिहास रचने से पहले साक्षी ने अपने घर में एक तस्वीर लगा रखी थी जिसमें लिखा था – मैं मैडल जीतूंगी। उनके कोच ईश्वर सिंह दहिया कहते हैं, ''रियो जाने से पहले साक्षी ने पदक जीतकर वापस लौटने का विश्वास दिलाया था। हालांकि हरियाणा में लड़कियों को कोचिंग देना कतई आसान नहीं होता, वह भी कुश्ती मंे। लेकिन इच्छाशक्ति हो तो किसी भी ऊंचाई को लांघा जा सकता है।'' इसी तरह अंतरराष्ट्रीय महिला पहलवान ज्योति ने कहा, ''साक्षी के पदक जीतने से पहले अगर आप मुझसे पूछते तो मैं विनेश का नाम लेती। लेकिन विनेश के चोटिल होने के बाद साक्षी से थोड़ी उम्मीद थी क्योंकि वह बहुत ही जुझारू खिलाड़ी है और अंतिम दम तक हार नहीं मानती।'' साक्षी रैपचेज मुकाबलों में पांच में से तीन में अपनी प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी से पीछे चल रही थीं, लेकिन हर बार उन्होंने वापसी करते हुए मुकाबला जीता।

दीपा ने दिखाई राह
त्रिपुरा की 23 वर्षीया दीपा करमाकर ने महिला जिम्नास्टिक में शानदार प्रदर्शन करते हुए पदक तो नहीं, लेकिन करोड़ों खेलप्रेमियों का दिल जरूर जीत लिया। ओलंपिक खेलों में जिम्नास्टिक एक ऐसा खेल है जिस पर अमेरिका, रूस, चीन, जापान या अन्य यूरोपीय देशों का दबदबा रहा है। लेकिन दीपा ने खतरनाक प्रोडूनोवा वोल्ट के बल पर ओलंपिक खेलों के दौरान अपनी सभी प्रतिद्वंद्वियों को हैरान कर दिया। शरीर के आगे खतरनाक समरसॉल्ट वोल्ट करने की हिम्मत बहुत कम ही खिलाड़ी दिखा पाती हैं, लेकिन दीपा ने रियो में हर बार इसी वोल्ट को अपनाते हुए अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ा। इसे आमतौर पर मौत का वॉल्ट कहा जाता है। रियो में इस वॉल्ट का प्रयास करते हुए एक खिलाड़ी गंभीर रूप से चोटिल भी हो गई थी, लेकिन दीपा ने इस खतरनाक वॉल्ट को अपनी आदत बना ली है।
हालांकि फाइनल में पहुंचकर दीपा ने पहले ही इतिहास रच दिया था, लेकिन उनके हैरतअंगेज प्रदर्शन से देशवासियों को उनसे पदक की उम्मीद भी प्रबल हो गई थी। फाइनल में उन्होंने सटीक वोल्ट मारा, लेकिन डिस्माउंटिंग (वोल्ट समाप्त करने वाला क्षण) में उनका दायां पैर आधा कदम दूर छिटक गया और वह ओलंपिक के कांस्य पदक से महज 0.15 अंक से दूर रह गईं और उन्हें चौथे स्थान पर संतोष करना पड़ा।
त्रिपुरा के एक भारोत्तोलक की पुत्री दीपा ने अपने आत्मविश्वास के जरिये न केवल भारत को विश्व जिम्नास्टिक पटल पर एक पहचान दिला दी है, बल्कि साबित कर दिया कि
अगर इस खेल पर ध्यान दिया जाए तो ओलंपिक पदक भारतीय खिलाडि़यों की जद से दूर नहीं है।
वैसे, खेल के जानकार और कमेंटेटर अनुपम गुलाटी का मानना है, ''जिस देश में जिम्नास्टिक की कोई विशेष परंपरा न रही हो और जिस खिलाड़ी के पास सुविधाओं का अभाव रहा हो, उसके बावजूद ओलंपिक खेलों में पदक जीतने से मामूली अंतर से चूक जाना तारीफ के काबिल है।'' उन्होंने कहा, अमेरिकी जिम्नास्ट सिमोन बाइल्स को ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता बनाने के लिए सरकार करोड़ों रुपए खर्च करती है, लेकिन दीपा को उनके स्थानीय प्रशिक्षक बिशेश्वर नंदी के साथ त्रिपुरा या फिर दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में छोड़ देना कहां का न्याय है? दीपा एक चैंपियन खिलाड़ी के तौर पर उभर रही थीं जो उन्होंने 2014 के ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों और इंचियन एशियाई खेलों में दिखा दिया था। इसके बावजूद खेल महकमा ने दीपा के प्रशिक्षण पर महज 15 लाख रुपए खर्च किए, जबकि अन्य देशों में खिलाडि़यों के प्रशिक्षण व उनकी सुविधाओं पर करोड़ों रुपए खर्च होते हैं।


दत्तू की जांबाजी
महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त गांव नासिक के 25 वर्षीय नौकायन के खिलाड़ी दत्तू भोकानल ने रियो ओलंपिक की पुरुष एकल स्कल्स स्पर्धा के फाइनल में पहुंच कर इतिहास रच दिया। हालांकि दत्तू फाइनल में 13वें स्थान पर रहे, लेकिन हीट्स में उन्होंने जो समय निकाला था वह पदक के काफी करीब था। दत्तू को अगर निरंतर अभ्यास और बेहतर प्रशिक्षण मिल जाए तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नौकायन में वह अगले कई वर्षों तक भारत का परचम लहरा सकते हैं।
पानी के लिए गहराई तक कुएं खोदने वाले और छोटी-मोटी खेती करने वाले दत्तू के लिए कोई पांच वर्ष पहले जिंदगी जीने के कोई मायने नहीं रह गए थे। दरअसल, एक गरीब परिवार को चला रहे दत्तू के पिता का देहांत हो गया जिसके बाद दत्तू के सामने परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी आ गई। छह फुट चार इंच लंबे दत्तू को अंतत: वर्ष 2012 में सेना में हवलदार की नौकरी मिल गई। यह उनके लिए राहत की बात थी। लेकिन उन्हें तब करारा झटका लगा जब सेना में उन्हें नौकायन दल में शामिल होने का आदेश जारी कर दिया गया। पानी से डरने वाले दत्तू को पानी की स्पर्धा के लिए ही चुन लिया गया। हालांकि इच्छाशक्ति के बल पर दत्तू ने नौकायन को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया और रियो में धूम मचाते हुए उम्मीद की एक किरण जगा दी है। 

 

अभिनव, जीतू के निशाने चूके
रियो ओलंपिक से पहले अगर किसी भारतीय को पदक का सबसे बड़ा दावेदार माना गया था तो वे अभिनव बिंद्रा और जीतू राय थे। लेकिन इन दोनों ही स्टार खिलाडि़यों का निशाना पदक से चूक गया। रिकॉर्डबुक में दर्ज हो गया कि अभिनव चौथे और जीतू आठवें स्थान पर रहे। लेकिन पूर्व ओलंपियन गुरबीर सिंह का कहना है, ''इन दोनों निशानेबाजों की काबिलियत और प्रदर्शन को कतई नकारा नहीं जा सकता। दोनों उतने ही अंतर से पदक चूके, जिसे आप नग्न आंखों से शायद न देख पाएं। मिलीमीटर के स्पॉट से निशाना भटक जाना कतई खराब प्रदर्शन नहीं कहा जा सकता है। ओलंपिक जैसे खेल मंच पर दुनियाभर के स्टार खिलाडि़यों का दबाव इतना ज्यादा रहता है कि 50 शॉट में अगर आपने दो निशाने 6 या 7 अंकों के मार दिए तो आप मुकाबले से बाहर हो जाते हैं। ठीक ऐसा ही अभिनव और जीतू के साथ हुआ। ये दोनों निशानेबाज फाइनल में पहुंचे, यही एक बड़ी उपलब्धि है।''
अभिनव रिकॉर्ड पांचवां ओलंपिक खेलने उतरे थे। 2008 बीजिंग ओलंपिक में स्वर्ण जीतने के बाद लंदन ओलंपिक में उन्हें निराशा हाथ लगी और वह फाइनल में भी नहीं पहुंच पाए। लेकिन रियो ओलंपिक के लिए उन्होंने खासी तैयारी की थी। बिंद्रा की कड़ी मेहनत और निरंतरता के कारण उन्हें इस बार स्वर्ण पदक का दावेदार माना जा रहा था। लेकिन अपने करिअर के आखिरी मुकाबले में वह चौथे स्थान पर ही रह सके। इस बात को भारतीय खेलप्रेमी आसानी से नहीं पचा पा रहे हैं जिसकी वजह से बिंद्रा जैसे स्टार खिलाडि़यों की भी आलोचना होती है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अभिनव ने ओलंपिक में देश के लिए एकमात्र व्यक्तिगत स्वर्ण पदक जीता है। उन्होंने करीबन दो दशक तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन किया है।
अन्य निशानेबाजों का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा। इसकी वजह संभवत: यह रही कि गगन नारंग और अपूर्वी चंदेला ने कई स्पर्धाओं में भाग लेने का फैसला किया। उससे कहीं बेहतर यह होता कि वे हर जगह हाथ मारने की बजाय उस स्पर्धा में भाग लेते जिसमें उनकी विशिष्टता थी। बहरहाल, निशानेबाजों को भविष्य के लिए यह सबक जरूर मिल गया कि उन्हें योजनाबद्ध तरीके से अभी से टोक्यो की तैयारी में जुट जाना चाहिए। जहां तक बात ट्रैप निशानेबाजों का है तो हर बार की तरह उनकी भागीदारी तो तय थी, लेकिन पदक उनसे कहीं दूर थे।

टेनिस में तमाशा ज्यादा, उम्मीद कम
पिछले कुछ वर्षों से भारतीय टेनिस जगत में ओलंपिक में भागीदारी को लेकर अक्सर विवाद खड़े होते रहे हैं। लिएंडर पेस में देश के लिए खेलने को लेकर जज्बा जगजाहिर है। उन्होंने इस बार भी रिकॉर्ड सातवीं बार रियो ओलंपिक में भाग लिया, लेकिन पुरुष युगल में पेस और रोहन बोपन्ना की जोड़ी पहले ही दौर में पोलैंड की जोड़ी से हारकर बाहर हो गई। इसके बाद भारत की उम्मीद मिश्रित युगल में बोपन्ना व सानिया मिर्जा की जोड़ी पर टिकी थी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में साथ न खेलने का नुकसान उन्हें उठाना पड़ा। बोपन्ना और सानिया दोनों ही विश्व युगल वरीयता क्रम में शीर्ष दस खिलाडि़यों में शामिल थे, लेकिन रोहन मुकाबले से पहले ही पेस के साथ पुरुष युगल में खेलने को लेकर आपत्ति जता चुके थे। नतीजा सामने था। देश का चैंपियन खिलाड़ी पेस, जो अपने जुझारूपन और हार न मानने की जिद वाले खिलाड़ी के तौर पर पहचाने जाते हैं, अनमने ढंग से रोहन के साथ मुकाबले में उतरे और पहले ही दौर में हारकर बाहर हो गए। मिश्रित युगल में भी सानिया और रोहन की जोड़ी सामंथा स्टोसुर और एंडी मरे जैसे खिलाडि़यों को हराकर पदक की ओर बढ़ रही थी। लेकिन सेमीफाइनल में रोहन
और सानिया की जोड़ी तनाव में आ गई
और वीनस विलियम्स और राजीव राम की जोड़ी से हारकर करीबन निश्चित दिख रहे पदक से दूर रह गई।

ललिता चमकीं, बाकी सब बिखरे
रियो गए 34 सदस्यीय भारतीय एथलेटिक्स दल में 3000 मीटर स्टीपल चेज स्पर्धा में दसवें स्थान पर रहीं ललिता बाबर के अलावा बाकी सभी एथलीटों ने काफी निराश किया। सुविधाओं और प्रशिक्षण की कमी का रोना रोने वाले एथलीटों ने एक बार फिर खाली हाथ लौटते हुए अपने प्रदर्शन से काफी निराश किया। महाराष्ट्र के सतारा गांव की ललिता बचपन में चार किलोमीटर दूर अपने स्कूल तक दौड़ते हुए जाती थीं जिसका असर आज भी उनमें दिखता है। ललिता 1984 के लॉस एंजिलिस ओलंपिक की ट्रैक स्पर्धा के फाइनल में पहुंचीं पीटी ऊषा के बाद ट्रैक स्पर्धा के फाइनल में पहुंचने वाली पहली एथलीट बनीं। फाइनल में ललिता 9 मिनट 22.74 सेकेंड का समय निकालते हुए 10वें स्थान पर रहीं, लेकिन संतोष की बात यह रही कि वह कम से कम अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने में सफल रहीं।
ललिता के अलावा अन्य शीर्ष एथलीटों का आलम यह था कि पदक के करीब पहुंचने की बात तो दूर, कोई भी अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के आसपास भी नहीं पहुंच सका। पुरुष त्रिकूद के रंजीत माहेश्वरी ने बेंगलूरू में 17.31 मीटर की छलांग लगाते हुए तहलका मचा दिया था। रंजीत का यह प्रदर्शन इस वर्ष का विश्व का तीसरा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। लेकिन रियो में जैसे उन्हें सांप सूंघ गया और वह 16.13 की दूरी तयकर 30वें स्थान पर पिछड़ गए। कमोबेश यही कहानी 100 मीटर महिला फर्राटा दौड़ में भी दिखी जिसमें पदक की दावेदार मानी जा रहीं दूती चंद 11.69 सेकेंड का समय निकालकर 50वें स्थान पर पिछड़ गईं। दूती अगर 11.24 सेकेंड का अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी रियो में दोहरा लेेेतीं तो उनकी स्थिति अच्छी होती। पुरुष चक्का फेंक एथलीट विकास गौड़ा ने अमेरिका में प्रशिक्षण के नाम पर सरकार के करोड़ रुपए से भी अधिक खर्च करा दिए, लेकिन रियो में अपने 65.20 मीटर के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन से करीबन छह मीटर पीछे रहते हुए शर्मनाक प्रदर्शन किया।
भारतीय एथलेटिक्स में यह एक गंभीर समस्या उभर रही है कि देश में इतना अच्छा प्रदर्शन करने वाले एथलीट ओलंपिक के सबसे बड़े मंच पर जाकर इतना खराब प्रदर्शन कैसे कर सकता है। भारतीय एथलेटिक्स संघ के लिए यह चेतने का समय है कि जहां अन्य देश के एथलीट ओलंपिक खेलों में अपने प्रदर्शन को शिखर तक पहुंचा देते हैं, वहीं हमारे एथलीट हमेशा खराब प्रदर्शन ही क्यों करते हैं? कहीं न कहीं व्यवस्था में दोष तो है। नहीं तो एक महीने पहले बड़ी संख्या में जो एथलीट ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करते हैं, वहीं ओलंपिक खेलों में हांफते-कांपते नजर आते हैं।

निशाने पर फिर नहीं लगे तीर
अन्य भारतीय खिलाडि़यों में महिला तीरंदाज दीपिका कुमारी ने काफी निराश किया, जबकि उनकी साथी खिलाड़ी बोंबायला देवी ने प्री क्वार्टर फाइनल तक का सफर तय कर प्रभावित किया। दीपिका विश्व की शीर्ष तीरंदाज रह चुकी हैं, लेकिन हर बार की तरह ओलंपिक खेलों में उनके लिए एक बार फिर बहाना तैयार था कि हवा तेज चल रही थी इसलिए उनके निशाने भटक गए। हालांकि पुरुष वर्ग में कोलकाता के अतानु दास ने रिकर्व व्यक्तिगत स्पर्धा में पांचवें स्थान पर रहते हुए काफी प्रभावित किया। वह पदक के करीब पहुंचकर भी उससे दूर रह गए।
इसी तरह मुक्केबाज में विकास कृष्णन ने अपने शुरुआती दो मुकाबले जीतकर उम्मीद जगायी, लेकिन उनका सफर क्वार्टर फाइनल में खत्म हो गया। उनके अलावा ऐसा लगा जैसे शिव थापा और मनोज कुमार ओलंपिक में भागीदारी के लिए गए थे और वे खाली हाथ लौट आए। हां, महिला गोल्फर अदिति अशोक ने जरूर अपने प्रदर्शन से प्रभावित किया, लेकिन पुरुष वर्ग में अनिर्बान लाहिड़ी और एसएसपी चौरसिया ने निराश किया। गोल्फ एक ऐसा खेल है जहां भारतीय दल से थोड़ी उम्मीद थी, लेकिन समुद्री किनारे बने गोल्फ कोर्स में शायद उन्हें आशातीत सफलता नहीं मिल सकी।
बहरहाल, रियो से लौटने के बाद देश में सराहना और उलाहनों के बीच बात अभी खत्म नहीं हुई है। यह पड़ाव है जहां से एक नई शुरुआत की जा सकती है। चुनिंदा पदकों और अनगिनत सबकों के साथ टोक्यो में हम किस तरह जाएंगे और क्या हासिल करेंगे, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हमने खोया तो बहुत कुछ लेकिन खामियों से क्या सीखा।
जापान की कहानी ब्राजील में लिखी जा चुकी है। इंतजार कीजिए 2020 का।   

 

महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त गांव नासिक के 25 वर्षीय नौकायन के खिलाड़ी दत्तू भोकानल ने रियो ओलंपिक की पुरुष एकल स्कल्स स्पर्धा के फाइनल में पहुंच कर इतिहास रच दिया

माइकल फेल्प्स : खेल जगत के कोहिनूर


अमेरिका के महान तैराक माइकल फेल्प्स अगर एक खिलाड़ी की जगह देश होते तो ओलंपिक खेलों की पदक तालिका में उनका स्थान करीबन दसवें स्थान पर होता। यह जानना अविश्वसनीय लगता है। लेकिन सच यही है कि ओलंपिक इतिहास में 23 स्वर्ण सहित कुल 28 पदक जीत माइकल फेल्प्स ने सबसे ज्यादा पदक जीतने का रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया है। 2004 एथेंस ओलंपिक से लेकर 2016 रियो ओलंपिक तक तरणताल में उन्होंने लगभग एकछत्र राज स्थापित किया। 6 फीट 4 इंच लंबे फेल्प्स जब तरणताल में उतरते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई व्हेल समुद्र को चीरता हुआ सा आगे बढ़ रहा है।  

ओलंपिक खेलों में फेल्प्स का रिकॉर्ड
वर्ष    स्वर्ण    रजत    कांस्य
2004 एथेंस    06    —    02
2008 बीजिंग    08    —    —
2012 लंदन    04    02    —
2016 रियो    05    01    —
कुल    23    03    02

ओलंपिक में भारत
स्वर्ण    रजत    कांस्य    कुल    रैंक
09    07    12    28    51
(नॉर्मन प्रिचार्ड के वर्ष 1900 पेरिस ओलंपिक में जीते गए 2 रजत पदक सहित)

'खेल संस्कृति बनाने की जरूरत'
साक्षी मलिक ने कांस्य पदक जीत एक राह दिखाई है कि भारतीय महिलाएं यदि पूरी ईमानदारी और जीत की अदम्य इच्छाशक्ति से तैयारी करें तो ओलंपिक पदक उनकी पहुंच से दूर नहीं है। इसी तरह जिम्नास्टिक में हम कहीं नहीं ठहरते, लेकिन दीपा करमाकर ने पदक के करीब पहुंचकर देशवासियों को सीख दी है कि सुविधाओं के अभाव के बावजूद विश्व खेल पटल पर कैसे डंका बजाया जाता है। नौकायन में दत्तू भोकानल ने फाइनल तक का सफर तय कर कुछ ऐसा ही संदेश दिया है। स्टार शूटर अभिनव बिंद्रा ने कहा भी है, एक स्पोर्टिंग देश बनने के लिए हमें इसे सामाजिक गतिविधि बनाना होगा। जाहिर है, देश में खेल का सहज-उत्साही माहौल बनाए बिना हम ओलंपिक में भागीदारी की खानापूर्ती तो कर सकते हैं, अच्छी संख्या में पदकों का सपना नहीं संजो सकते।     — गुरबीर सिंह (पूर्व ओलंपिक खिलाड़ी)

ब्रिटेन की सफलता के राज
अब से 20 वर्ष पहले 1996 अटलांटा ओलंपिक में ब्रिटेन की टीम एक स्वर्ण सहित कुल 15 पदक जीतकर पदक 36वें स्थान पर थी। ब्रिटेन खेल की महाशक्ति की सूची से लगभग बाहर हो चुका था। लेकिन उसके बाद लॉटरी फंडिंग की मदद से खिलाडि़यों की तैयारी पर अकूत धन लगाए जाने लगे और ब्रिटेन की सफलता का ग्राफ तेजी से बढ़ता चला गया। 2004 एथेंस ओलंपिक में कुल 30 पदक और 2012 लंदन ओलंपिक में कुल 65 पदक जीतकर पदक तालिका में तेजी से उड़ान भरी। योजनाबद्ध तरीके से आधुनिक सुविधाओं से लैस प्रशिक्षण केंद्रों पर अभ्यास करने का ब्रिटिश टीम को काफी फायदा मिला। ब्रिटेन ने 2016 रियो ओलंपिक में शानदार प्रदर्शन करते हुए 27 स्वर्ण सहित कुल 67 पदक जीतते हुए पदक तालिका में दूसरा स्थान हासिल करते हुए तहलका मचा दिया।

 

1-
तोड़नी होगी घर के भीतर घेराबंदी
रियो ओलंपिक में भारतीय दल अगर आशातीत सफलता हासिल नहीं कर सका तो उसके पीछे भारतीय खेल जगत में खास किस्म की लामबंदियां और उनसे निबटने में प्रशासनिक नाकामी जिम्मेदार रही। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है नरसिंह यादव प्रकरण। इस डोप और षड्यंत्र प्रकरण से उत्पन्न संकट की स्थिति को भारतीय कुश्ती महासंघ सही ढंग से सुलझा नहीं सका। इससे भारत कुश्ती में करीबन तय एक पदक से वंचित रह गया। नरसिंह के अलावा दो बार के ओलंपिक पदक विजेता सुशील कुमार और प्रवीण राणा जैसे अंतरराष्ट्रीय पहलवान हमारे पास विकल्प के रूप में मौजूद थे, लेकिन अहम् के टकराव के कारण हमने न केवल एक पदक खोया, बल्कि देश की छवि भी धूमिल हुई। अन्य खेलों में भी ऐसी कहानियां गाहे बगाहे उजागर होती रही हैं।

2.
छांटने होंगे प्रशासनिक सुस्ती के बादल
रियो में भारतीय हॉकी टीम पहुंच गई लेकिन उनकी किट नहीं पहुंची, खेलगांव में खिलाड़ी बीमार पड़ गया पर टीम डॉक्टर उसकी देखरेख के लिए समय पर मौजूद नहीं था, इसी तरह महिला मैराथन के दौरान ओ पी जैशा का ट्रैक पर गिर जाना और तीन घंटे तक बेहोश रहना पर उनकी सुध लेने वाला कोई अधिकारी मौजूद नहीं था। ये पीड़ादायक प्रकरण रियो ओलंपिक के दौरान घटे। ओलंपिक दल में डॉक्टर, कोच, मालिशिए, मनोवैज्ञानिक सहित दल प्रमुख व सरकारी अधिकारियों का लंबा-चौड़ा जत्था जाता है, लेकिन रियो में ये अपनी जिम्मेदारी के प्रति सजग नहीं दिखे। यह एक बड़ी प्रशासनिक भूल थी।

3-
मीडिया को बनना होगा ज्यादा जिम्मेदार
रियो ओलंपिक शुरू होने से पहले मीडिया और कई विशेषज्ञों ने लंदन ओलंपिक (6 पदक) से भी बेहतर प्रदर्शन करने का दावा कर खिलाडि़यों पर अतिरिक्त दबाव डाल दिया। हर खेल से ओलंपिक पदक निकाल लाने का दावा करने वालों का तांता लग गया। यह सच्चाई से परे अनावश्यक माहौल बनाने का प्रयास भर था।  ओलंपिक पदक जीतने के लिए आठ-दस साल तक अनवरत उत्कृष्ट प्रदर्शन की जरूरत होती है। बेहतर सुविधाएं, उच्च तकनीक और हर खेल के विशेषज्ञों के सहारे ओलंपिक चैंपियन पैदा करने की दीर्घावधि योजनाओं को अमल में लाने के बाद ही मजबूती से दावा पेश किया जा सकता है।

उसैन बोल्ट : चमकती बिजली का दूसरा नाम

धरती के सबसे तेज धावक उसैन बोल्ट 2008 बीजिंग ओलंपिक में उल्का पिंड की तरह जो चमके, उसके बाद से तो ट्रैक पर बिजली की तरह चमकना उनकी आदत सी पड़ गई। बोल्ट बीजिंग में 100 मीटर, 200 मीटर और 4 गुणा 100 मीटर रिले दौड़ में स्वर्णिम तिकड़ी लगाते हुए एक नायक की तरह उभरे। इसके बाद 2012 लंदन ओलंपिक में भी जब उन्होंने इन्हीं तीनों स्पर्धाओं में पहले से भी तेज गति में स्वर्णिम तिकड़ी लगाई तो उनका दर्जा महामानव का हो चुका था। तब तक 100 मीटर दौड़ का 9.58 सेकेंड का विश्व रिकॉर्ड और 9.63 सेकेंड का ओलंपिक रिकॉर्ड बोल्ट के नाम दर्ज हो चुका था। बोल्ट जिस गति से 100 मीटर में दौड़ते हैं, उसी गति से 200 मीटर और रिले में भी भागते हैं, जो उन्हें साथी एथलीटों से अलग महानतम की ॰ेणी में लाता है। हालांकि 2016 रियो ओलंपिक में उनकी चुनौती तोड़ने की कई धावकों ने दावे किए, लेकिन बोल्ट एक बार फिर अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ते हुए स्वर्णिम तिकड़ी की तिकड़ी पूरी कर ली। ओलंपिक इतिहास में लगातार तीन बार 100 मीटर, 200 मीटर और 4 गुणा 100 मीटर रिले दौड़ में स्वर्णिम तिकड़ी लगाने वाले बोल्ट एकमात्र एथलीट हैं। अंतरराष्ट्रीय करिअर को अलविदा कह चुके बोल्ट की बिजली लंबे समय तक कौंधेगी।  

 

नरसिंह प्रकरण का बहुत बुरा असर पड़ा : बृजभूषण
रियो ओलंपिक शुरू होने से पहले सुशील कुमार और नरसिंह यादव में से कौन भाग लेगा, इस बात को लेकर खूब खींचातानी हुई। 74 किलोग्राम फ्रीस्टाइल वर्ग में नरसिंह यादव ने देश के लिए कोटा स्थान हासिल किया, लेकिन पिछले दो बार के ओलंपिक पदक विजेता सुशील कुमार ने अपने स्टारडम की आड़ में रियो जाने की जिद ठान ली। नतीजतन रियो में भारतीय पुरुष कुश्ती दल का अभियान निराशाजनक ढंग से समाप्त हो गया।
भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण सिंह ने इस बाबत स्वीकार किया कि नरसिंह की भागीदारी को लेकर रियो जाने से पहले अदालत तक मामला घसीटे जाने के बाद से ही भारतीय दल के मनोबल पर बुरा असर पड़ा था। इसके बाद डोपिंग में नरसिंह का नाम सामने आना, फिर नाडा द्वारा क्लीन चिट मिलने के बाद वाडा द्वारा उसे चार साल के लिए प्रतिबंधित कर दिए जाने से हमारे पहलवानों का मनोबल टूट गया। वाडा ने अगर इतना कड़ा फैसला नहीं सुनाया होता तो नरसिंह सहित अन्य पहलवान पदक जीतने में शायद सफल रहते। पुरुषों की 74 किग्रा वर्ग के कांस्य पदक विजेताओं को नरसिंह हरा चुके थे, तो फिर उनके हाथ से तो एक तरह से निश्चित पदक फिसल गया।
 उन्होंने कहा, कुश्ती में बीजिंग में एक और लंदन में दो पदक जीतने के बाद हम रियो में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद के साथ गए थे। लेकिन नरसिंह प्रकरण के बाद हम पुरुष वर्ग में खाली हाथ लौट आए। महिला वर्ग में साक्षी ने पदक जीत हमारी लाज रख ली, लेकिन नरसिंह सहित विनेश फोगट का दूसरे दौर में चोटिल होना और बबीता का मुकाबले से पहले बीमार पड़ जाना एक तरह से भारत के तीन पदक गंवाने जैसा रहा। यही नहीं, यदि वाडा ने ऐन वक्त पर नरसिंह को प्रतिबंधित न किया होता तो हम और भी पदक जीत सकते थे। उन्होंने कहा, खैर जो हो गया उसे नकारा नहीं जा सकता। अब मेरी इच्छा यही है कि नरसिंह के डोप प्रकरण में जो दोषी है उसे सजा मिलनी ही चाहिए। सीबीआई द्वारा जांच कर सच्चाई सामने लानी चाहिए ताकि भविष्य में किसी अन्य पहलवान के साथ ऐसी शर्मनाक स्थिति न आए, और न ही भारतीय अभियान को ओलंपिक में इस तरह झटका लगे। 

 

ओलंपिक खेलों में भारत के पदक विजेता

1952 हेलसिंकी    के. डी. जाधव     कुश्ती    कांस्य
1996 अटलांटा    लिएंडर पेस     टेनिस     कांस्य
2000 सिडनी    कर्णम मल्लेश्वरी     भारोत्तोलन     कांस्य
2004 एथेंस     राज्यवर्धन सिंह राठौर    निशानेबाजी    रजत
2008 बीजिंग    अभिनव बिंद्रा    निशानेबाजी    स्वर्ण
2012 लंदन    विजय कुमार     निशानेबाजी    रजत
2012 लंदन    सुशील कुमार     कुश्ती    रजत
2012 लंदन    गगन नारंग     निशानेबाजी    कांस्य
2012 लंदन    योगेश्वर दत्त     कुश्ती     कांस्य
2012 लंदन     सायना नेहवाल     बैडमिंटन     कांस्य
2012 लंदन    एम सी मैरीकॉम    मुक्केबाजी    कांस्य
2016 रियो     पी वी सिंधू     बैडमिंटन    रजत
2016 रियो    साक्षी मलिक    कुश्ती     कांस्य

 

पदक विजेताओं पर हुए खर्च
हमने रियो में सिर्फ दो पदक जीते, यह सच है। लेकिन क्या हमने पदक विजेता तैयार करने के लिए उतने पैसे खर्च किए, जितने अन्य देश करते हैं? पदक तालिका में शीर्षस्थ देशों के खिलाडि़यों के प्रशिक्षण पर पिछले चार वर्षों में खर्च की गई राशि और रियो में जीते गए पदकों की एक बानगी :
    देश    खर्च (करोड़)    स्वर्ण    कुल पदक
    ग्रेट ब्रिटेन    3056* रु.    27    67
    आस्ट्रेलिया    2238* रु.    08    29
    कनाडा    923* रु.    04    22
    न्यूजीलैंड    665* रु.    04    8
    नीदरलैंड    658* रु.    08    9
    भारत    30* रु.    00    2
* लगभग खर्च राशि

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