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पन्द्रह अगस्त,1947 के दिन जब जवाहरलाल नेहरू ने देश के स्वतंत्र होने की घोषणा की, तो एक नई उमंग लोगों में भर गई। वरिष्ठ नाटककार और रंग निर्देशक दयाप्रकाश सिन्हा आजादी मिलने की इस संकल्पना को एक भिन्न आयाम देते हैं। उनके अनुसार, 'उस दिन भारतवर्ष को अंग्रेजी उपनिवेश के अन्तर्गत डोमीनियन स्टेट्स अर्थात् स्वतंत्र उपनिवेश का दर्जा मिला था।' इसके बाद देश की जनता की अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए सरकार ने विभिन्न मंत्रालयों, विभागों, संस्थानों की स्थापना की।
मंचीय कला के क्षेत्र में 1953 में संगीत नाटक अकादमी की स्थापना की गई। राज्यों में भी ऐसी अकादमियां बनीं। बाद में अपनी कलाओं को विदेशों में ले जाने के उद्देश्य से विदेश मंत्रालय में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् की भी स्थापना की गई।
इन सभी का उद्देश्य था भारतवर्ष की संस्कृति का विकास, संरक्षण, प्रचार और प्रसार ताकि सदियों के दमन के बाद आजादी की खुली हवा में सांस ले रहे भारतवासी अपनी परंपराओं से प्रेरणा लेकर एक नई दिशा अपनी सभ्यता व संस्कृति को दे सकें।
परंपरा कोई जड़ भाव नहीं है। रंगचिंतक नंदकिशोर आचार्य के शब्दों में, ''बदलती हुई परिस्थितियों की चुनौती के सम्मुख एक सनातन जीवन दृष्टि के अनेक आयामों और रूपों का ऐसा उद्घाटन जिनसे वर्तमान भी सनातनता का एक आयाम हो जाता है।'' साथ ही उनके अनुसार आधुनिकता का अर्थ ही है किसी परंपरा के सम्मुख इतिहास द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों की पहचान के साथ-साथ उन शक्ति-स्रोतों की भी पहचान, जिनसे कोई समाज इन चुनौतियों का रचनात्मक प्रत्युत्तर देने का सामर्थ्य पाता है और एक परंपरा में होने के कारण ही कोई जनसमूह एक समाज होता है।
लेकिन धीरे-धीरे आजादी के बाद की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक दिशाहीन स्वच्छंदता में बदलती चली गई। कोलकाता के वरिष्ठ रंगकर्मी विमल लाठ के अनुसार, ''साठ व सत्तर के दशकों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता दिखाई देती थी। उसका (कलकत्ता में) हम लोगों ने काफी विरोध किया, लेकिन महाराष्ट्र और दिल्ली में ऐसे नाटक बहुत किए गए, जिनमें अश्लील शब्दों का प्रयोग हुआ। महाराष्ट्र में वे नाटक प्रसिद्ध हुए जिनमें बाप अपनी बेटी को गाली दे रहा है। बाप अपनी बेटी के लिए अश्लील शब्दों से भी खराब शब्द प्रयोग कर रहा है, ऐसा भी दिखाई दिया। जो भी गलीचपना दिखा सकते थे, दिखाया और जब इसके विरोध में आवाज उठी तो आंदोलन किया गया कि सेंसरशिप नहीं होने देंगे, सेंसरशिप से हम क्यों बाध्य होंगे? जबकि फिल्मों पर सेंसरशिप लागू थी। बांगला थिएटर में ऐसी अश्लीलता वाली स्वच्छंदता नहीं रही, क्योंकि वहां बुद्धिवादी लोगों की मान्यता अधिक रही। उत्पल दत्त और शंभु मित्र जैसे दिग्गज रंगकर्मियों के समक्ष कोई अन्य व्यक्ति ऐसी स्वच्छंदता करने की हिम्मत नहीं कर पाया। दिल्ली में पंजाबी नाटकों में द्विअर्थी संवादों वाली स्वच्छंदता भरपूर
दिखाई दी।''
लाठ कहते हैं, ''वैचारिक स्वच्छंदता के नाम पर भारतीय संस्कृति व सभ्यता को लगातार गाली दी गई और अभी भी दी जा रही है। बंगाल में माओवादी सोच को लाने में नाटकों का बहुत योगदान रहा। वहां एक ऐसा नाटककर्मी था कि उसके नाटक की समाप्ति पर लाल झंडे की जय बोली जाती थी। जीवन में जो कुछ होता है उसे ही मंच पर दिखाने के विषय पर हमारी एक अभिनेत्री कहती थीं कि फिर तो कमोड भी मंच पर लेकर आओ ना, वह भी नित्य का कर्म है। यह स्वच्छंदता सभी सरकारी संस्थानों में खर्चे के प्रश्न पर भी हमेशा दिखती रही है।'' केरल में भी कमोबेश यही दिखा
पिछले वर्ष भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने अनेक सरकारी संस्थानों की राशि में काफी कटौती की, जिससे इस क्षेत्र में अपव्यय में बहुत कमी हुई है और कलाकार समुदाय ने इसका स्वागत ही किया।
इन चीजों को दया प्रकाश सिन्हा बिल्कुल अलग नजरिये से देखते हैं। वे कहते हैं, ''जब कोई देश क्रांति के फलस्वरूप स्वतंत्र होता है तो उसके नागरिकों के चिंतन में भी क्रांतिकारी परिवर्तन होते हैं। एक क्रांतिकारी जोश होता है। नेहरू जी ने अपनी सरकार को पिछली सरकार की उत्तराधिकारी सरकार घोषित किया। नतीजा यह हुआ कि जनता के चिंतन में, व्यवहार में जो क्रांतिकारी परिवर्तन आना चाहिए था वह नहीं आ पाया। गुलामी की मानसिकता बनी रही, यहां तक कि अंग्रेजियत कम होने की अपेक्षा बढ़ती चली गई। इसकी पराकाष्ठा तब दिखाई पड़ी जब नेहरू ने भारत में अमरीका के तत्कालीन राजदूत जॉन गैल्जिम से कहा, ''मैं इस देश में शासन करने वाला अंतिम अंग्रेज
प्रधानमंत्री हूं।''
सिन्हा कहते हैं, ''जिस देश में वहां का प्रधानमंत्री अपने को अंग्रेज कहने पर गर्वित महसूस करे, तो उस देश में क्रांतिकारी मानसिकता कैसे उत्पन्न हो सकती है? यही कारण है कि जो क्रांतिकारी परिवर्तन हमारे चिंतन में, हमारे नाटकों में, हमारे साहित्य में, कला में और हमारे व्यवहार में दिखना चाहिए था, वह नहीं दिख रहा है। इसलिए स्वतंत्रता स्वच्छंदता की तरफ बढ़ गई। इसके फलस्वरूप हमारे यहां पश्चिम का अनुकरण करने की प्रवृत्ति हावी हो गई। अंग्रेजी-दां ज्यादातर लोग अपने को अंग्रेज मानने लग गए। रंगमंच के क्षेत्र में हम पश्चिम की नकल करने लग गए। हमारे मन में यह प्रतिष्ठित हो गया कि 'वेस्ट इज बेस्ट'। इस कारण रंगमंच में जो धरती से जुड़े आंदोलन होने चाहिए थे, उन पर हमने कोई ध्यान नहीं दिया। हमारे सभी आंदोलन पश्चिम से उधार लिए हुए हैं। कभी ब्रेख्त की नकल की, तो कभी कामू की। वहां एब्सई थिएटर आया तो हम उसकी नकल करने लग गए और अपने आपको बहुत बड़ा बुद्धिजीवी घोषित कर दिया। नकल की इस प्रवृत्ति से आत्मविश्वासहीनता उत्पन्न हो गई, हीनता का भाव आ गया। मौलिकता की जो शक्ति होती है, वह कहीं दिखाई नहीं पड़ती।''
सिन्हा कहते हैं, ''रंगमंच भाषा से जुड़ा होता है। हमारे देश में अनेक भाषाएं हैं, इसलिए यहां बहु रंगमंचीय परंपराएं हैं। मंचों और गोष्ठियों में भारतीय रंगमंच को खोजने की कोशिश केवल सैद्धान्तिक थी। इसीलिए इन गोष्ठियों का कोई प्रभाव नही पड़ता।''
लेकिन यही प्रभावहीनता पूरे रंगमंच परिदृश्य पर छाई हुई है। इन गोष्ठियों पर प्रतिवर्ष करोड़ों-अरबों रुपए खर्च होते हैं। अन्य कई मदों पर भी काफी रुपए खर्च होते हैं। लेकिन इन सबसे रंगमंच का कितना भला हुआ है, यह सभी जानते हैं। यह तब और अपने विकराल स्वरूप में नजर आता है, जब कितने ही वरिष्ठतम रंगकर्मियों और अन्य कलाकारों को व्हील चेयर या स्ट्रेचर पर अकादमी सम्मान के लिए लाया जाता है। इस सम्मान के लिए उस व्यक्ति के मृत्यु शैय्या के नजदीक पहुंच जाने की प्रतीक्षा की जाती है। ऐसा क्यों है? कारण स्पष्ट है-वैचारिक प्रतिबद्धताओं के चलते किसी एक वैचारिक वर्ग से जुड़े लोगों के लिए ही सभी पुरस्कार, पद, अनुदान इत्यादि आरक्षित रहते हैं।
वर्तमान सरकार द्वारा कलाओं, फिल्मों आदि के क्षेत्र में कुछ नियुक्तियां करने के प्रश्न पर वरिष्ठ रंगकर्मी व रंगमंच के श्रेष्ठ डिजाइनर बंसी कौल चुटकी लेते हैं, ''कुछ जगहों को छोड़ दें तो यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि आज भी रंगमंच पर वही लोग (वामपंथी) हुकूमत कर रहे हैं, जिनके संबंध लंबे समय तक राज करने वाली राजनीतिक पार्टी (कांग्रेस) से रहे हैं। अब पुराने लोगों (वामपंथियों) को इस बात का बुरा नहीं मानना चाहिए कि अब वहां का स्वरूप नए लोगों के हाथ आ रहा है। अभी हमारा लोकतंत्र इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि बहुत उदार होकर हम तय करें कि भई ये, लोग भी ठीक हैं, इनको हर जगह रखें। इन संस्थानों में पिछले पचास-साठ वर्ष में कई बार बहुत अच्छे लोग भी आए हैं, वरना एक विशिष्ट विचारधारा के ही लोग आए हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इन सारे संघर्षों के बीच में अपना काम करते रहना बहुत जरूरी है, जिससे आम समाज को कुछ दे सकें जो सबसे महत्वपूर्ण है।''
स्वच्छंदता के संदर्भ में फिल्मों से उदाहरण लेकर कौल कहते हैं, ''सिनेमा वाले हर चीज को प्रासांगिक कह कर बेचते हैं, हालांकि प्रासांगिकता तो केवल इस बात की होती है कि फिल्म में लगे हुए पैसे वापस आने चाहिए। बीसवीं सदी का तो कमाल ही यही है कि आप किसी भी नकारात्मक चीज को दिखाकर चर्चा में आ सकते हैं। फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों में समाज की बुराइयां दिखाते रहे हैं, यह उनका हक है और सामाजिक दायित्व भी। लेकिन हम उनसे पूछना चाहते हैं कि जिस बुराई को आप दिखा रहे हैं, उसको समाप्त करने के लिए आप उस फिल्म की कमाई में से कितना पैसा खर्च करते हैं?''
बंसी कहते हैं, ''किसी संस्थान में अपने लोगों की नियुक्ति करने और अनुदान देने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है रंगमंच के क्षेत्र में एक विचारधारा का अप्राकृतिक वर्चस्व। ये लोग अपनी विचारधारा के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न उठाते हैं, परन्तु यदि 'मी नाथूराम गोड्से बोल्तोय' जैसे नाटकों पर महाराष्ट्र में आठ वर्ष तक प्रतिबंध रहता है, और उसके बाद तेरह प्रस्तुतियां हो जाने के बाद इसे कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के विरोध करने पर इसे फिर प्रतिबंधित कर दिया जाता है, तब ये बुद्धिजीवी वैचारिक स्वतंत्रता की बात नहीं करते। केवल प्रतिबंध ही नहीं, कलाकारों को डराने की कोशिश यहां तक की गई कि मुम्बई जैसे नाटक-प्रेमी शहर में कलाकारों को ले जा रही बस को ही फूंक दिया गया। चण्डीगढ़ की सुप्रसिद्ध रंग-निर्देशिका नीलम मानसिंह चौधरी ने इस नाटक पर लगे प्रतिबंध के विरुद्ध उठी आवाज को हल्की करार देते हुए कहा कि कलाकार अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के जरिए विरोध करते हैं। स्वच्छंदता और स्वतंत्रता में स्वीकार्यता, अस्वीकार्यता के बीच एक बहुत अस्पष्ट विभाजन रेखा है। कला में अभिव्यक्त करने की एक जगह होती है। अपनी समझ और अपनी संवेदनाओं के अनुसार एक कलाकार का अपना आदर्श होता है। क्या कहना है, क्या नहीं (किसी और के लिए) कलाकार इसका जवाब नहीं दे सकता।'' विरोध की संस्कृति पर नीलम कहती हैं, ''जब मुझे महसूस होता है कि मेरे चारों ओर एक नकारात्मक ऊर्जा बह रही है, तो मैं मौन में खो जाती हूं, अपने काम के जरिए कुछ करने की कोशिश करती हूं, न कि डंडा-झंडा लेकर मार्च करूं, विरोध करूं। चण्डीगढ़ में पिछले साल एक नाटक पर प्रतिबंध लगा था, हस्ताक्षर अभियान वगैरह चले, लेकिन इन सबका कोई असर होता दिखता नहीं है।''
सवाल उठता है कि क्यों इन सब चीजों का कोई असर नहीं होता? सुविधाजनक सेकुलरवाद जैसी चालों से समाज को भ्रमित करने की एक सीमा होती है। स्वच्छंदता और अराजकता से परे हट कर रचनात्मक काम करने से ही रंगमंच का असली उद्देश्य प्राप्त किया जा सकता है।
-अनिल गोयल
(लेखक वरिष्ठ रंग समीक्षक हैं)
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