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स्वतंत्रता के बाद भारत की सम-सामयिक कलाओं में एक अलग तरह का बदलाव हुआ है। भारतीय सम-सामयिक कला परंपराओं के अनुसार चलती थी, स्वतंत्रता के बाद वे सारी परंपराएं विखंडित हो गईं और कला में बदलाव के नाम पर एक क्रांति की बात कही गई। मुंबई के छह कलाकारों ने एक प्रगतिशील कलाकार समूह बनाया। इस समूह ने भारतीय सम-सामयिक कलाओं का विश्लेषण पूरी तरह से आयातित कला के मापदंड के अनुसार करना शुरू किया। इस कारण भारतीय कला के मूल तत्व समाप्त होने लगे और आयातित मापदंड हम पर हावी हो गए। इन कलाओं में एक नयापन था जिसने भारतीय कलाकारों को अपनी ओर आकर्षित किया। कला आंदोलन के नाम पर इसने सबको चमत्कृत कर दिया।
स्वतंत्रता के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारतीय सम-सामयिक कलाओं में एक खेल शुरू हुआ। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर समाज, राजनीति धार्मिक एवं अन्य क्षेत्रों में नकारात्मक छवियों को परोसा जाने लगा। ये कलाकृतियां जादू की तरह आंदोलित तो करती थी परंतु मन में नहीं उतरती थीं। इसका कारण था यह कि भारतीय कलाओं के मापदंड इनमें दिखाई नहीं पड़ते थे। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक विचारधारा की देन थी। इस विचारधारा की छाप वर्तमान साहित्य, नाटक, कला इत्यादि सब में दिखाई पड़ती है। धीरे-धीरे भारतीय सम-सामयिक कला में परिवर्तन आने लगा। सामाजिक चेतना को जागृत करने के लिए कला का उपयोग होने लगा जो स्वांत: सुखाय होती थी। इसमें भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी परंतु भारत की आजादी के बाद उसमें मनमाना प्रयोग होने लगा। राष्ट्रीय प्रतीकों का गलत इस्तेमाल किया जाने लगा। राष्ट्रीय ध्वज, अशोक स्तंभ, सारनाथ का प्रतीक ऐसे प्रतीकों का उपयोग नकारात्मक भाव के साथ दर्ज होने लगा। कुछ समय पहले एक कलाकृति में सारनाथ के प्रतीक चिन्ह, शेर के ऊपर एक गिद्ध बिठा दिया गया था।
पश्चिम के प्रभाव के कारण चित्रों में परिधानरहित आकृतियां अधिक दिखाई देने लगीं। इन कलाप्रेमियों ने इसकी अलग तरह से व्याख्या भी की परंतु भारत में परिधानरहित आकृतियों का आदर सदा से हुआ है। हमारे खजुराहो, कोर्णाक, सरीखे प्रमुख स्थलों में परिधानरहित आकृतियां हैं, लेकिन ये अश्लील नहीं हैं। कला में अश्लीलता और भोंडेपन का विरोध है। कला में परिधानरहित आकृतियां सदैव से प्रेरक रही हैं। भारतीय कला चिंतन का मूल तत्व यह है कि आकृतियों को मूर्त्ति या चित्र कला के माध्यम से ऐसे प्रस्तुत करें कि उनसे एक आध्यात्मिक प्रभाव पैदा हो। भारतीय कला का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह अध्यात्म के निकट रहती है। पर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र विरोधी तत्वों ने स्वच्छंदता या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कला का इस्तेमाल अपने ढंग से करना प्रारंभ किया।
हमारे यहां सम-सामयिक कलाओं में आकृतिमूलक आकृतियों का और निराकार (जिसमें यथावत् आकृति नहीं दिखाई देती, आकृति निरपेक्ष) दोनों को सम्मान प्राप्त है। श्रीनाथ जी का विग्रह कला का सवार्ेत्कृष्ट उदाहरण है। यह यथार्थ के करीब है परंतु यथार्थ नहीं है। जगन्नाथ जी की प्रतिमा समसामयिक कला का सवार्ेत्तम उदाहरण है। पहले कला पत्थरों में बनती थी। हमारे कलाकारों ने माध्यम बदलकर इस कला को लकड़ी में बनाया। हमने उस लकड़ी में रंग लगाया। आकृतियां ज्यामितीय स्वरूप में थीं। गोल आंख बनाई और लाल हाथ। लेकिन वह हमारे लिए आराध्य हो गईं, क्योंकि वह हमारी आध्यात्मिकता से जुड़ गईं। नटराज जैसी अद्भुत प्रतिमा आजतक नहीं बनी। विश्व के महानतम मूर्त्तिकार रौंदा ने सैकड़ों मूर्त्तियां बनाईं। लकड़ी, पत्थर आदि कई चीजों की उसने मूर्त्तियां बनाईं। अपने जीवन के अंतिम समय में वह जोर-जोर से हंसने और रोने लगा। जब लोगों ने कौतूहलवश पूछा तो उसने बताया कि वह हंस इसलिए रहा है कि उसने सैंकड़ों मूर्त्तियां बनाइंर्, जिसके कारण उसे काफी यश, प्रतिष्ठा और धन प्राप्त हुआ। लोगों ने उसे महान मूर्त्तिकार भी कहा, परंतु उसके रोने का कारण यह है कि उसने आज-तक नटराज जैसी आकृति नहीं बनाई। नटराज की मूर्त्ति में कोई हाड़-मांस नहीं है। इसमें कोई मानवीय 'एनाटॉमी' नहीं है। इसमें शरीर रचना के कोई तत्व नहीं मिलते। न खाल है, न हड्डी है। फिर भी इसमें एक अजीब थिरकन है, एक गति है और एक लय है। यही भारतीय कला की विशेषता थी। भारतीय कला को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अचानक एक झटका लगा। यह एक नये रूप में सामने आई। इसमें यूरोपीय चिंतन का ज्यादा प्रभाव था। भारत में कला के जो प्रमुख महाविद्यालय थे, उनका पाठ्यक्रम यूरोपीय कला शिक्षा पद्धति पर आधारित था। बुबंई के सर जे.जे.आर्ट कॉलेज या कलकत्ता ऑर्ट कॉलेज की कला शिक्षा पद्धति कभी पूरी तरह से यूरोपीय कला शिक्षा पद्धति थी। यह फोटोग्राफी के सिद्धांतों के आधार पर चित्रांकन करती थी। भारतीय कला की आकृतियां स्वयं प्रकाशित थीं। अजंता के चित्रों को गौर से देखने पर लगता है कि उनके अंदर से प्रकाश निकल रहा है। जो रेखाओं और चित्रों में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। यह भारतीय कला की एक प्रमुख विशेषता है। यूरोपीय कला में प्रकाश का स्रोत यथावत होता है, बाहर से होता है। भारतीय कला हमेशा आदर्शवादी होती है। यूरोपीय कला यथार्थवादी है। यह पूरा खेल यथार्थवाद और आदर्शवाद का है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यथावत हो गई। कला में नये-नये प्रयोग हुए। सभी प्रयोग आदरणीय हैं परंतु जिन कलाकृत्तियों में स्वतंत्रता के नाम पर दुरुपयोग हुआ वह उसके को ठेस पहुंचाता है। उसके मापदंडों को तोड़ता है। भारतीय स्वतंत्रता के लगभग 70 वर्ष होने पर यह प्रश्न विचारणीय है कि समसामयिक कला में भारतीय कला का मूल चिंतन कितना दिखाई पड़ता है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हम स्वतंत्र होने के बाद भी वैचारिक रूप से कितने स्वतंत्र अथवा कितने परतंत्र हैं?
भारत के विकासपथ पर बढ़ते कदमों से हम सब आशावान हैं। आज आवश्यकता है कि भारतीय कला का जो मूल चिंतन है उस परंपरा की खोज की जाय। उस पर चिंतन-मनन किया जाए और वह यथार्थवादी न होकर आदर्शवादी हो जिसमें भारतीय कला का आदर्श सामने हो। आज वैश्वीकरण के दौर में भी जापान या चीन की कलाकृति देखकर तुरंत कहा जा सकता है कि यह जापान अथवा चीन की कलाकृति है परंतु भारतीय कलाकृति को देखकर यह बताना मुश्किल है कि यह यूरोप की कलाकृति है या भारत की? हमारी कलाकृतियों में भारतीय कला चिंतन के मूल तत्व दिखाई नहीं पड़ते। भारतीय कला चिंतन के मूल तत्वों को ढूंढकर उसके प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है। आज समय की मांग है कि भारतीय कलाकार भारतीय कला के मूल चिंतन के आधार पर अपनी कलाकृतियों का निर्माण करें।
– श्याम शर्मा
(लेखक नेशनल गैलरी ऑफ गॉर्डन आर्ट (दिल्ली) की सलाहकार समिति के अध्यक्ष हैं)
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