आवरण कथा/पत्रकारिता - संवाद का स्वराज
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आवरण कथा/पत्रकारिता – संवाद का स्वराज

by
Aug 8, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Aug 2016 13:29:59

भारत को स्वतंत्रता मिली 15 अगस्त, 1947 के दिन और लगभग ढाई वर्ष का समय लगा स्वतंत्र भारत की व्यवस्थाओं को चलाने के लिए हमारे संविधान को बनाने में। संविधान का मुख्य उद्देश्य न केवल हर नागरिक को  समान स्वतंत्रता का अधिकार एवं दायित्व देने का होता है, बल्कि संविधान इस बात की भी व्यवस्था करता है कि स्वतंत्रता स्वछन्दता न बने। स्वतंत्रता में जहां एक ओर अधिकारों की अनुभूति होती है, तो दूसरी ओर दायित्व बोध भी हर नागरिक के लिए अनिवार्य होता है। जब दायित्व बोध समाज की सोच और व्यवहार में अनुपस्थित हो जाता है, तो नागरिक अपने को स्वच्छंद अनुभव करते हैं। इसलिए संविधान में नागरिक अधिकारों के माध्यम से स्वतंत्रता दी गई है, परन्तु मानवीय संवेदनाओं एवं सामाजिक पक्ष को देखते हुए स्वछन्दता पर अंकुश लगाने का भी कार्य
होता है।
हमारे संविधान के निर्माताओं में लगभग सभी प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और अधिवक्ता थे, परन्तु उन सबमें एक और अन्य विशेषता थी। संविधान सभा के अधिकतर सदस्यों ने स्वतंत्रता संग्राम उपयोग के दौरान जनमानस तक पहुंचने और उसको आन्दोलित करने के लिए पत्रकारिता का प्रयोग किया था। डॉ़ भीमराव आंबेडकर, डॉ़ राजेन्द्र प्रसाद और डॉ़ श्यामाप्रसाद मुखर्जी इत्यादि सभी की स्वतंत्रता के युद्घ में पत्रकार की भूमिका कम या अधिक रही थी। इन सब महापुरुषों को पत्रकारिता का प्रत्यक्ष अनुभव था। पत्रकारिता की शक्ति और उसके गुण-दोषों से वे भलीभांति परिचित थे। फिर भी भारत के संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता का अलग से विधान नहीं किया गया।
संविधान सभा के 1 दिसम्बर, 1948 को हुए विमर्श में दामोदर स्वरूप सेठ ने तत्कालीन अनुच्छेद 13 में प्रेस की स्वतंत्रता को सम्मिलित करने का प्रस्ताव रखा था। उन्होंने कहा था कि ''वर्तमान युग प्रेस का युग है और प्रेस दिन-पर-दिन अधिक प्रभावशाली होता जा रहा है इसलिए यह आवश्यक एवं उचित लगता है कि प्रेस की स्वतंत्रता को अलग से एवं विस्तृत रूप से संविधान में सम्मिलित किया जाये।'' उस समय उनके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया गया था। इसी प्रकार 29 अप्रैल, 1947 को मौलिक अधिकारों पर बनाई गई परामर्श समिति के प्रस्ताव पर सोमनाथ लहरी ने भी प्रेस की स्वतंत्रता को अलग से सम्मिलित करने का प्रस्ताव रखा था। उन्होंने कहा था कि ''प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना उचित रहेगा एवं प्रेस पर प्रतिबंध नहीं लगेगा एवं प्रेस को आर्थिक अनुदान भी नहीं दिया जाएगा, परन्तु परामर्श समिति के अध्यक्ष के.एम. मुंशी ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया था।
हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक महत्वपूर्ण अधिकार के रूप में दी गई और इसी स्वतंत्रता का विस्तार मीडिया की स्वतंत्रता के रूप में उभरकर आता है। माननीय उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय ने बार-बार इस बात पर बल दिया है कि मीडिया की स्वतंत्रता भारत के हर नागरिक को प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ही निर्देशित है। इसके विपरीत अमेरिका के संविधान में दूसरा प्रस्तावित संशोधन और पहला वास्तविक संशोधन प्रेस की स्वतंत्रता का है। इस दृष्टि से भारत का संविधान अमेरिका के संविधान से कहीं अधिक प्रजातांत्रिक एवं आम नागरिक के हित में माना जाता है।
आज के संदर्भ में मीडिया ने स्वतंत्रता एवं स्वछन्दता में विभाजन रेखा को मिटा-सा दिया है। इसलिए इस बात का संदर्भ लेना उचित लगता है कि संविधान निर्माताओं ने मीडिया की स्वतंत्रता पर अलग से प्रावधान क्यों नहीं किया? अनेकों वर्षों का पत्रकारिता का अनुभव होने के बावजूद डॉ़ भीमराव आंबेडकर ने प्रेस की आजादी को संविधान में नहीं डाला। शायद वे इस बात से आशंकित थे कि ऐसी परिस्थितियां बन सकती हैं जब मीडिया समाज के प्रति अपने दायित्व को भूलकर, सत्य पर अपनी आस्था को तो़ड़कर और किसी वर्ग विशेष या किसी विचार विशेष के पक्ष या विरोध में स्वछन्द अभिव्यक्ति करना प्रारंभ कर दे। स्वतंत्रता से पूर्व कुछ मुख्यधारा के विशेषकर अंग्रेजी भाषा के समाचारपत्र और पत्रिकाओं का भी संविधान निर्माताओं को अनुभव था कि वे किस प्रकार भारत की जनता के मन के विपरीत अंग्रेजों के राज्य को भारत में बनाए रखने का समर्थन करते थे। कम से कम 1942 तक तो मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा भारत की स्वतंत्रता के विरोध के पक्ष को उजागर करता था। हालांकि इसको स्वछन्दता कहना या न कहना विमर्श का विषय हो सकता है, परन्तु आम-जन की अभिव्यक्ति को प्रकट और पोषित न करना तो मीडिया की भूमिका नहीं हो सकती। आजादी से पहले पत्रकारिता की स्वतंत्रता का प्रत्यक्ष उदाहरण पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने दिया था। वे 'कर्मभूमि' के सम्पादक थे और घोषित रूप से उनके समाचारपत्र की नीति थी कि वीर क्रान्तिकारियों के विरोध में यदि महात्मा गांधी भी कुछ कहेंगे तो उसे उनके पत्र में स्थान नहीं मिलेगा। सभी पक्षों को मुखरित करने का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है। यही तो संतुलित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।
जब हम स्वतंत्र भारत के बाद और आपातकाल की स्थिति की घोषणा तक, उस समय के समाचारपत्रों की विषय-वस्तु पर ध्यान देते हैं तो स्पष्ट रूप से सामने आता है कि राष्ट्र के पुनरुत्थान में लगभग पूरी- की-पूरी भारतीय पत्रकारिता एकजुट हो गई थी, परन्तु मर्यादाओं में रहकर। बहुत कम समाचारपत्र और पत्रिकाएं किसी एक विचारधारा को खुलेआम पोषित करती थीं। इस काल की विशेषता यह थी कि समाचारों और विचारों में विविधता और अनेकता बहुत बड़े पैमाने पर देखने को मिलती है। पत्रकार निष्पक्ष रहते हुए सभी पक्षों को उजागर करने को अपना धर्म मानते थे। विषयों और घटनाओं के गुण और दोषों को पत्रकार पाठकों के सम्मुख निडर होकर रखते थे। उस समय के समाचारपत्रों में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं जब मुख्य पृष्ठ पर जिस विषय पर सभी पक्षों को उजागर करते हुए, समाचार छपा और उसके सम्पादकीय पृष्ठ पर लेख में किसी एक पक्ष को सही बताते हुए प्रस्तुत किया गया और बगल में प्रकाशित सम्पादकीय लेख में बिलकुल विपरीत विचार प्रकट किए गए थे। यह विचारों और समाचारों की यह विविधता ही उस समय की भारतीय पत्रकारिता की विशेषता थी जिससे प्रभावित होकर यूरोप के सम्पादकों के एक दल ने सर्वसम्मति से कहा कि भारत में प्रेस की स्वतंत्रता विश्व के सभी देशों से अधिक है।
आपातकाल से पूर्व की जो स्थितियां बनीं उसमें भी मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही। राजनीतिकों एवं नौकरशाही के भ्रष्टाचार एवं नकारापन को उस समय पत्रकारिता ने खूब उजागर किया और जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए माहौल बनाने में सहयोगी बनी। परन्तु तत्कालीन प्रशासन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पची नहीं और उसको लगा कि यह उच्छृंखलता है और उन्होंने आपातकाल घोषित करते ही मीडिया के गले को घोंट दिया। यह भारतीय पत्रकारिता के लिए बड़े परिवर्तन का समय सिद्घ हुआ। मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा प्रशासन के सामने झुक गया जिसे लालकृष्ण आडवाणी ने उल्लिखित किया कि जब मीडिया से सिर झुकाने की अपेक्षा थी तो उसने रेंगना प्रारंभ कर दिया। यह रेंगने का जो घाव भारतीय पत्रकारिता को 18 महीने में लगा वह नासूर बनकर आज भी पूर्ण भारतीय समाचार जगत में व्याधि का कारण बना हुआ है। प्रेस की स्वतंत्रता को इस प्रकार गिरवी रखा गया कि मीडिया के एक हिस्से को स्वछन्दता का लाइसेंस मिल गया। आकाशवाणी का हर बुलेटिन तत्कालीन प्रधानमंत्री के नाम से शुरू हो और उन्हीं के नाम के साथ समाप्त हो, ऐसे आदेश दिये गये और उनका पालन भी हुआ। उभरता हुआ टेलीविजन सत्ता के एक प़क्ष का भोंपू बन गया। मीडिया की स्वतंत्रता का दुरुपयोग भी तो स्वच्छंदता ही है क्योंकि यह दायित्वविहीन है।
 समाचार जगत में एक बड़ा परिवर्तन टेलीविजन चैनल्स के धीरे-धीरे प्रवेश करने से आया। केन्द्रीय सरकार की इच्छाओं और नीतियों के विरोधी होते हुए भी टेलीविजन चैनल्स ने भारतीय समाज में स्थान बनाना प्रारंभ कर दिया, क्यांेकि भारतभूमि से अपलिंकिंग की अनुमति से नहीं मिलने पर उसे पड़ोसी देश की भूमि से उपग्रह तक भेज दिया जाता था और सीधे उपग्रह से प्रसारित करने के लिए कोई रोक नहीं थी। स्पष्ट नीतियॉं न होने के कारण और भविष्य की दृष्टि के अनुपस्थित होने से भारतीय समाज में समाचार चैनल्स को स्वतंत्र एवं स्वच्छंद रूप से विकसित होने का माहौल मिला। आज भी लगभग वही विधान समाचार प्रसारण के लिए लागू है जो मुद्रित समाचारपत्र या पत्रिका के लिए है। जबकि मूल रूप से दोनों में मौलिक एकरूपता नहीं है। आज भी भारतीय प्रेस परिषद् दंतविहीन शेर के रूप में कार्यरत है और मीडिया काउंसिल बनाने का कोई प्रस्ताव नहीं है।
पिछली सदी के आखिरी दशक में भारतीय मीडिया संसार में मूल्यविहीनता का दौर प्रारंभ हुआ। पत्रकारिता की दृष्टि में परिवर्तन हुए, जिसमें समाज को जागृत करना एवं जोड़कर रखने का मिशन भुला दिया गया और पत्रकारिता को व्यावसायिक रूप में उभारा गया। यदि समाचारों का संसार व्यावसायिक ही रह जाता तो भी कोई खास संकट नहीं था, परन्तु अनजाने में बड़ी दुर्घटना यह हुई कि मीडिया व्यापार बन गया। केवल समाचार का स्थान और समय की बोली लगने लगी, अपितु समाचार भी बिकने लायक हो, तभी वह बुलेटिन या समाचारपत्र में स्थान पायेगा, यह कार्य का मूलमंत्र बन गया। मीडिया उद्योग बन गया एवं इस उद्योग में पूंजी निवेश अत्यधिक लाभकारी हो गया। परिणामस्वरूप मेरा और आपका संवाद सामाजिक नहीं रहा, वह तो व्यापार की वस्तु बन गया। बहुचर्चित पेड न्यूज तो आइसबर्ग का केवल टिप है, मीडिया को अंदर से देखें तो भ्रष्टाचार, अनाचार एवं दुराचार सब दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
दायित्वविहीन स्वतंत्रता को स्वच्छंदता मानते हुए किसी हद तक मानव की मूल प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार हो सकती है, परन्तु यह स्वच्छंदता से उच्छृंखलता का कदम बहुत ही छोटा है, लेकिन अत्यंत घातक है। किसी वन में भ्रमण करना हम सबका अधिकार है, सलमान खान का भी है। वन अति सुन्दर लगने पर बनी-बनाई पगडंडियों पर न चलकर स्वच्छंद विचरण भी किया जा सकता है। जीव-जंतुओं के साथ मेल-मिलाप भी होना ही चाहिए परन्तु उच्छृंखलता तब सामने आती है जब पशुओं का शिकार करके अपना रौेब जमाने का प्रयास होता है। नियमों के अनुसार यह अपराध है परन्तु अपराध करने के पश्चात उसे स्वीकार न करना और पश्चाताप न होना तो पाप है। मीडिया के क्षेत्र में भी कुछ हद तक स्वतंत्र वैचारिक स्वच्छंदता हो सकती है परन्तु नीरा राडिया टेप्स में हुए खुलासे तो सरासर उच्छृंखलता हैं और अपराध हैं और पाप भी हैं। मीडिया में कार्यरत सभी जानते हैं कि राडिया टेप्स में जो खुलासे हुए हैं वे आज के मीडिया के प्रतिदिन के कार्यकलाप हैं।
मीडिया की इस विकृत व्यवस्था ने भारतीय समाज की सोच और व्यवहार को भी प्रभावित करना प्रारंभ कर दिया है। सतही जानकारी ही जागृत और जिम्मेदार होने का मापदंड बन गई है और बौद्घिक विमर्श लगभग शून्य हो गया है। जिस समाज का बौद्घिक विकास रुक गया हो विपरीत दिशा में चलना प्रारंभ हो गया हो उसका भविष्य तो अंधकारमय ही होता है। परन्तु यह बात भी सत्य है कि अनेकों छोटे-बड़े प्रयास वैकल्पिक मीडिया के रूप में भी पूरे समाज में बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। सेवा के लगभग सभी संगठन अपनी पत्रिकाओं को बड़ी संख्या में बांटते हैं।
व्यावसायिक संगठनों की अपनी-अपनी पत्रिकाएं हैं। कुछ टेलीविजन चैनल्स अपने मनोरंजन के कार्यक्रमों में स्वच्छ मूल्यों का प्रतिपादन करने का संकल्प लिए हुए हैं। लगभग सभी सम्प्रदायों के अपने-अपने मुखपत्र हैं, जो व्यापार पर आधारित नहीं हैं। आवश्यकता है तो मुख्यधारा के मीडिया को भी समदर्शी होना पड़ेगा। मीडिया व्यापारी और उद्योग के घरानांंे से मुक्त हो। एक से ज्यादा मीडिया के स्वामित्व पर प्रतिबंध हो। मीडिया काउंसिल जैसी नई संस्थाओं के माध्यम से यह सुनिश्चित करना होगा कि मीडिया समाज की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं का पोषक बने, न कि देशद्रोही और समाज घातक शक्तियों
का साधन।
मूलत: प्रेस की स्वतंत्रता की अवधारणा में भी कहीं दोष है क्योंकि इसमें किसी कर्तव्य की बात नहीं आती। भारतीय मीमांसा में कहीं भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात नहीं है परन्तु बार-बार संवाद के स्वराज की बात तो आती ही है। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में स्वराज जिस तरह से उत्थान का मार्ग खोजता है, उसी प्रकार संवाद के स्वराज को स्थापित करके भी भारतीय समाज को नवोत्थान की राह पर चलने सकने की योजना अनिवार्य है।     -प्रो़  बृज किशोर कुठियाला
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय जनसंचार एवं
पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं) 

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