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''कांग्रेस ने राजनीतिक स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली है पर उसे अभी आर्थिक, सामाजिक, और नैतिक स्वतंत्रता हासिल करनी है। राजनीति की अपेक्षा इन स्वतंत्रताओं को हासिल करना कठिन है, क्योकि ये रचनात्मक हैं तथा उतना जोश पैदा करने वाली और देखने में उतनी शानदार नहीं हैं। सर्वसमावेशी रचनात्मक कार्य के लिए जनता के प्रत्येक सदस्य की ऊर्जा का योग अपेक्षित है। कांग्रेस ने अपनी स्वतंत्रता के प्रारम्भिक और आवश्यक पहलू को हासिल कर लिया है, लेकिन कठिन कार्य अब आयेगा। लोकतंत्र की कठिन चढ़ाई के दौरान इसने अपरिहार्य रूप से ऐसे बेकार गढ़ खड़े कर दिए हैं जिनसे भ्रष्टाचार पनपता है और ऐसी संस्थाएं खड़ी हो गयी हैं जो केवल कहने के लिए ही लोकप्रिय और लोकतांत्रिक हैं। इस अपकारक और बेतुकी बढ़वार से कैसे मुक्त हुआ जाए?'' हरिजन के एक फरवरी 1948 के अंक मे प्रकाशित महात्मा गांधी का यह संदेश स्पष्ट दिशा-निर्देश करता है कि देश की स्वतंत्रता का लक्ष्य प्राप्त कर लेने के बाद अब भविष्य का लक्ष्य और आगे की राह क्या होनी चाहिए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के 70वें वर्ष की पूर्व बेला इस बात का आकलन करने का सर्वाधिक उपयुक्त समय है कि हम गांधी जी के सपने के अनुसार कितना आगे बढ़े हैं और आज स्थिति क्या है? स्वतंत्रता के बाद जहां हमें आर्थिक, सामाजिक और नैतिक स्वतंत्रता हासिल करने के प्रयास करने की जरूरत थी वहीं इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनी राजनीतिक आजादी को अक्षुण्ण बनाये रखना हमारी पहली जिम्मेदारी थी। परन्तु 22 अक्तूबर 1947 को कश्मीर में पाकिस्तान के आक्रमण और 1962 में चीन के हमले ने जो घाव हमें दिये, भारत उनका दंश आज तक भुगत रहा है। चीन के हमले ने हमें अपनी सुरक्षा व्यवस्था पर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया और उसके बाद 1965, 1971 और 1999 के कारगिल युद्ध में भारतीय सेना ने अपने पराक्रम से शत्रु के दांत खट्टे कर दिये। इन पराजयों से बौखलाये पाकिस्तान की नीति अब हमें छद्म युद्ध में उलझाये रखना है। अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अब हमारी प्राथमिकता पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को समाप्त करना है।
आर्थिक स्वतंत्रता
महात्मा गांधी ने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करने पर जोर दिया था क्योंकि उसके बिना जन सामान्य की उन अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया जा सकता जो स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान संजोई गयी थीं। स्वयं गांधी जी ने 'यंग इंडिया' में 18 जनवरी 1948 को प्रकाशित अपने एक लेख में यह अपेक्षा की थी- ''भारत में न कोई कंगाल होगा न भिखारी, न ऊंच न नीच, न लखपति न अधभूखा कर्मचारी, न मादक पेय न नशीली दवाइयां। यहां जो सम्मान पुरुषों को प्राप्त होगा वही स्त्रियों को भी दिया जायेगा, स्त्री-पुरुषों की पवित्रता और शुद्धता की सावधानीपूर्वक रक्षा की जायेगी, अपनी पत्नी के अतिरिक्त हर स्त्री को, सभी मतावलंबियों की उसकी आयु के अनुसार माता, बहन या बेटी मानकर व्यवहार करेंगे। यहां छुआछूत का नामोनिशान नहीं होगा और सभी मत-पंथों को समान आदर की दृष्टि से देखा जाएगा। यहां सभी लोग रोटी कमाने के लिए प्रसन्नतापूूर्वक और स्वेच्छा से श्रम करने में गौरव का अनुभव करेंगे।'' गांधी जी की इन अपेक्षाओं पर हम कितना खरे उतरे और कितने नहीं, यह गहरे आत्मचिंतन का विषय है।
महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही आर्थिक आजादी के लिए भी संघर्ष प्रारम्भ कर दिया था। उनके इस संघर्ष का मुख्य लक्ष्य था स्वावलम्बन, स्वदेशी और आत्मनिर्भरता प्राप्त करना। उन्होंने गांवों में उपलब्ध सीमित साधनों के आधार पर कार्य करना प्रारम्भ किया और चरखे को अपना हथियार बनाया। इसका परिणाम यह हुआ कि गांव-गांव में स्वाभिमान की चेतना जाग्रत हुई और सामान्य आदमी भी स्वयं को समर्थ और सक्षम मानने लगा। यही नहीं, चरखे और स्वदेशी ने ब्रिटेन की बड़ी-बड़ी कपड़ा मिलों को भी सकते में डाल दिया।
आवश्यकता इस बात की थी कि राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद आर्थिक आजादी के इस संघर्ष को आगे बढ़ाया जाता, परन्तु खेद की बात है कि पंचवर्षीय योजनाओं के नाम पर जो प्रयोग किये गए उनका लक्ष्य केवल पश्चिम की तर्ज पर समृद्धि प्राप्त करना तो रहा परन्तु स्वावलम्बन और स्वदेशी नहीं। जब पहली पंचवर्षीय योजना का स्वरूप देश के सामने आया उसी समय गांधीवादी विचारकों और चिंतकों ने इस योजना का विरोध किया। प्रसिद्ध गांधीवादी किशोरीलाल मशरूवाला ने 25 अक्तूबर 1952 को एक लंबा पत्र योजना आयोग के सदस्य रा़ कृ़ पाटिल को लिखा। इसके बाद दोनों के मध्य लंबा पत्र व्यवहार भी हुआ, परन्तु इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। 1952 से 1970 तक के लगभग 18 वर्ष के कालखंड की उपलब्धियों का आकलन हम 1970 में श्रीमती इंदिरा गाधी के 'गरीबी हटाओ' के नारे के परिप्रेक्ष्य में कर सकते हैं। स्पष्ट है कि यदि इन पंचवर्षीय योजनाओं का जमीन पर कोई असर हुआ होता तो तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गरीबी हटाओ का नारा लगाने की जरूरत ही नहीं थी। इस नारे की आड़ में देश में राष्ट्रीयकरण का दौर चला जिसकी असफलता के गीत, नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रित्व काल में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ़ मनमोहन सिंह ने लिखते हुए निजीकरण की आंधी चला दी। आज हम सब उस आंधी के परिणाम भुगत रहे हैं।
कुछ महीने पूर्व प्रकाशित एऩ एस़ एस़ ओ. के 70वें सर्वे के परिणाम बताते हैं कि देश में सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति और उच्च वर्ग वाले 10 प्रतिशत व्यक्तियों की सम्पत्ति में एक और 50 हजार का अंतर है। यह असमानता दिन प्रतिदिन बढ़ रही है। क्या गरीब और अमीर के बीच की असमानता की खाई को इतना चौड़ा करने के लिए ही स्वतंत्रता का आंदोलन हुआ था? प्रश्न यह है कि जब गांधी जी प्रत्येक व्यक्ति के सम्मान की बात करते थे तो यह असमानता की खाई इतनी ज्यादा क्यों बढ़ी? वास्तविकता यह है कि हमने देश को समृद्ध बनाने के लिए कभी रूस तो कभी अमेरिका का रास्ता अपनाया तो कभी हम चीन के गुण गाने लगे, परन्तु हमने कभी भारत को भारत की तरह बढ़ाने और आगे ले जाने का विचार ही नहीं किया, जबकि गांधी जी भारत को भारत की तरह आगे बढ़ाना चाहते थे। अभी भी अगर हम अपना मार्ग बदल लें तो भारत के लोगों में इतनी सामर्थ्य है कि 15-20 वर्ष में ही देश दुनिया के लिए आदर्श प्रस्तुत कर सकता है।
सामाजिक स्वतंत्रता
गांधी जी ने जिस सामाजिक स्वतंत्रता को प्राप्त करने की आवश्यकता बताई थी उसे प्राप्त करने के लिए बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि रमण, महर्षि अरविन्द, महामना मदनमोहन मालवीय, डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार आदि अनेक महापुरुषों ने प्रयास प्रारम्भ कर दिये थे। स्वतंत्रता आंदोलन में इसका प्रत्यक्ष प्रभाव दिखने भी लगा था। आवश्यकता थी कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के उपरान्त इन प्रयासों को आगे बढ़ाया जाये, परन्तु खेदपूर्वक कहना पड़ता है कि सरकार की कार्यप्रणाली सामाजिक विभेदों को बढ़ाने वाली ही सिद्ध हुई।
क्या यह चिंता की बात नहीं है कि एक ओर तो लोगों को लुभाने के लिए 'जाति तोड़ो और समाज जोड़ो' के नारे लगाये जाते रहे परन्तु वहीं इसके विपरीत हर वह कदम उठाया गया जिससे जाति 'कानून सम्मत' बन गई। इसी तरह जब सवार्ेच्च न्यायालय ने समान कानून के आधार पर शाहबानो मामले में अपना निर्णय दिया तो, लोकसभा में भारी बहुमत प्राप्त तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वोट बैंक के दबाव में आकर सवार्ेच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया। जब सरकारें वोट बैंक के दबाव में निर्णय करती हैं तो उससे सबसे अधिक आहत होती हैं सामाजिक समरसता और सामाजिक स्वतंत्रता। यदि देश को सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त करनी है तो वोट बैंक की राजनीति से मुक्ति पानी होगी और समरस समाज की रचना के लिए सबको प्रेरित करना होगा।
नैतिक स्वतंत्रता
गांधी जी ने नैतिक स्वतंत्रता को इसलिए आवश्यक बताया क्योंकि यदि व्यक्ति और समाज में नैतिकता नहीं होगी तो समाज का जो स्वरूप हमारे सामने होगा वह नितांत स्वच्छंद, स्वेच्छाचारी, भ्रष्ट, केवल अपने अधिकारों के लिए लड़ने-भिड़ने वाला स्वार्थी, लालची और कपटी समाज होगा। क्या ऐसी मनोवृत्तियों वाला समाज या व्यक्ति किसी के लिए आदर्श हो सकता है? क्या ऐसा समाज अपनी स्वतंत्रता की रक्षा कर सकता है? क्या ऐसा समाज कभी आगे बढ़कर दुनिया का नेतृत्व कर सकता है? इन सबका एक ही उत्तर है- नहीं।
गांधी जी को आज पूरा विश्व आदर्श के रूप मे मानता और पूजता है, वे आज भी विश्व मानवता का नेतृत्व करते हैं तो इसका एकमात्र रहस्य है उनके नैतिक आदर्श। वे स्थान-स्थान पर गर्वपूर्वक कहते हैं कि यह आदर्श उन्होंने अपनी सनातन परम्परा और श्रीमद्भगवद् गीता से प्राप्त किये हैं। विनोबा भावे, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी आदि कई गांधीवादी विचारकों ने गीता पर अनूठे भाष्य भी लिखे हैं। कहना न होगा कि वे उपनिषद् औैर गीता स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रेरणा स्रोत रहे हैं। लेकिन खेद की बात यह है कि आज इसी गीता को साम्प्रदायिक करार देकर इसकी सार्वजनिक भर्त्सना की जाती है। यही नहीं, जो लोग नैतिकता की बात भी करते हैं तो उन्हें साम्प्रदायिक, दकियानूसी, पोंगापंथी, पुराणपंथी और न जाने किन-किन शब्दों के व्यंग्य बाणों का शिकार होना पड़ता है। याद करें महाभारत का दृश्य, जहां सत्य मार्ग के अनुगामी पांडवों को पग-पग पर उत्पीड़न और निंदा का शिकार होना पड़ा जबकि असंख्य महारथियों व विद्वानों की उपस्थिति के बावजूद कौरव पक्ष अन्याय और अत्याचार करता रहा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कौरव पक्ष में नैतिकता का अभाव था।
क्या आज अपने देश में वही सब नहीं हो रहा है? भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्र शेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, लाला लाजपतराय, नेताजी सुभाषबोस आदि स्वतंत्रता सेनानियों और महर्षि रमण, स्वामी रामतीर्थ आदि महापुरुषों के नामों को जनमानस की स्मृति से गायब कर देने का षड्यंत्र रचा जा रहा है, शहीद भगत सिंह को पाठ्य पुस्तकों में आतंकवादी करार दिया जा रहा है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति की गवाही पर सरदार भगत सिंह को फांसी दी गयी उसके नाम पर सड़कों और कालोनियों का नामकरण किया गया व उसके पुत्र को पद्म पुरस्कार प्रदान किया गया। इतना ही नहीं सीमा पार बैठे खूंखार आतंकवादी सरगना को 'हाफिज सईदजी' कहा जाता है, आतंकवादी अफजल और मकबूल बट्ट की प्रशंसा के गीत गाये जाते हैं, सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में मारे गये आतंकवादी बुरहान को निदार्ेष बताया जाता है तथा भारत के हजार टुकड़े होने के नापाक मंसूबे पाले जाते हंै और यह सब हो रहा है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर।
इस सब के पीछे हैं कुछ ऐसे एन.जी.ओ़ जो देश तोड़ने के षड्यंत्र मेें लिप्त हैं। ये इतिहास को विकृत करना चाहते हैं, जिससे भारत के लोग अपने परिवेश से कट जायें। कहने के लिए ये 'समाज में जागृति पैदा करना चाहते हैं', कुछ एन.जी.ओ़ महिलाओं और बच्चों के नाम पर दुनियाभर से पैसा इकट्ठा कर अपनी स्वार्थसिद्धि में लिप्त हैं। अभी हाल ही में तीस्ता सीतलवाड़ के एन.जी.ओ. 'सबरंग' से सम्बधित जो जानकारियां उजागर हुईं उनसे पता चलता है कि किस प्रकार विदेशों से प्राप्त अनाप-शनाप धन का इन्होंने अपने घरेलू खचार्ें के लिए दुरुपयोग किया।
धन के इस प्रकार दुरुपयोग को देखते हुए इन्हें 'एन.जी.ओ़' के स्थान पर 'एंज्वाय' कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। इसी प्रकार जाकिर नाइक के एन.जी.ओ़ इस्लामिक रिसर्च फांडेशन द्वारा अपने मजहब का प्रचार करने की आजादी के दुरुपयोग का मामला उजागर हुआ है। यह तो कुछ ही नाम हैं परन्तु ऐसे हजारों संगठन हैं जो जनजागरण का नकाब ओढ़कर देश को तोड़ने के षड्यंत्र में लिप्त हैं। ऐसे संगठनों की हिम्मत तभी बढ़ती है जब समाज में नैतिक बल की कमी हो जाती है।
ऐसा नहीं कि सभी एन.जी.ओ़ नैतिकता विहिन हैं। शोलापुर में महिलाओं के सशक्तीकरण में लगा 'उद्योग वर्धिनी', हैदराबाद का 'वंदेमातरम फांउडेशन', सूरत का 'डॉ़ अम्बेडकर वनवासी कल्याण ट्रस्ट', कर्नाटक का 'अपना देश', उत्तराखंड का 'उत्तरांचल उत्थान परिषद्', 'यूथ फोर सेवा' और उत्तर-पूर्व में सक्रिय 'आरोग्य मित्र' आदि कुछ ऐसे स्वयंसेवी संगठन है जो समाज के लिए समर्पणभाव से कार्य कर रहे हैं। आवश्यकता है ऐसे संगठनों को जानने और उनके खिलाफ कार्रवाई करने की जो देश को तोड़ना चाहते हैं। सरकार ने ऐसे संगठनों पर अंकुश लगाने के लिए नियमों का कड़ाई से पालन करना शुरू किया है।
अब इनके खिलाफ कठोर कार्रवाई करने के साथ ही जनता में इनके कारनामों को उजागर करना भी जरूरी है। स्वतंत्रता की पूर्व बेला पर इतना ही कहना होगा कि देश को समर्थ और स्वावलम्बी बनाने व जन सामान्य के जीवन को मंगलमय बनाने के लिए राजनीतिक आजादी को सुदृढ़ करने के साथ ही आर्थिक, सामाजिक व नैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के प्रयासों को और गति प्रदान करनी होगी।
-डॉ़ रवीन्द्र अग्रवाल
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