उत्तर प्रदेश/भर्ती पर तलवारसपा राज में लटकीं भर्तियां, भरता आक्रोश
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उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनावों में समाजवादी मुलायम के युवा पुत्र अखिलेश ने युवाओं को ऐसे सब्जबाग दिखाए कि उनका वोट सपा को मिला, लेकिन सत्तासीन होने के चार वर्ष बाद आज वही युवा रोजगार के अभाव में उनके विरुद्ध एकजुट
सुनील राय
उत्तर प्रदेश में वर्ष 2012 चुनाव का दौर था और अखिलेश यादव रथ लेकर चुनाव प्रचार करने निकले थे। उनके रथ पर गगनभेदी नारा लगता था-'जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है' अखिलेश ने युवाओं के लिए दिल खोल कर वादे किये। बरसों पुरानी परिपाटी पर चल रही समाजवादी पार्टी के घोषणापत्र में उन्होंने युवाओं का ध्यान रखते हुए बदलाव करवाया। सपा ने यह तय किया कि अब वह अंग्रेजी भाषा का विरोध नहीं करेगी। कंप्यूटर तकनीक को बढ़ावा देगी। शिक्षित बेरोजगार युुवकों को बेरोजगारी भत्ता देगी। हाई स्कूल और इंटर उत्तीर्ण करने वाले छात्रों को लैपटाप देगी। चुनाव सभाओं में अखिलेश के यह घोषणा करते ही कि शिक्षित बेरोजगार युवकों को भत्ता मिलेगा, रोजगार कार्यालयों पर पंजीकरण कराने के लिए इस कदर भीड़ उमड़ी कि प्रदेश के कई जनपदों में उसपर काबू पाने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा। प्रदेश के बेरोजगार युवकों का अखिलेश यादव ने विश्वास जीत लिया था। युवकों को विश्वास हो गया था कि सपा की सरकार आने पर शिक्षित बेरोजगार युवकों को रोजगार मिलेगा। जिसे रोजगार नहीं मिलेगा, उसे भत्ता मिलेगा।
अखिलेश की हर जनसभा में युवा खूब उमड़े और उन्होंने वोट भी दिया, चुनाव बाद सपा को प्रचंड बहुमत मिला और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने। सपा सरकार की कार्य प्रणाली कुछ ऐसी रही कि लगातार रिक्त पद विज्ञापित हुए मगर अलग-अलग पदों की हजारों नियुक्तियों के विवाद अदालती लड़ाई में ऐसे लटके कि आज चार वर्ष बाद भी बेरोजगार युवक नौकरी की बाट जोह रहे हैं।
बसपा के शासन में वर्ष 2011 में दारोगा भर्ती विज्ञापित हुई थी, उसकी नियुक्ति प्रक्रिया चल रही थी, उसमें अभ्यर्थियों के लिए 10 किमी. की दौड़ का नियम तय किया गया था। जैसे ही वर्ष 2012 में सपा की सरकार आयी उसने दारोगा भर्ती के नियमों में परिवर्तन कर दिया। नियमों में परिवर्तन करते हुए नई अधिसूचना जारी की गई थी जिसके मुताबिक पुरुष अभ्यर्थियों के लिए 35 मिनट में 4.8 किमी. और महिला अभ्यर्थियों के लिए 20 मिनट में 2.4 किमी. की दौड़ का मानक तय किया गया था। इससे पहले पुरुष अभ्यर्थियों के लिए 60 मिनट में 10 किमी. और महिला अभ्यर्थियों के लिए 35 मिनट में 4.8 किमी. का मानक तय किया गया था।
प्रदेश सरकार के इस नए नोटिफिकेशन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। याचिका में आरोप लगाया गया कि पुराने नियम के हिसाब से कई अभ्यर्थी दौड़ चुके थे, इस तरीके से भर्ती प्रक्रिया के बीच में बदलाव नहीं किया जा सकता इससे कई अभ्यर्थी प्रभावित होंगे। मामला उच्च न्यायालय में गया और वहां पर नियम में बदलाव के लिए जारी अधिसूचना पर रोक लगा दी गई, अदालत में विचाराधीन होने की वजह से नियुक्तियां लटक गईं। अदालत में सुनवाई चली और सितम्बर 2013 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि दारोगा भर्ती की दौड़ की परीक्षा में किया गया बदलाव गैरकानूनी है।
दारोगा की दौड़ की परीक्षा में एक अभ्यर्थी की दौड़ते समय मौत हो गई थी, इस कारण प्रदेश सरकार ने 10 किमी. दौड़ पर रोक लगा दी थी और दौड़ के नियमों में परिवर्तन कर दिया था। हाल ही में शुरू हुई सिपाही भर्ती में भी प्रदेश सरकार ने लोक-लुभावन व्यवस्था दी, यह मामला भी अदालत में गया और स्थगनादेश पारित हो गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 34,000 कांस्टेबलों की भर्ती चयन प्रक्रिया के परिणाम घोषित करने पर रोक लगा दी। अभी तक यह होता आया था कि सिपाही की भर्ती की परीक्षा में लिखित और शारीरिक परीक्षा कराई जाती थी, इस बार प्रदेश सरकार ने केवल शारीरिक परीक्षा के आधार पर पुलिस में सिपाही भर्ती करने का फैसला किया और इस सिपाही भर्ती में भी नियमों में परिवर्तन पद विज्ञापित होने के बाद किया गया।
वर्ष 2015 के दिसम्बर माह में उत्तरप्रदेश पुलिस में महिला और पुरुष सिपाही के लिए 34,000 पद विज्ञापित किए गए। इस विज्ञापन के अनुसार चयन प्रक्रिया शुरू की गई मगर बीच में बदलाव करते हुए केवल मेरिट और शारीरिक परीक्षा के आधार पर सिपाही का चयन करने की बात की गई जिसके खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की गई। याचिका में दलील दी गई कि विज्ञापन जारी होने के बाद चयन प्रक्रिया प्रारंभ मानी जाती है, इसके बीच में नियमों में बदलाव नहीं किया जा सकता, जिसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि विभाग चाहे तो चयन प्रक्रिया जारी रख सकता है लेकिन बिना अदालत की अनुमति के परिणाम सार्वजानिक नहीं कर सकता। इस तरह से 34,000 सिपाहियों की भर्ती पर रोक लग गई।
प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के बाद, माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड में अध्यक्ष और सदस्यों का मामला कुछ इस कदर विवादित रहा कि बीते चार वषार्ें में कोई भी भर्ती प्रक्रिया शुरू नहीं की जा सकी। सरकार बनने के बाद डॉ. धनंजय गुप्ता को कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया गया। गुप्ता पहले बोर्ड में सदस्य के पद पर थे। 2013 के फरवरी माह में डॉ. देवकीनन्दन शर्मा को माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। करीब 11 महीने का उनका कार्यकाल ठीक-ठाक चल रहा था मगर अस्वस्थता के चलते उन्होंने यह पद छोड़ दिया। इसके बाद बोर्ड के ही सदस्य डॉ. आशा राम को अध्यक्ष नियुक्त किया गया पर उनके कार्यकाल में विवादों की शुरुआत हुई। उन्होंने जो वेतन आहरित किया था, उसका भी मामला विवादित रहा और उसकी शिकायत शासन तक की गई। आशा राम का बोर्ड के सचिव से विवाद हो गया और उन्होंने सचिव के कमरे में ताला लगवा दिया। अध्यक्ष और सचिव का विवाद भी शासन के संज्ञान में पहुंचा। वर्ष 2013 में प्रधानाचायार्े के पद के अभ्यर्थियों के लिए लिखित परीक्षा कराई गई थी, उसका साक्षात्कार होना था। डॉ. आशा राम पर यह आरोप भी लगा कि उन्होंने उन प्रधानाचायार्े के पद के अभ्यर्थियों को बिना बुलावा पत्र भेजे साक्षात्कार शुरू करा दिया था। जैसे ही यह जानकारी लोगों को पता लगी कि विवाद बढ़ गया। विवाद ज्यादा बढ़ने पर डॉ. आशा राम को अध्यक्ष पद से हटा दिया गया।
वर्ष 2014 से वर्ष 2015 के बीच बोर्ड में कोइ अध्यक्ष नहीं रहा, इसलिए इस सत्र को ही शून्य कर दिया गया, इस दौरान कोई पद नहीं विज्ञापित किया गया। इस तरह से करीब डेढ़ वर्ष तक बोर्ड में कोई भी चयन प्रक्रिया नहीं हुई। उसके बाद डॉ. परशुराम पाल को अध्यक्ष नियुक्त किया गया, इन्होंने कुछ कामकाज आगे बढ़ाया मगर कुछ ही महीनों के कार्यकाल के बाद उन्हें अचानक पद से हटा दिया गया। आरोप है कि बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती की एक जनसभा में डॉ. परशुराम पाल का होडिंर्ग लगा था, किसी ने उस होडिंर्ग का फोटो खीचकर सपा के कुछ प्रमुख नेताओं के यहां पहुंचा दिया, जिसके बाद उन्हें पद से बर्खास्त कर दिया गया था।
इसके बाद बोर्ड में सदस्य के पद पर आसीन अनीता यादव को अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गयी। कुछ महीनों के कार्यकाल के बाद सनिल कुमार को बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इनकी नियुक्ति को लेकर भी इलाहबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गयी। विवाद बढ़ने पर सनिल कुमार भी अध्यक्ष पद से बर्खास्त कर दिए गए।
इसी बीच इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका और दायर हुई जिसमें यह आरोप लगाया गया कि बोर्ड में जो भी सदस्य काम कर रहे हैं, वे इतनी योग्यता नहीं रखते कि प्रधानाचार्य पद के अभ्यर्थियों का साक्षात्कार ले सकें। प्रधानाचार्य पद के अभ्यर्थी का साक्षात्कार जिन सदस्यों द्वारा लिया जा रहा था, उनमें से दो सदस्य ऐसे थे जो इससे पहले इंटर कॉलेज के एल टी ग्रेड के शिक्षक थे और हाई स्कूल के छात्र-छात्राओं को ही पढ़ा सकने के लिए पात्र थे। बोर्ड की सदस्य आशालता सिंह इंटर कॉलेज की शिक्षक थीं, एक अन्य सदस्य ललित श्रीवास्तव भी माध्यमिक शिक्षक के पद पर नियुक्त थे और उसके पहले लिपिक थे। सरकार ने इन लोगों को बोर्ड का सदस्य बना दिया। ये लोग बाकायदा इंटर कॉलेज के प्रवक्ता और प्रधानाचार्य पद के अभ्यर्थियों का साक्षात्कार ले रहे थे। याचिका की सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय ने इन सदस्यों को प्रथम दृष्टया अयोग्य माना और इनके काम करने पर रोक लगा दी। अभी कुछ दिन पहले इस मामले में एक नाटकीय परिवर्तन आया, याची अभिलाषा मिश्र ने अचानक अपनी याचिका मीडिया में सार्वजनिक कर दी। इसके बाद से आयोग के दोनों सदस्यों ने यह मानते हुए कि अदालत की रोक हट गई है, अपना कामकाज शुरू कर दिया है। मगर उसके बाद प्रतियोगी छात्र संघर्ष समिति ने एक नई याचिका दायर की और उच्च न्यायालय से यह गुहार लगाई कि इन दोनों सदस्यों के काम करने पर रोक लगायी जाय और उच्च न्यायालय ने उस याचिका की सुनवाई करते हुए दोनों सदस्यों के काम काज पर फिर एक बार रोक लगा दी।
अभी हाल ही में शासन ने सेवानिवृत्त आई ए एस, हीरा लाल गुप्ता को बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया है। उन्होंने अपना काम शुरू कर दिया है। संपर्क करने पर उन्होंने बताया कि उनके पहले जो कुछ भी बोर्ड में हुआ, उसके बारे में वे कुछ नहीं बता सकते और अभी तक जो अखबारों में छपता रहा है, वही उनका 'वर्जन' है। बहरहाल, माध्यमिक शिक्षा चयन बोर्ड के प्रशासनिक अधिकारी समर बहादुर सिंह ने बताया कि प्रधानाचार्य के 550 पद वर्ष 2011 में विज्ञापित हुए थे। जिसमंें चयन प्रक्रिया को लेकर विवाद उच्च न्यायालय में पहुंचा। इसमें साक्षात्कार हो चुका था मगर परिणाम घोषित करने पर अदालत से रोक लगी हुई है वर्ष 2013 में करीब 900 पद विज्ञापित हुए थे, ये नियुक्तियां रुकी हुई थीं, अब उन पदों के लिए साक्षात्कार शुरू हो गए हैं। समर बहादुर सिंह ने बताया कि माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड से वर्ष 2016 में प्रवक्ता और प्रधानाचायार्ें के करीब 550 पद विज्ञापित होने वाले है। शासन द्वारा बनाया गया एक आयोग और है जिसे उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के नाम से जाना जाता है। उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, स्नातकोत्तर और स्नातक महाविद्यालयों में प्रवक्ता और प्राचायार्े की नियुक्ति करता है।
प्रदेश में सपा की सरकार बनने के बाद उच्चतर शिक्षा आयोग में अध्यक्ष के पद पर रामवीर सिंह यादव को नियुक्त किया गया। आयोग में रूदल सिंह और डॉ. अनिल कुमार सिंह को सदस्य नियुक्त किया गया। इन तीनों लोगों की नियुक्तियों को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी। अदालत ने अध्यक्ष और दोनों सदस्यों को अयोग्य घोषित करते पद से बर्खास्त कर दिया। अब नतीजा यह है कि बोर्ड में केवल एक सदस्य है रामेन्द्र बाबू चतुर्वेदी। कोरम के अभाव में किसी भी नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू नहीं हो पा रही है। जानकारी के अनुसार उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग आधिनियम 1980 की धारा 4़ 2 ( क ) के अनुसार आयोग का सदस्य वही हो सकता है जो उत्तर प्रदेश न्यायिक सेवा का पूर्व या वर्तमान सदस्य हो, जिसने न्यायाधीश या उसके समक्ष कोई अन्य पद धारण किया हो अथवा भारतीय प्रशासनिक सेवा का पूर्व या वर्तमान सदस्य हो जिसने राज्य सरकार के सचिव या राज्य सरकार के अधीन उसके समकक्ष पद धारण किया हो। अथवा किसी विश्वविद्यालय का वर्तमान या पूर्व कुलपति या किसी विश्वविद्यालय का वर्तमान या पूर्व प्राध्यापक। स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य पद का 10 वर्ष का अनुभव रखने वाला व्यक्ति अथवा स्नातक महाविद्यालय के प्राचार्य पद का 15 वर्ष का अनुभव रखने वाला व्यक्ति आयोग का सदस्य बन सकता है। 2004 में प्रदेश सरकार ने एक मानक यह जोड़ दिया कि आयोग का सदस्य ऐसा व्यक्ति भी बन सकेगा जिसने राज्य सरकार की राय में शिक्षा में बहुमूल्य योगदान दिया हो।
बहरहाल, बर्खास्त हुए अध्यक्ष और दोनों सदस्यों को पांच वर्ष से ज्यादा का शिक्षण का अनुभव नहीं था, अब शासन ने अवकाश प्राप्त आई ए एस, प्रभात मित्तल को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया है। बेसिक शिक्षा विभाग में प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों की नियुक्तियां हुई हैंं। हालांकि गत 3 वर्ष में करीब 3 लाख भर्तियां की गईं लेकिन सपा राज में विवादों की तलवार इनपर लटकती रही। बेसिक शिक्षा विभाग की विवादित भर्ती को सवार्ेच्च न्यायालय से राहत मिली लेकिन प्रदेश सरकार ने शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) की अनिवार्यता के बाद भी करीब डेढ़ लाख शिक्षामित्रों को अध्यापक के पद पर नियमित कर दिया। पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन शिक्षामित्रों की नियुक्ति को गलत ठहराया।
बहरहाल पद विज्ञापित होने के बाद नियमों में हेर-फेर और नियुक्तियों की इस अधरझूल ने युवाओं में आशा की बजाय आक्रोश बढ़ाया है। अब जवानी किस ओर जाएगी और जमाना किस ओर यह सपा को देखना है।
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