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तालिबान के सबसे बड़े नेता को अमेरिका ने मार गिराया। बलूचिस्तान के एक गांव के बाहर मुल्ला मंसूर की मौत पाकिस्तान के लिए सदमा और सबक दोनों हैं। सदमा यह कि अफगानिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें जमाने के लिए अमेरिका के साथ मिलकर क्षेत्र में शांतिवार्ताकार की भूमिका में उतरने का इच्छुक पाकिस्तान, उस तालिबानी पक्ष के सामने अब क्या मुंह दिखाए जिससे निबटने के लिए 'वार्ता ही सबसे ठीक विकल्प' की ढपली वह जब-तब बजाता रहता है।
सबक यह कि एक के बाद एक अदृश्य ड्रोन के सटीक हमले यह बताने के लिए काफी हैं कि आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तानी झांसेबाजी की हद को अमेरिका बखूबी समझने लगा है।
अच्छी बात यह कि अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं घटाने-हटाने के क्रम में अमेरिका आतंकवाद के प्रति उतना नरम नहीं पड़ा है जितना कि पाकिस्तान समझता (या चाहता) रहा है।
कट्टरवादी जिहादियों के प्रति नजरिए का यह फर्क अब पाकिस्तान के गले की फांस है। मुल्ला मंसूर की मौत के बाद इस फांस का दर्द पूरी दुनिया के सामने उजागर हो गया है। प्रभुसत्ता की दुहाई देते हुए पाकिस्तान अपनी आवाम के सामने यह तो जताना चाहता है कि जिहादियों से सहानुभूति के मुद्दे पर वह अमेरिका को भी ललकारने का दम रखता है, लेकिन मुल्ला मंसूर के पाकिस्तानी पासपोर्ट का सवाल उठने पर बगलें झांकने लगता है।
ओसामा, मुल्ला मंसूर, दाऊद या और आतंकी जमातें… पाकिस्तान के भीतर पनाह पाए मानवता के अपराधी यदि पाकिस्तान को नहीं दिखते और दुनिया को नजर आते हैं तो इसमें गलती किसकी है?
दरअसल, यह पाकिस्तान की नींव में पड़ी उन नीतियों का फंदा है जो उसे सकारात्मक तरीके से सोचने और विश्व फलक पर आगे बढ़ने नहीं देता। इंसान और इंसान में फर्क, मुसलमान और मुसलमान में फर्क, आतंकवादी और आतंकवादी में फर्क़.़ हर चीज, हर बात में फर्क देखने के उसके नजरिए ने ऐसा फर्क पैदा किया है कि आज पाकिस्तान अपने पास-पड़ोस में ही अलग-थलग पड़ गया है।
अफगानिस्तान में झगड़ा पैदा करने और बढ़ाने की चाह, ईरान से पाकिस्तान तक शिया अधिकारों की हर आवाज को आहिस्ता से दबाने की कुचेष्टा और भारत…भारत का तो नामभर ही पड़ोसी के नफरत से भर जाने के लिए काफी है। सौदेबाजी, संदेह और षड्यंत्र के तारों से बुनी पाकिस्तानी विदेश नीति के तार कुछ ऐसे हैं जो अब उसके लिए ही आफत सिद्ध हो रहे हैं।
एक ओर इस्लामी आतंकियों को पोसने और दूसरी ओर अमेरिकी चंदे और हथियारों से आतंक को निबटाने का भ्रम अब टूट चुका है।
अफगानिस्तान के सीमांत क्षेत्रों में लड़ाकों से नजदीकियां बढ़ाने और काबुल में लोकतंत्र बचाने के लिए शांतिवार्ता के कालीन, मसनद जमाने वालों के चेहरे अब सामने आ रहे हैं।
मुल्ला मंसूर की मौत पाकिस्तान के लिए सबक है। जिस वक्त इस्लामी आतंक के दर्दमंद इस शीर्ष तालिबानी की याद में फातिहा पढ़ रहे थे, ईरान-अफगानिस्तान और भारत, तेहरान में क्षेत्रीय सहयोग और विकास की बुनियाद रख रहे थे।
चाबहार बंदरगाह पर हुआ समझौता इस पूरे क्षेत्र में औद्योगिक-आर्थिक गतिविधियों में जान फूंकने वाला कदम है, लेकिन पड़ोस में रहकर भी पाकिस्तान, पड़ोसियों और उनकी अच्छी बातों से दूर है़.़ दूर रहकर विकास के रास्ते पर आप कितनी दूर तक जाएंगे?
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