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तकनीक के रास्ते सूचनाओं की बाढ़, न्यूजरूम का कलेवर बदल देने वाले सोशल मीडिया का उभार और इसके साथ छिटकते दर्शक, पाठक श्रोताओं को बांधे रखने की चुनौती…
आज जब सूचनाओं के लेन-देन के तरीके बदल रहे हैं, ऐसे में संपादक नामक संस्था का दायरा घटना और मीडिया में घरानों का बढ़ता एकाधिकार मीडिया के लिए नए प्रश्न पैदा कर रहा है। देश-समाज के लिए हितकारी खबरों से कन्नी काटकर निकलने वाली पत्रकारिता के सरोकार क्या हैं? सत्य की बजाय सत्ता की ओर लुढ़कने वाली पत्रकारिता ने क्या एक खास किस्म की अराजकता पैदा की है?
मीडिया के लिए बदलाव का यह मोड़ अहम है। एक ओर उसके पास जन-जन तक पहुंचने के बेहतर साधन हैं, दूसरी ओर बाजारवाद और राजनैतिक अतिमोह के चलते पैदा हुआ साख का संकट।
मीडिया की इन चुनौतियों, सत्ताा के साथ इसके संबंध और पत्रकारिता से राजनीति के सोपानों को कैसे देखते हैं दिग्गज, आइए जानें उन्हीं की कलम से।
रामबहादुर राय
आज पत्रकारिता में अराजकता जैसी स्थिति पैदा हो गई है। यह बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। खतरा यह है कि अगर संपादक नाम की संस्था नहीं बची तो पत्रकारिता की परम्परा का निर्वाह नहीं हो सकेगा, पत्रकारिता के नियम और संस्कारों का भी निर्वहन नहीं हो पाएगा।
पत्रकारिता की 250 वर्ष पुरानी श्रेष्ठ परम्परा है। उस परम्परा में सत्य के लिए बलिदान करने की परम्परा है। लेकिन आज तो सत्ता के लिए बलिदान हो जाने की परम्परा चल पड़ी है। पत्रकारिता में अराजकता का एक कारण है नेतृत्व का अभाव।
हमारे देश में आजादी के बाद पत्रकारिता कैसे चले, इसके लिए कुछ संस्थाएं बनाई गईं। वे सारी संस्थाएं आज अप्रासंगिक हो गई हैं। उदाहरण के लिए प्रेस परिषद को ले सकते हैं। इसका काम है पाठकों के हितों की रक्षा करना। यदि पाठक मीडिया से त्रस्त होता था, उसे लगता था कि मीडिया में गलत बातें प्रसारित हो रही हैं तो वह प्रेस परिषद के पास जाता था। प्रेस परिषद के निर्णय सभी अखबारों को मान्य होते थे। हालांकि उसके पास कोई कानूनी अधिकार नहीं था, सिर्फ नैतिक अधिकार था। यानी एक परम्परा बन गई थी कि सभी अखबार प्रेस परिषद की बातों को मानेंगे, उसके फैसलों पर अमल करेंगे। लेकिन जैसे ही एच. के. दुआ के मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया के खिलाफ प्रेस परिषद का निर्णय आया तो टाइम्स ऑफ इंडिया ने कहा कि वह प्रेस परिषद के निर्णय को नहीं मानेगा, परिषद को जो करना है, करे लिहाजा, प्रेस परिषद की सत्ता को इस देश के सबसे बड़े मीडिया समूह ने चुनौती दी।
उस समय जरूरत थी सरकार इस बात को गंभीरता से लेती और प्रेस परिषद को ऐसे कानूनी अधिकार देती, जो इस तरह के उल्लघंन पर कानूनी कार्रवाई करती। लेकिन प्रेस परिषद को ऐसे अधिकार मिलने की बात तो दूर, वह और ज्यादा कमजोर होती गई। आज प्रेस परिषद की कोई हैसियत नहीं रह गई है। ऐसा इसलिए भी हुआ है क्योंकि उसके दायरे में सिर्फ प्रिंट मीडिया आता है। आज पूरे मीडिया का तीन चौथाई हिस्सा प्रेस परिषद से बाहरहै। मुझे ध्यान है, आज से करीब 20 वर्ष पहले न्यायमूर्ति पी.वी. सावंत प्रेस परिषद के अध्यक्ष थे। उस समय उन्हें आभास हो गया था कि प्रेस परिषद दिनोंदिन कमजोर होती जा रही है। इसको देखते हुए उन्होंने प्रेस काउंसिल की जगह मीडिया काउंसिल बनाने के लिए एक कानूनी खाका (लीगल ड्राफ्ट) तैयार किया था। एक दिन उन्होंने मुझे भी प्रेस परिषद के दफ्तर में बुलाया और उस पर चर्चा की। उन दिनों अटल जी के नेतृत्व में राजग की सरकार थी और सुषमा स्वराज सूचना एवं प्रसारण मंत्री थीं। एक दिन मैं और न्यायमूर्ति सावंत उनके पास गए और वह खाका उन्हें सौंपा। उन्होंने उसे पढ़ा और हमारी बात बहुत ध्यान से सुनी। उन्होंने आश्वासन दिया था कि वे इस विषय को आगे बढ़ाएंगी यानी मीडिया परिषद बनाने की कोशिश करेंगी, पर वह बात आगे नहीं बढ़ी और परिषद आज तक नहीं बन पाई।
2009 के आम चुनाव के समय 'पेड न्यूज' की बीमारी सामने आई। बड़े अखबार और बड़े चैनल भी इस गोरखधंधे में लिप्त पाए गए। उस समय इस पर अनेक मंचों पर बहस हुई थी। यहां तक कि संसद में भी 'पेड न्यूज' पर चर्चा हुई थी। इस मुद्दे पर राज्यसभा में हुई बहस में अरुण जेटली ने कहा था, ''प्रेस परिषद बिना दांत का बाघ है।'' उनका यह भाषण बहुत ही चर्चित हुआ था। उस समय जिस व्यक्ति ने प्रेस परिषद की इन कमजोरियों को उजागर किया था, वही इन दिनों सूचना एवं प्रसारण मंत्री हैं। पत्रकारिता के लिहाज से देखें तो यह अच्छी बात है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि अरुण जेटली प्रेस परिषद को मीडिया परिषद में बदलेंगे।
लोकमत बनाते हैं राजनीति और पत्रकारिता
लेकिन जब मैं पत्रकारिता में अराजकता की बात करता हूं तो इसका आशय है कि भूमंडलीकरण का जब से दौर शुरू हुआ है यानी 1991 से, तब से सरकार में कौन रहा है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन सरकार में बैठे हुए लोगों के मन में एक बात बैठ गई है कि जब हम खुली अर्थव्यवस्था की बात करते हैं तो मीडिया के नियमन की बात हमें छोड़ देनी चाहिए। इसलिए जब-जब मीडिया के नियमन की बात उठती है तो कहा जाता है कि ऐसा कोई नियम नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र का मतलब होता है कानून का राज, कानून के सामने सभी बराबर हैं। इसको देखते हुए मीडिया के लिए कोई नियम बनता है तो उसको मीडिया पर नियंत्रण कैसे माना जाएगा? लेकिन सरकार के लोग यह मानकर बैठे हैं, या मीडिया इतना ताकतवर बन गया है कि वह कहता है कि कोई नियम नहीं होगा। यानी अराजकता रहेगी तो उनके लिए ठीक रहेगा।
एक ओर तो सरकार मीडिया के मालिकों को स्वच्छंद छोड़ रही है, उन्हें मनमानी करने दे रही है, उन्हें किसी चीज के लिए जवाबदेह नहीं बना रही है, वहीं दूसरी ओर पत्रकारिता की आजादी को खत्म या नियंत्रित करने के लिए कानून बनाए जा रहे हैं। आजादी के बाद से अब तक पत्रकारिता को नियंत्रित करने के लिए 19 कानून बनाए गए हैं। पत्रकारों को काम करने के लिए 19 बाधाएं पार करनी पड़ती हैं। ऐसे में दो सवाल उठते हैं- पहला, मीडिया के मालिकाना हक का स्वरूप क्या हो? दूसरा, क्या विदेशी पंूजी से मीडिया संचालित होगा? ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि आज की पत्रकारिता में पत्रकारों की आजादी इन्हीं दो सवालों से जुड़ी हुई है। इनका हल निकलेगा तो पत्रकारिता निखरेगी, नहीं तो मालिकों की मनमानी चलती रहेगी। मालिकों की मनमानी चलने का अर्थ यह है कि सरकार और पूंजी की बदौलत आम नागरिकों के अधिकारों में कटौती होती रहेगी।
अब पहले सवाल पर आते हैं। क्या किसी को भी मीडिया के आज जो तमाम माध्यम दिखते हैं, उनमें शामिल होने और पूंजी लगाने की छूट मिलनी चाहिए? कहने को तो देश में एक लाख से ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं पंजीकृत हैं। भारत सरकार ने 900 टी. वी. चैनलों को लाइसंेस दे रखा है। सोशल मीडिया का तो कोई हिसाब-किताब ही नहीं है। इसके बावजूद पत्रकारिता की तस्वीर कोई अच्छी नहीं है। लोगों की आवाज बुलंद नहीं हो पा रही है। मात्र 14 घराने ही पूरे मीडिया को नियंत्रित कर रहे हैं। एकाधिकार घराने पैदा हो रहे हैं। लोकतंत्र और एकाधिकार दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। मीडिया घरानों के एकाधिकार से लोकतंत्र को खतरा पैदा हो गया है। लोगों का हक मारा जा रहा है। लोगों की ओर से बोलने में उनकी कोई रुचि नहीं है। वे वही दिखाते या छापते हैं, जो उन्हें अपने फायदे का सौदा लगता है। लोगों की आवाज से उन्हें कोई मतलब नहीं है।
विदेशी पंूजी से संचालित मीडिया से भी लोकतंत्र को खतरा है। अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार के समय 25 जून, 2002 को पांच मीडिया घरानों के प्रयास और उनके दबाव से मीडिया में विदेशी पंूजी की अनुमति मिल गई। हालांकि पूरे देश में दो साल तक लगातार इस विषय पर बहस होती रही। जनमत मीडिया में विदेशी पूंजी के विरुद्ध था। इसके बावजूद प्रिंट मीडिया में 26 प्रतिशत और मनोरंजन में 100 प्रतिशत विदेशी पंूजी की इजाजत मिल गई। इस वजह से मीडिया में विदेशी पूंजी का प्रभुत्व कायम हो गया है। दुनिया के किसी भी देश के मीडिया में विदेशी पूंजी लगाने की इजाजत नहीं है। उनसे हमें सीखने की जरूरत है। जनवरी, 2015 में न्यायमूर्ति जगदीश शरण वर्मा की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में अरुण जेटली ने कहा था कि वे मीडिया पर किसी तरह की पाबंदी के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन उसके मालिकाना हक पर बहस कराने की जरूरत है। उनकी इस बात को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। ऐसा होने पर ही पत्रकारिता स्वस्थ और स्वच्छ रहेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'यथावत'
पत्रिका के संपादक हैं)
प्रस्तुति : अरुण कुमार सिंह
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