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पय्यानूर के शाखा कार्यवाह विनोद की दादी उनकी मृत देह पर विलाप करते हुए
टी़ सतीशन, कोच्चि से तथा गणेश कृष्णन आर., कन्नूर से
राजनीतिक तौर पर विरोधी मीडिया वाले और सच से अनजान लोग अक्सर यह कहते दिखते हैं कि केरल का शांतिपूर्ण माहौल अक्सर माकपा-रा़ स्व़ संघ के बीच झड़पों और हत्याओं की भेंट चढ़ता रहा है। वे केरल की राजनीतिक हिंसा के शिकार लोगों और आंकड़ों को भी दर्शाते रहे हैं। नतीजतन, आम लोग अक्सर ऐसे झूठे प्रचार को सच मान बैठते हैं। तो सवाल उठता है कि आखिर सच क्या है? क्या माकपा-संघ के झगड़ों की बात सच है? या फिर यह माकपा द्वारा अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ की जाने वाली हिंसा है।
सीधा-सरल सच यह है कि वामपंथी, जिन्हें आधुनिक शब्दावली में मार्क्सवादी कहा जाता है, अन्य विचारधाराओं के धुर विरोधी रहे हैं। पिछली सदी में रूस में हुई अक्तूबर क्रांति के बाद यह सच जब-तब दुनिया भर में सामने आता रहा है। मार्क्सवाद का बुनियादी मूलमंत्र ही 'सर्वहारा की तानाशाही' है। दूसरे शब्दों में कहें तो वे हमेशा ही कम्युनिस्ट पार्टी के एकछत्र राज के समर्थक रहे हैं। पहले सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपीय देशों में और आज उत्तर कोरिया व क्यूबा में हम यही देख रहे हैं।
इस तरह की तानाशाही प्रवृत्ति से वामपंथियों के दिमाग में हर जगह असहिष्णुता और नफरत फैली। जिन स्थानों पर वे सत्ता में रहे, वहां तो इसका और भी प्रचंड रूप सामने आया।
केरल में जो भी राजनीतिक टकराव दिखा है, उसमें माकपा हमेशा एक पक्ष रही है। यह टकराव माकपा बनाम कांग्रेस, माकपा बनाम रा़ स्व़ संघ, माकपा बनाम भाजपा, माकपा बनाम केरल कांग्रेस, माकपा बनाम भाकपा तक के बीच रहा है। कई बार तो यह टक्कर माकपा (एक समूह) की माकपा (अन्य) से ही रही है। लिहाजा, केरल में बिना माकपा की सहभागिता वालेे राजनीतिक दंगे यदा-कदा ही हुए हैं। इससे अन्य विचारधाराओं के प्रति माकपा की असहिष्णुता साबित होती है। माकपा द्वारा की गई इस हिंसा के निशाने पर सबसे ज्यादा रहा है संघ परिवार। इसकी शुरुआत 1940 के दशक में ही हो गई थी जब अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी को केरल में सत्ता का स्वाद चखने की उम्मीद जगी थी।
अविभाजित भाकपा का संघ पर पहला बड़ा हमला 1948 में हुआ था। यह इस मायने में भी महत्वपूर्ण था कि वह हमला संघ की एक बैठक के दौरान हुआ था जिसे तत्कालीन सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरुजी संबोधित कर रहे थे। हमला तब हुआ था जब गुरुजी मंच पर मौजूद थे। भाकपा कार्यकर्ताओं की मंशा गुरुजी को चोट पहुंचाने की थी। उस दौरान श्री पी़ परमेश्वर मुख्य शिक्षक थे। स्वयंसेवकों ने हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया था, जिसके बाद मार्क्सवादी उपद्रवी भाग खड़े हुए थे। उनकी अगुआई एक युवा छात्र नेता कर रहा था, जिसकी पहचान बाद में आईएएस अधिकारी और प्रतिष्ठित लेेखक के तौर पर बनी थी। बाद में उसने उस घटना में अपने माथे पर आई चोट का जिक्र भी किया था। बहरहाल, वह बैठक जारी रही। गुरुजी ने घटना को नजरअंदाज करते हुए बेहद सामान्य भाव से सभा को संबोधित किया था। उन्होंने उस घटना के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा।
भाकपा का अगला बड़ा हमला श्री गुरुजी द्वारा संबोधित अलप्पुझा की एक अन्य बैठक के दौरान हुआ था। यह 1952 की बात है। उस दौरान वामपंथियों ने गुरुजी के संबोधन के दौरान हमला बोला था। स्वयंसेवकों ने इस बार भी उनका डटकर मुकाबला किया। अपने सामने हो रहे दंगे के बारे में एक शब्द भी बोले बिना गुरुजी ने अपना संबोधन तिरुअनंतपुरम की बैठक की तरह जारी रखा।
इसके बाद कुछ समय तक हमले रुके रहे थे। 1964 में भाकपा का विभाजन हुआ। उसके बाद भाकपा ने तो संघ के खिलाफ हमले करने में रुचि नहीं दिखाई। परंतु, कटकर अलग हुए अन्य समूह यानी माकपा ने कुछ वषार्ें बाद फिर से उग्र रूप धारण कर लिया। उपरोक्त घटनाओं के बाद अगला बड़ा हमला 1969 में हुआ था। यह घटना त्रिशूर के श्री केरल वर्मा कॉलेज की थी। कॉलेज प्रशासन ने स्वामी चिन्मयानंदजी को वहां भाषण के लिए बुलाया था। परंतु स्वामीजी के कॉलेज पहुंचने पर केरल स्टूडेंट्स फेडरेशन (केएसएफ) ने माकपाकर्मियों के साथ मिलकर स्वामीजी को रोकने और चोट पहुंचाने के तमाम हथकंडे अपनाए। परंतु अभाविप कार्यकर्ताओं की सूझबूझ से माकपाइयों की एक न चली। अभाविप छात्रों ने स्वामीजी के गिर्द घेरा बना लिया था, जिसकी सुरक्षा में वे अपनी कार तक पहुंचे और सुरक्षित चले गए। उस दौरान अभाविप कॉलेेज में एक छोटी-सी इकाई थी और माकपाकर्मियों के अचानक हमले को रोकने में सक्षम नहीं थी। माकपाकर्मियों ने कॉलेज जाने वाले रास्ते में हर खंभे पर गंदी बाल्टियां, झाड़ू, चप्पलें और काले झंडे टांगे हुए थे।
अगले दिन अभाविप कार्यकर्ताओं ने स्वामीजी पर माकपा के हमले के खिलाफ विरोध रैली निकाली, जिसके बाद अभाविप छात्रों और संघ स्वयंसेवकों पर हमला किया गया। सड़कों पर भयानक दंगा छिड़ा, जो संभवत: राज्य में अपनी तरह का पहला था। अंतत: माकपा को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। अनेक माकपाकर्मी घायल हुए और अस्पताल पहुंचे। बाद में माकपा के बाहरी कार्यकर्ताओं की मदद से केएसएफ (बाद में एसएफआई) ने कॉलेज में अभाविप कार्यकर्ताओं पर हमला किया था।
1969 में पिनरयी विजयन एवं कोडियरी बालकृष्णन के नेतृत्व में, पोलित ब्यूरो सदस्यों एवं पूर्व व तत्कलीन राज्य सचिवों ने संघ स्वयंसेवक वडिक्कल रामकृष्णन की हत्या कर दी। रामकृष्णन माकपाई गढ़ तलास्सेरी में रहने वाला निर्धन व्यक्ति था जो टॉफियां बेचकर आजीविका कमाता था। यह हत्या बिना किसी कारण की गई थी। एक माह बाद, कोट्टायम जिले के पोनकुन्नम के एक संघ स्वयंसेवक श्रीधरन नायर को भी मार डाला गया था। उसी वर्ष पलक्कड में रहने वाले स्वयंसेवक रामकृष्णन को भी मार दिया गया।
इसके बाद 11 जनवरी, 1970 को एर्नाकुलम जिले के परूर में माकपा हमलावरों ने वरिष्ठ कार्यकर्ता व पूर्व प्रचारक वेलियाथनादु चंद्रन को मार डाला। 1973 में त्रिशूर जिले के नलेन्करा में मंडल कार्यवाह शंकरनारायण को मारा गया। 1974 में कोच्चि में संघ के मंडल कार्यवाह सुधींद्रन की हत्या हुई।
हालांकि उपरोक्त सभी हमले संघ और संघ परिवार के लिए बेहद घातक थे, माकपा ने 1978 में माना कि संघ कार्यकर्ताओं की हत्या उनका प्रिय शगल था। हालांकि तब तक आपातकाल उठे लंबा अरसा बीत चुका था। इसकी भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। आपातकाल के दौरान देश में तानाशाही और वंशवादी शासन के खिलाफ संघर्ष में संघ और संघ परिवार की भूमिका बढ़ गई थी। इसलिए जाहिर है कि इससे युवा और उत्साही माकपावर्ग परेशान था। आपातकाल के खिलाफ अपने पार्टी नेतृत्व की उदासीनता से वे पहले ही तंग आ चुके थे। पार्टी के शीर्ष नेता, प्रशासन को तंग किए बिना अपनी छोटी-मोटी गतिविधियों में व्यस्त थे। ऐसे में संघ के युवा स्वयंसेवकों को पोस्टर अभियान और पर्चे बांटने आदि की मुहिम चलाते देखकर माकपाकर्मी हैरान रह गए थे। हजारों संघ कार्यकर्ताओं द्वारा अहिंसक सत्याग्रह, उनकी गिरफ्तारी और पुलिस द्वारा उनको दी जाने वाली यातना को देखकर उन्हें अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ था। नतीजा, आपातकाल के दौरान कई माकपाकर्मी संघ द्वारा जारी भूमिगत आंदोलन के साथ जुड़ गए। आपातकाल उठने के बाद, वे सक्रिय स्वयंसेवकों के तौर पर सामने आए थे। कन्नूर, अलप्पुझा और त्रिशूर के तटवर्ती जिलांे में यह अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिला था। आपातकाल के बाद भी संघ की ओर उनका यह पलायन जारी रहा। दरअसल, कार्यकर्ताओं का यह क्षरण माकपा को लगने वाले आखिरी झटकों में से था।
उसके जो कार्यकर्ता संघ से जुड़े थे, उनकी हत्या करना ही माकपा नेतृत्व को समस्या का एकमात्र हल दिखा। इसके बाद, 1978 में कन्नूर जिले के तलासेरी में एक किशोर छात्र और पनुंद शाखा के मुख्य शिक्षक चंद्रन की हत्या के साथ उन्होंने हत्या के दौर की शुरुआत की। खास बात यह है कि चंद्रन के पिता माकपा की स्थानीय समिति के सदस्य थे। इन हत्याओं के पीछे मंशा माकपा परिवारों को यह चेतावनी देना थी कि वे संघ से न जुड़ें। इसके बाद तलासेरी तालुका में हत्याओं का लंबा सिलसिला चला। इसका माकपा की हिंसा का शिकार बने अधिकांश संघ कार्यकर्ता पूर्व माकपाई या माकपा परिवारों से ताल्लुक रखते थे। बाद में जब माकपा को महसूस हुआ कि तलवारों और चाकुओं से संघ के विस्तार को नहीं रोका जा सकता, तो उन्होंने बमों का सहारा लिया। 1978 के दौरान तलासेरी में कई संघ कार्यकर्ता मारे गए थे। इनमें प्रमुख थे संघ के खंड कार्यवाह करिमबिल सतीशन (1981), कन्नूर जिला के भाजपा सचिव पन्नयनूर चंद्रन (1986), भारतीय जनता युवा मोर्चा के राज्य उपाध्यक्ष जयकृष्णन मास्टर (छठी कक्षा के छात्रों को पढ़ाते समय उनकी हत्या की गई) और कन्नूर जिले के शारीरिक प्रमुख मनोज (2014)। 1984 में कन्नूर सह जिला कार्यवाह सदानंदन मास्टर की घुटनों से नीचे दोनों टांगें काट दी गई थीं।
इसी तरह, 1980 में कन्नूर अभाविप से जुड़े रहे जिला अधिकारी गंगाधरन को मार डाला गया था। वह उनका सरकारी नौकरी पर पहला दिन था। अभाविप के तत्कालीन संयोजक सचिव के. जी़ वेणुगोपाल एवं तत्कालीन जिला प्रचारक वी़ एन. गोपीनाथ के अनुसार गंगाधरन के सर्वेक्षण विभाग में आते ही वहां के एक कर्मचारी ने माकपा को सूचित कर दिया था। इसके बाद गंगाधरन की उनकी कुर्सी पर ही हत्या कर दी गई थी। शव को पोस्टमार्टम के लिए न भेजा जाए, इसके लिए हत्यारों ने जिला कलेक्टर को भी धमकाया था!
1979 में उन्हीं हत्यारों ने अलप्पुझा जिले में संघ सवयंसेवकों पर हमले जारी रखे। वहां संघ व भाजपा के कई लोग मारे गए थे। उनमें से पहलेे 27 वर्षीय गोपालकृष्णन थे, जिनकी 18 सितंबर, 1980 को हत्या की गई थी। माकपा हत्यारों ने उन्हें चलती बस से बाहर खींचकर चाकुओं से गोद डाला था। एक अन्य हत्या कुट्टनाडु में 1982 में खंड कार्यवाह विश्वम्भरम की थी। 15 वर्षीय प्रदीप 10वीं के छात्र थे जिनकी माकपा ने बेरहमी से हत्या कर दी थी।
आपातकाल के दौरान त्रिशूर जिले में माकपाकर्मियों ने कई संघ कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी। तटवर्ती जिलेे वदनपल्ली में कई घातक हमले किए गए थे। हमलावरों ने एक घर पर हमला किया और वहां आग लगा दी जिसमेंं एक व्यक्ति जल कर मर गया था। 1984 में कोदुंगलूर तालुका कार्यवाह और कर्मठ संघकर्मी टी़ सतीशन को बीच रास्ते में मार डाला गया। उसी वर्ष एर्नाकुलम जिले के नयथोदु में माकपा तत्वों ने पूर्व प्रचारक अयप्पन की बम फोड़कर हत्या कर दी थी। मार्च 1984 में एर्नाकुलम के ही त्रिप्पुनितुरा में उन्नीकृष्णन को मार दिया गया था।
1987 में तिरुअनंतपुरम जिले के मुरिक्कुमपुझा में एक ही घटना में तीन स्वयंसेवक मारे गए थे। सितंबर 1996 में अलप्पुझा जिले के मन्नार के देवासम बोर्ड कॉलेज के तीन अभाविप कार्यकर्ताओं अनु, सजित और किम करुण को पम्पा नदी में डुबोकर मार डाला गया था। अक्तूबर 1996 में कोट्टायम जिले के चंगनासेरी में अभाविप सदस्य बिंबी की हत्या कर दी गई थी।
हत्या की राजनीति और सत्ता समीकरण
सत्ता में रहते हुए माकपा ने अपना विषैला फन उठाए रखा था। जाहिर है, इसके बाद जांच प्रक्रिया मजाक बनकर रह जाती है। हालांकि एक ओर वे कांग्रेस की अगुआई वाली यूडीएफ के शासनकाल में भी कत्लेआम जारी रखते हैं, परंतु अगली बार माकपा की सरपरस्ती में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) सत्ता में लौट आता है (केरल में पिछले कई दशकों में ऐसा ही चलन देखा गया है)। इससे उन्हें आपराधिक मामलों को अपने पक्ष में घुमाने का लाभ मिलता रहा है। और यदि किसी जज ने माकपा हत्यारों के खिलाफ उचित निर्णय दिया भी है, तो राज्यसत्ता मीडिया या गली-मोहल्लों से चिल्लाना शुरू कर देती है और उस जज को मौत की धमकियां मिलनी शुरू हो जाती हैं। जयकृष्णन मास्टर के हत्यारों को मौत की सजा सुनाने वाले जज को माकपा की ओर से मौत की धमकियां झेलनी पड़ी थीं। इसके बाद सरकार ने उनको पुलिस सुरक्षा प्रदान की थी।
लोगों का मानना है कि 2014 में संघ कार्यकर्ता मनोज की हत्या में माकपा के कन्नूर जिला सचिव पी. जयराजन का हाथ था। जयराजन की इस मामले में गिरफ्तारी हुई और उन्हें कई हफ्तों तक जेल में रहना पड़ा था। बाद में उनको जमानत मिली; बहाना दिल की बीमारी का लगाया गया था! अब अदालत ने उनसे कन्नूर जिले में न आने को कहा है। लिहाजा, माकपा उनका इस्तेमाल राज्य भर में चुनाव अभियान में करती है।
समता सिर्फ हिंसा में
माकपाई हत्यारों ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं या उसे छोड़ने वालों को भी नहीं बख्शा। वे कांग्रेस, मुस्लिम लीग और यहां तक कि अपने गठबंधन साथी भाकपा के भी कई कार्यकर्ताओं की हत्या कर चुके हैं। इसमें सबसे बड़ा नाम वडागरा के माकपा बागी टी़ पी़ चंद्रशेखरन का रहा है। उनकी 2 मई 2012 को बेहद वीभत्स तरीके से हत्या की गई थी। बाद में अफवाह फैलाई गई थी कि हत्यारे जिस गाड़ी से आए थे, उस पर अरबी में आयतें लिखी हुई थीं। यानी यह बताने का प्रयास किया गया कि गुनहगार इस्लामिक कट्टरपंथी थे। इस हत्या से माकपा खुद बुरी तरह हिल गई थी। उस वक्त केरल विधानसभा में पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री वी़ एस़ अच्युतानंदन ने सार्वजनिक रूप से हत्या की निंदा की और वे मृतक की विधवा को सांत्वना देने पहुंचे थे। मुख्यमंत्री की इस पहल की पार्टी के एक धड़े ने कड़ी आलोचना की, जिनमें उनके धुर विरोधी पिनरई विजयन भी शामिल थे।
संघ के खिलाफ माकपा की हाल की हिंसात्मक कार्रवाई तिरुअनंतपुरम के निकट कट्टईकोनम में हुई थी। वहां संघ प्रचारक अमल कृष्ण पर हमला किया गया था। हमलावरों ने उनके सिर पर लोहे की छड़ से प्रहार किया था, उनके सिर की हड्डियां कई स्थानों से टूट गईं। यह हमला 14 मार्च, 2016 को हुआ। अमल कृष्ण उभरते इंजीनियरिंग स्नातक हैं। हमले के बाद वह कई हफ्तों तक वह वेंटिलेटर पर रहा। लंबे समय बाद वह सामान्य हो सका है।
उपरोक्त सभी घटनाएं संक्षिप्त रूप में बताई गई हैं। स्थानाभाव के कारण कुछ ही नाम दिए जा सके हैं। केरल में अभी तक 200 से अधिक संघकर्मियों को जान से हाथ धोना पड़ा है, जिनमें से अधिकांश माकपा अपराधियों के हमले का शिकार हुए हैं। केवल कन्नूर जिले में ही 78 स्वयंसेवक माकपाई हमलावरों के शिकार बन चुके हैं। लब्बोलुआब यह कि केरल की शांति भंग होने का कारण माकपा-संघ के बीच संघर्ष नहीं बल्कि संघ कार्यकर्ताओं के खिलाफ माकपा के हमले रहे हैं।
संघ का शांति प्रयास
संघ की ओर से इस हत्या-राजनीति को सुलझाने के लिए नए रास्ते तलाशने की पहल करना मामले का महत्वपूर्ण पक्ष है। इस बारे में संघ ने कई कदम भी उठाए। आइए, संघ की ओर से उठाए गए इन कदमों का आकलन करें। संघ के शांति प्रयासों को किसने बिगाड़ा?
1977 के मध्य में श्री पी़ परमेश्वरन ने नई दिल्ली स्थित दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक का कार्यभार संभाला था। उन्होंने 1981 के अंत तक यह जिम्मेदारी निभाई। उन दिनों माकपा की खूनी राजनीति पूरे जोर पर थी। उनके द्वारा की जाने वाली हिंसा का शिकार समूचा केरल था। कन्नूर जिले का तलासेरी तालुका, अलप्पुझा जिले का कुट्टनाडु क्षेत्र और त्रिशूर जिले का तटवर्ती क्षेत्र विशेष तौर पर हिंसा की चपेट में था। निदार्ेष संघ कार्यकर्ताओं के रक्त से इन क्षेत्रों की गलियां लाल हो चुकी थीं। ये हालात 1978 से कायम थे। जाहिर है, शांतिप्रिय संघ नेता इस खूनखराबे का अंत चाहते थे। उन्होंने इस बारे में माकपा नेताओं से संवाद कायम करना चाहा। परमेश्वरन जी ने इस बारे में संघ के केरल प्रांत प्रचारक के़ भास्कर राव से संपर्क साधा। इसी पहल के तहत परमेश्वरन जी ने ई़ एम़ एस़ नम्बूदिरीपाद को पत्र लिखा जो तब माकपा के महासचिव थे और दिल्ली में ही थे। ईएमएस ने उन्हें सकारात्मक जवाब दिया था।
इसके बाद परमेश्वरन जी ने ईएमएस से फोन पर बात की थी। ईएमएस ने केरल के मुख्यमंत्री और पोलित ब्यूरो सदस्य ई़ के. नयनार से बात करने का प्रस्ताव रखा जो उन दिनों दिल्ली आने वाले थे। इस बारे में ईएमएस की नीति सरल थी: मामला केरल से जुड़ा था और नयनार केरल के मुख्यमंत्री थे। इसी नीति के आधार पर दिल्ली में संघ-नयनार की बैठक का दिन व समय तय हुआ। श्री रंगाहरि और केरल के तत्कालीन प्रांत प्रचारक के़ भास्कर राव भी दिल्ली पहुंचे। परंतु उस दिन दिल्ली में कुछ अप्रत्याशित घटनाएं घट गई थीं।
केरल के अभाविप कार्यकर्ता वी़ मुरलीधरन (भाजपा के पूर्व राज्य प्रमुख) को तलास्सेरी में माकपा-संघ दंगों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था। परंतु दिल्ली स्थित अभाविप केंद्र को सूचना मिली कि केरल राज्य के अभाविप संयोजक सचिव और संघ प्रचारक के. जी़ वेणुगोपाल को गिरफ्तार किया गया है। जाहिर है, इससे खासा रोष फैला। अभाविप कार्यकर्ताओं ने केरल हाउस में मुख्यमंत्री का घेराव किया जो घंटों तक चला। दिल्ली पहुंचे परमेश्वरन जी और संघ अधिकारी बैठक पर इससे पड़ने वाले असर से चिंतित थे। परमेश्वरन जी ने नयनार को फोन किया। मुख्यमंत्री का जवाब सकारात्मक था। उन्होंने कहा, ''तो क्या हुआ परमेश्वरन जी? आखिर वे नवयुवक हैं। आप अपने साथियों के साथ आइए, हम बात करेंगे!!''
शुरुआती बातचीत में मुख्यमंत्री नयनार के साथ काबीना सहकर्मी और कांग्रेस (एस) नेता पी़ सी़ चाको (उन दिनों कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता) थे। श्री भास्कर राव, परमेश्वरन जी और श्री रंगाहरि ने संघ का प्रतिनिधित्व किया। नयनार ने मजाकिया अंदाज में 'लड़कों की शैतानी' का जिक्र किया। श्री रंगाहरि के अनुसार नयनार ने कहा कि वह केरल के लड़कों जैसे तेज नहीं थे; वे दिल्ली के लड़कों के बारे में बात करते रहे।
परंतु चाको के तेवर कुछ कड़े थे। उन्होंने कहा कि अभाविप कार्यकर्ता अखबारों में चाकू छुपाकर लाए थे। लेकिन नयनार ने उन्हें रोका। उन्होंने कहा कि कार्यकर्ता कोई हथियार नहीं लाए थे। संघ अधिकारियों को यह आभास हुआ कि माकपा हिंसा के उस अध्याय को समाप्त करने के प्रति संघ के प्रयासों के खिलाफ नहीं थी। लिहाजा, दोनों दलों ने केरल में दूसरे चरण की बातचीत के लिए हामी भरी। रंगाहरि जी ने कहा, नयनार ने अपने चिर-परिचित मजाकिया अंदाज में कहा कि वे केरल पहुंचते ही मीडिया को इस संवाद की जानकारी देंगे। रंगाहरि जी को कोच्चि में अगली बैठक निर्धारित करने की जिम्मेदारी मिली। इस तरह वह दूसरे चरण की बातचीत के संयोजक थे।
कोच्चि पहुंचने पर रंगाहरि जी ने वहां के वरिष्ठ माकपा नेताओं से संपर्क साधा। उन्होंने कहा कि संघ को माकपा के दफ्तर में बैठक करने से कोई एतराज नहीं होगा; परंतु माकपा को इसका यकीन नहीं हुआ—उनके कॉमरेड क्या सोचेंगे! संघ ने केरल राज्य कार्यालय में बैठक करने पर भी अपनी रजामंदी दी। परंतु माकपा नेता इसे भी खतरा ही मान रहे थे। इसके बाद दोनों ओर के नेता कोच्चि के एक भवन में बैठक करने पर राजी हुए। इस तरह एक स्वयंसेवक के घर का चुनाव हुआ, जो एक व्यवसायी थे, इसलिए माकपा भी उनके नाम पर राजी थी।
माकपा की ओर से बैठक में पोलित ब्यूरो सदस्यों पी़ राममूर्ति, गृह मंत्री टी. के़ रामकृष्णन एवं वरिष्ठ नेता एम़ एम़ लॉरेंस ने शिरकत की थी। संघ की ओर से श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी, श्री रंगाहरि एवं वरिष्ठ संघ प्रचारक श्री पी़ माधवन शामिल हुए थे। रंगाहरि जी बताते हैं कि बैठक स्थल पर राममूर्ति के लिए पान का इंतजाम किया गया था। ठेंगड़ी जी संघ नेताओं को राममूर्ति की पान खाने की आदत के बारे में बता चुके थे। चूंकि लॉरेंस और श्री रंगाहरि स्कूली दिनों के मित्र थे, इसलिए दोनों संगठनों के बीच वार्ता को सुगम बनाने के लिए आपसी दोस्ती खासी कारगर साबित हुई थी।
दोनों चरणों में शामिल रहे रंगाहरि जी उस बैठक को याद करते हुए बताते हैं कि दोनों दल हिंसा को लेकरबेहद गंभीर थे। दोपहर के भोजन के समय तक हिंसा रोकने के कई प्रस्ताव सामने रखे गए। दोनों दलों को प्रस्ताव मंजूर थे और इस बात पर एकमत हुआ गया कि यदि हिंसा होती है तो वरिष्ठ नेताओं की बैठक तुरंत बुलाई जाए।
दोपहर के भोजन के बाद की बैठक एर्नाकुलम के सरकारी गेस्ट हाउस में हुई। रंगाहरि जी के अनुसार, बीएमएस नेता आऱ वेणुगोपाल (जो बाद में बीएमएस के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष रहे) गेस्ट हाउस में आए थे, हालांकि वह बैठक का हिस्सा नहीं थे। बैठक के बाद टी. के़ रामकृष्णन ने संघ के प्रचारक तंत्र के बारे में जानने की उत्सुकता दिखाई। टी.के. ने रंगाहरि जी को बताया कि अविभाजित भाकपा में भी पहले वही तरीका था, बाद में उन्होंने विवाहित व्यक्ति को जिम्मेदार पदों पर बिठाने का तरीका अपनाया। टी़ के. संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे और उन्होंने संस्कृत साहित्य पर बात भी की।
परंतु इतिहास साक्षी है कि माकपा ने दोनों दलों के बीच हुई रजामंदी को दरकिनार कर दिया था। रंगाहरिजी के अनुसार, 1984 और 1989 में मल्लपुरम के कोट्टकल में भी दोनों पक्षों के बीच बातचीत हुई थी। उस समय वे केरल के प्रांत प्रचारक थे। आज सदन में पार्टी नेता वी़ एस़ अच्युतानंदन तब बैठक में शामिल हुए थे। टी़ वी़ अनंतन (तत्कालीन प्रांत कार्यवाह) और एस़ सेतुमाधवन (तत्कालीन सह प्रांत प्रचारक) संघ की ओर से आए थे। उस दौरान भी कुछ चीजों पर रजामंदी बनी, लेकिन फिर माकपा अपने कहे से मुकर गई थी।
ऐसा भी पता चला था कि 29 या 30 नवंबर, 1999 को कोच्चि में न्यायमूर्ति वी़ आर. कृष्ण अय्यर के घर पर भी बैठक हुई थी। संघ को बैठक में आमंत्रित नहीं किया गया था! हालांकि, मुख्य संघर्ष संघ (मीडिया के अनुसार भाजपा) और माकपा के बीच था, परंतु बैठक में कांग्रेस, माकपा और भाकपा थीं! वे तलासेरी में शांति स्थापना पर राजी हुए और चाय के लिए उठ गए थे!
दूसरे दिन भारतीय जनता युवा मोर्चा के राज्य उपाध्यक्ष जयकृष्णन मास्टर की उस समय वीभत्स हत्या हुई जब वह बच्चों को पढ़ा रहे थे! न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने हैरानी जाहिर की कि संघ को उनके निवास पर हुई बैठक में शामिल न करने के पीछे किसका दिमाग था। यह रहस्य उन्हें उनके अंतिम दिन तक परेशान करता रहा। उन्होंने इस बारे में कई बार चिंता जाहिर की थी।
हाल में कन्नूर जिले के माकपा नेताओं पर मुस्लिम समाजसेवियों की हत्या का भी आरोप लगा है। कन्नूर में मुस्लिम लीग के अरियिल शकूर को मार दिया गया। उनका गुनाह? माकपा कार्यकर्ताओं द्वारा उस पर वरिष्ठ नेताओं पर हमला करने का आरोप लगाया गया था। एमएमएस के जरिये शकूर की तस्वीर को हत्यारों और षड्यंत्रकर्ताओं से जोड़ कर देखे जाने की खबरें भी आई थीं! एक अन्य मुस्लिम समाजसेवी फैजल को भी मारा गया था। इसका आरोप भी माकपाइयों पर है।
हत्या के तुरंत बाद माकपा ने घटना के पीछे संघ का हाथ होना प्रचारित किया। परंतु, सीबीआई जांच में साफ हुआ कि इसके पीछे दो वरिष्ठ माकपा कार्यकर्ता थे। दोनों मामले दो अलग-अलग अदालतों में चल रहे हैं।
संघ-माकपा के बीच शांति बैठकों पर नजर डालें तो एक बात स्पष्ट हो जाती है : संघ ने बातचीत की शुरुआत की थी। इसलिए अब इस विषय पर बहस करना बेमानी होगा कि केरल में राजनीतिक हिंसा के पीछे किसका हाथ है और किसने उसे रोकने की कड़ी कोशिशें कीं।
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