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क्या इन्हें यह नहीं दिखता?

by
Apr 25, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Apr 2016 12:00:48

रपट 'अखलाक पर रोने वाले 'आशा' पर सो गए (8 फरवरी, 2016)' दिल दहला देती है। प्रदेश में समाजवादी सरकार होने के चलते एक समुदाय के अभियुक्तों पर प्रशासन हरदम नरम रहता है। तमाम मामलों में नामित अभियुक्त समुदाय विशेष से संबंध रखते हैं, इसलिए पुलिस उन पर  कार्रवाई नहीं करती।  खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश सहित पूरे सूबे की कमोबेश यही स्थिति है। हिन्दू महिलाओं पर आए दिन होने वाले अत्याचार प्रदेश का माहौल खराब कर रहे हैं और शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर रहे हैं। प्रदेश के हिन्दुओं को इस प्रकार की घटना पर एकजुट होना होगा क्योंकि राज्य सरकार तो मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर आमादा है।
—संजय प्रताप सिंह, वैशाली (बिहार)

मुख्य धारा से जोड़ने का संकल्प
रपट 'परिवर्तन के वाहक बनेंगे स्कूलों के प्रधानाचार्य (22 फरवरी, 2016)' से एक बात स्पष्ट होती है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान में कुछ लोग अलगाववाद की फसल बो रहे हैं जबकि इन विश्वविद्यालयों से देश को अपेक्षा होती है कि यहां से निकलने वाले विद्यार्थी अपनी शिक्षा का प्रयोग देश के विकास में करेंगे। पर पिछले दिनों जेएनयू में जो दिखा, वह ठीक इसके उलट था। निराशा और उदासी के ऐसे वातावरण में विद्या भारती जैसा संगठन शैक्षणिक और सामाजिक क्षेत्र में परिवर्तन लाने के लिए सतत प्रयासरत है।
     —प्रमोद प्रभाकर वालसंगकर, दिलसुखनगर (आं.प्र.)

आखिर यह क्यों नहीं दिखा?
रपट 'समरसता का संदेश (27 मार्च, 2016)'अच्छी लगी। पिछले दिनों राजस्थान के नागौर में हुई प्रतिनिधि सभा में संघ की ड्रेस बदलने की खबरें मीडिया में छायी रहीं। पर संघ ने इस प्रतिनिधि सभा में कौन-कौन-से प्रमुख मुद्दों पर निर्णय लिए, यह नहीं दिखाया। संघ ने इस बैठक में शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन लाने के लिए संकल्प लिया और दलितों-शोषितों और कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए आह्वान किया। पर ये बातें मीडिया में नदारद दिखीं। आखिर ड्रेस बदलने पर तरह-तरह की बातें करने वाला मीडिया प्रमुख बातों पर ध्यान क्यों नहीं देता?
—हरीशचन्द्र धानुक, बशीरत गंज, लखनऊ (उ.प्र.)

ङ्म    हमारा भारतीय समाज कभी भी जड़ता को स्वीकार नहीं करता। गतिशीलता ही इसका मूल चरित्र है। हजारों वर्षों से अनवरत प्रवाहित हो रही विचारधारा में विकार उत्पन्न होना कोई बड़ी बात नहीं है। अपनी चैतनता व गतिशीलता के कारण समय-समय पर इसका परिमार्जन होता रहा है। चाहे वह अस्पृश्यता हो, रूढि़वादिता या फिर अंध विश्वास महापुरुषों से सभी का समय-समय पर निवारण करके उचित मार्गदर्शन प्रदान किया। प्रतिनिधि सभा में इन सभी बातों पर गहनता से विचार ही नहीं किया बल्कि इनको समाप्त करने का संकल्प लिया गया। संघ का सिर्फ एक ही उद्देश्य है 'न हिन्दू पतितो भवेत।'
-रमेश कुमार मिश्र, अम्बेडकर नगर (उ.प्र.)
खुलकर बोले
साक्षात्कार 'देश-विरोधी बातें सुनकर कोई चुप कैसे रह सकता है? (3 अप्रैल, 2016)' अच्छा लगा। अनुपम खेर जैसे राष्ट्रवादियों          पर देशवासियों को गर्व है। वे अकेले               ऐसे अभिनेता हंै, जो असहिष्णुता और देशविरोधी बयानबाजियों पर खुलकर बोल  रहे हैं। फिल्म जगत के लोगों को उनसे    सीखना चाहिए।
—बी.एल. सचदेवा, आईएनए बाजार ( नई दिल्ली)

आखिर फंस ही गए
काला धन कितना कहां, नहीं पता है ठीक
नयी बात बतला रहा, हमें पनामा लीक।
हमें पनामा लीक, फंसे हैं इसमें नेता
व्यापारी उद्योगपति अफसर अभिनेता।
कह 'प्रशांत' इसकी भी लम्बी जांच चलेगी
जैसे था बोफोर्स, वही गति इसकी होगी॥
—प्रशांत
फलीभूत होता स्वप्न
आदमी से इंसान बनने की प्रक्रिया में शिक्षा एक अहम पहलू है। विद्या भारती इसी पहलू को उभारने में लगा हुआ है। देश के जन-मन में राष्ट्रीयता का भाव जाग्रत करते हुए आज यह संगठन देश के प्रत्येक क्षेत्र में कार्यरत है। देश में उचित शैक्षणिक व्यवस्था के लिए परिषदीय विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय संचालित हैं। देश का भविष्य यहीं से तैयार होकर निकलता है। यहीं से सीखता है और अपने विचारों को मूर्त रूप देता है। जैसा सीखता है, वैसा ही करता है। देश में जिस शैक्षणिक व्यवस्था के लिए परिषदीय विद्यालय और विश्वविद्यालय संचालित किए गए, उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा पद्धति पर आज सवाल खड़े हो रहे हैं? आज ये शिक्षण संस्थान अपने मूल उद्देश्य से भटक गए हैं। देश के राजनीतिक दल विश्वविद्यालयों को शिक्षा के बजाय राजनीति का अखाड़ा बनाने पर तुले हैं। इन शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों से निकलने वाले विद्यार्थियों से अपेक्षा थी कि वे जात-पांत, छुआछूत, ऊंच-नीच और भाषावाद के समाज में फैले नासूर को दूर करके समाज में जागरूकता लाकर इस बिष को और फैलने से रोकेंगे पर ऐसा दिखता तो नहीं है।  इन सब बातों को देखकर हमें अपनी शिक्षा पद्धति पर शक होने लगता है। क्योंकि ये घटनाएं स्पष्ट रूप से बताती हैं कि हमारी जो शैक्षणिक व्यवस्था है, वह ठीक-ठाक नहीं है। विद्या भारती ऐसी ही शिक्षा पद्धति को सुधारने, बच्चों में भारत-भारतीयता का बोध कराने और उन्हें अपनी जड़ों से जोड़े रखने के लिए प्रयासरत है। इस संगठन का प्रयास फलीभूत भी हो रहा है और यहां के शिक्षण संस्थानों से जो भी निकलता है, उसमें अपनी माटी के लिए प्रेम होता है, यह किसी से छिपा नहीं है।
—राम प्रताप सक्सेना, खटीमा (उत्तराखंड)

प्राणपण से जुटे सेवारथी
3 अप्रैल, 2016
आवरण कथा 'सेहत के रखवाले' से स्पष्ट होता है कि देश के दुर्गम अंचलों में प्राणपण से जुटे हजारों आरोग्य मित्रों का योगदान अनूठा है। देश में स्वास्थ्य सेवा की हालत किसी से छिपी नहीं है। अभी भी देश की आधी ग्रामीण आबादी को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पाईं हैं। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं, जहां प्रतिवर्ष हजारों लोग उचित चिकित्सा अभाव के चलते प्राण त्याग देते हैं। ऐसे में देश के विभिन्न इलाकों में विषम परिस्थितियों को सहते हुए आरोग्य मित्र नि:स्वार्थ सेवा करके उम्मीद की किरण जगा रहे हैं।
—छैल बिहारी शर्मा, छाता (उ.प्र.)

ङ्म    स्वास्थ्य सेवा को सुलभ और जरूरतमंदों तक पहुंचाने के लिए सेहत के रखवाले सेवा के सच्चे सारथी बने हुए हैं। एक छोटे से मिशन को लेकर आज शिखर पर पहुंचने वाले इन आरोग्य मित्रों से सब प्रेरणा ले रहे हैं। दूर-दराज के इलाकों में अगर स्वास्थ्य खराब होने पर त्वरित उपचार मिल जाता है, तो यह किसी संजीवनी से कम नहीं होता। इस प्रकार के कार्य संपूर्ण देश को प्रेरणा देते हैं।
—हरिहर सिंह चौहान, इंदौर (म.प्र.)

बांटने की राजनीति
लेख 'कौन नहीं बोलना चाहता जय? (3 अप्रैल, 2016 )' अच्छा लगा। आज देश में भारत माता की जय कहने पर विवाद हो रहा है। कुछ सेकुलर लोग इसके पीछे नित नए तर्क गढ़ते हैं और कुतर्कों के साथ उसे देश के सामने लाते हैं। ऐसे कट्टरपंथी लोगों को शर्म भी नहीं आती। ये लोग भारत माता को धर्म के आईने से देखते हैं और इसे राजनीतिक रंग देने की कोशिश करते रहते हैं। देश के लोगों को समझना चाहिए कि जो लोग भारत माता की जय कहने का विरोध कर रहे हैं, वे देश का भला क्या चाहेंगे? हर जाति, मजहब, मत-पंथ के लिए उसकी जन्मभूमि का दर्जा माता जैसा होता है। फिर इसमें जय बोलने में कैसी समस्या? असल में इन कट्टरपंथी ताकतों का एक ही उद्देश्य है, मुसलमानों को उनकी जड़ों से न जुड़ने देना और उनको समाज से बांटे रखना।
—कजोड़ राम नागर, दक्षिणपुरी (नई दिल्ली)

ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं
लेख 'स्वीकार नहीं संप्रभुता पर सवाल (3 अप्रैल, 2016)' उन लोगों के मुंह पर करारा तमाचा है जो जेएनयू की घटना को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देश को गुमराह करते हैं। इस लेख में तर्कों के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पैरोकारी करने वालों की पोल खोली गई है। जेएनयू में जो हुआ, उसे कोई भी देशभक्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं कह सकता। पूरे देश ने देखा कि किस तरीके से कुछ देशद्रोही तत्वों ने देश को तोड़ने की बातें कीं। उसके बाद भी सेकुलर नेता इनकी पैरोकारी करने में लगे हुए हैं। स्वयं न्यायालय ने इस घटना पर तीखी टिप्पणी की है।
—रेखा सोलंकी, उज्जैन (म.प्र.)

यह असहमति तो नहीं है?
लेख 'वाणी की स्वतंत्रता और राजद्रोह (3,अप्रैल, 2016)' से यह बात सबसे पहले स्पष्ट होती है कि लेखक अभिषेक मनु सिंघवी ने एक कहावत 'गाली के भीतर, चोट के बाहर' की आड़ लेकर बात की है। जहां उन्होंने एक तरफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं निर्धारित करने की वकालत की हैं, वहीं कुछ दिन पहले जेएनयू में हुई घटना पर दोहरा रवैया अपनाया है। पता नहीं, लेखक ने जेएनयू में 9 फरवरी को हुए कार्यक्रम के वीडियो देखे भी हैं या नहीं? कैसे कुछ देशद्रोही तत्वों ने भारत को खंड-खंड करने की बातें कीं। क्या लेखक बताएंगे कि ऐसे देेशद्रोही तत्वों का कुकृत्य असहमति के दायरे में ही आता है?
—राजेश खन्ना, जलालाबाद (उ.प्र.)

ङ्म    असहिष्णुता को लेकर पुरस्कार और सम्मान लौटाने वाले, जेएनयू मामले में हुई कार्रवाई पर अभिव्यक्ति का रोना रो रहे हैं। लेकिन केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की आए दिन होने वाली निर्मम हत्याओं पर अपना मंुह सिल लेते हैं। तब न तो इनका ह्दय द्रव्रित होता है और न ही कम्युनिस्टों की कू्रर और हिंसात्मक प्रवृत्ति पर इन्हें आक्रोश आता है। कांग्रेस या अन्य सेकुलर दलों के नेताओं द्वारा संघ कार्यकर्ता की हत्या पर बोलना तो दूर, दुख भी नहीं जताया जाता। हालांकि ये सभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहुत बड़े पैरोकार बनते दिखाई देते हैं।  
—कृष्ण कुमार कुशवाहा, मुरैना (म.प्र.)

ङ्म    हर छोटी-बड़ी घटना पर मुखर होने वाले सेकुलर दल केरल में होती हिंसा पर कोई आवाज ही नहीं उठा रहे हैं। दरअसल पक्षपात और भेदभाव की मानसिकता में डूबे इन दलों को सत्ता और वोट के सिवाए कुछ नजर नहीं आता। मुस्लिम कट्टरपंथ पर इनके बोलने पर सीमाएं आड़े आ जाती हैं। सेकुलर नेताओं का यह रवैया बेहद शर्मनाक है।
    —मनोहर मंजुल, पिपल्या-बुजुर्ग (म.प्र.)

ङ्म    लेखक ने अभिव्यक्ति की बात करने वालों को करारा जवाब दिया है। पर देश के मीडिया, जो  ऐसे लोगों को हीरो बनाने पर तुला है, इनकी सचाई क्यों नहीं दिखाई देती? या फिर वह जान-बूझकर इस तरह का कार्य करता है?
—अरुण मित्र, रामनगर (दिल्ली)

ङ्म    देश के वामपंथियों ने अपने दुराग्रहों के कारण लंबे अरसे से सदैव भारतीय संस्कृति को नाकारा है। लेकिन अब यह दुराग्रह देश की अस्मिता तक आ पहुंचा है। लोग ये देश को तोड़ने की बात करने वालों की वकालत करने से भी नहीं चूक रहे। आखिर ये अब कितना गिरेंगे?
—हरिकृष्ण निगम, महावीर नगर (मुंबई)

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