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'सृजन-संस्कार मुझे विरासत में मिला'

by
Apr 25, 2016, 12:00 am IST
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दिंनाक: 25 Apr 2016 13:21:34

हिन्दी और डोगरी की जानी-मानी कवयित्री एवं लेखिका पद्मा सचदेव से कौन अपरिचित होगा? जम्मू-कश्मीर के डोगरा परिवार में जन्मी इस ख्यातिलब्ध रचनाकार को स्वाधीनता सेनानी पिता दिवंगत पं. जयदेव डोगरा से राष्ट्रप्रेम के संस्कार व माटी के प्रति अनंत समर्पण का भाव विरासत में मिला है। उनकी रचनाएं चाहे डोगरी की हों या हिन्दी की, दोनों में ही प्रकृति, समाज, मानवीय संवेदनाएं और व्यापक जीवट दिखाई देता है। मात्र 30 वर्ष की आयु में डोगरी रचना के लिए साहित्य अकादमी सम्मान पाने वाली पद्मा सचदेव की कृतियों में केवल सांस्कृतिक वैभव एवं सुरम्भ प्राकृतिक सौन्दर्य ही नहीं वरन् लगभग सात दशकों की संघर्षयात्रा की जीवंत स्मृति भी हैं। अपने समय के ज्वलंत मुद्दों पर बेबाक राय रखने वाली पद्मा सचदेव को डोगरी में प्रकाशित उनकी आत्मकथा 'चित्त चेते' के लिए 2015 के प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान के लिए चुना गया है।  के.के. बिरला फाउंडेशन द्वारा दिए जाने वाले इस पुरस्कार में शॉल, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिह्न और 15 लाख रु. की सम्मान राशि दी जाती है। पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक सूर्य प्रकाश सेमवाल ने लेखिका पद्मा सचदेव से उनकी साहित्यिक यात्रा के साथ विभिन्न सामयिक मुद्दों पर विस्तृत बातचीत की। यहां बातचीत के प्रमुख अंश प्रकाशित किए जा रहे हैं।
 कैसा लग रहा है अपनी प्रिय भाषा में आत्मकथा के लिए साहित्य जगत के इस प्रतिष्ठित सम्मान की प्राप्ति पर? आपकी प्रतिक्रिया क्या है?
रचनाकार फल की आकांक्षा से नहीं लिखता, उसके पाठकों की संख्या बढ़े, समाज में उसके लेखन से लोगों में प्रेरणा जगे, उनमें नई ऊर्जा का संचार हो तभी सृजन सफल माना जाता है लेकिन पुरस्कार व सम्मानों का भी अपना महत्व है। सम्मान तो बहुत मिले लेकिन सच पूछिए तो मुझे अभी भी यकीन नहीं आ रहा है कि सरस्वती सम्मान के लिए मेरा चयन हुआ है। 'चित्त चेते' डोगरी में है। आत्मकथा मेरी 'बूंद बावड़ी' नाम से हिन्दी में भी आई थी 425 पृष्ठ की लेकिन डोगरी में 650 पृष्ठ की लंबी आत्मकथा है जिसमें यदि कायदे से देखें तो पद्मा सचदेव नहीं के बराबर है, उसमें जम्मू-कश्मीर का सांस्कृतिक वैभव, श्रीनगर का सौन्दर्य, शिवालिक की पहाडि़यों में डोगराओं का संघर्ष, गूजर-गूजरियों का रहन-सहन, मुसलमान स्त्रियों की संवेदना, उनका दर्द, उनका परिवेश उनके बच्चे सब कुछ है 'चित्त चेते में'।
 आप एक संस्कारित परिवार में पलीं-बढ़ीं और बचपन से ही आपने बहुत संघर्ष झेले, 16 वर्ष की उम्र में ही आपको एक नया जीवन मिला। बचपन की यादें और असीम संघर्ष… आज इस मोड़ पर कैसा लगता है?
देखिए 17 अप्रैल, 1940 को जम्मू के पुरमंडल गांव में जन्म लेना मेरे लिए सौभाग्य की बात रही। पिता संस्कृत के विद्वान थे और मेरे जन्म से पूर्व से  लाहौर के मीरपुर कॉलेज में प्राध्यापक थे, बाद में 1947 में वे जम्मू आ गए थे। मेरी प्रारंभिक शिक्षा पुरमंडल के विद्यालय में ही हुई। 4-5 वर्ष की आयु में ही पिता के साथ संस्कृत के श्लोक और हिंदी के पद्य-दोहे लोगों को सुनाना मेरी दिनचर्या थी। पिता देशभक्त थे, अंग्रेजों के समय ही उनको फांसी की सजा सुनाई गई थी। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे। 1947 में पिताजी की असामायिक मृत्यु हो गई। मेरी मां भोलीभाली अनन्य सुन्दरी थीं, पिताजी की मृत्यु के समय उनकी आयु 22-23 वर्ष रही होगी। मैं 7 वर्ष की थी और मेरे दो भाइयों में ज्ञानेश्वर 6 वर्ष का और आशुतोष 5 वर्ष का रहा होगा। मां के उस जीवट और स्वाभिमान के साथ जीवन के लिए संघर्ष की ललक को याद करती हूं तो लगता है, पिता से ज्यादा मेरी प्रेरणा और सर्जना की जीवंत स्रोत वही थीं।
  आपको साहित्य सर्जना के लिए बड़े-बड़े सम्मान बहुत कम उम्र में प्राप्त हो गए थे। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने 1969 में ही डोगरी की कवयित्री के रूप में आप पर जो वक्तव्य दिया वह मील का पत्थर साबित हुआ। आपकी साहित्य यात्रा लगभग बाल्यकाल से ही शुरू हो गई थी, इस पर आप क्या कहेंगी।
मौखिक रूप से डोगरी कविता पाठ व गीत गायन मैंने 6-7 वर्ष की आयु में विद्यालय स्तर से ही शुरू कर दिया था। 11-12 वर्ष की उम्र से मैंने लिखना शुरू कर दिया था। 13-14 वर्ष में मुझे कविता पढ़ने के लिए बुलाया जाने लगा था। हफ्ते में 20 रुपए में से पहले 15 और 3-4 दिन बाद 4 रुपए मैं मां को देती थी, खुद मैं केवल अठन्नी खर्च करती थी वह भी कचालु खाने के लिए। अपने गांव देहात की सखी-सहेलियों के साथ मैं डोगरी के पांखा लोकगीतों को गाती रही। डोगरी में कॉलेज के दिनों में एक बड़ा कवि सम्मेलन हुआ जिसमें स्वयं राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री उपस्थित थे। वहां मैंने स्वरचित गीत भी गाया जो अगले दिन उर्दू के स्थानीय अखबार में पूरा छपा। 1959 में जम्मू-कश्मीर अकादमी ऑफ आर्ट, कल्चर एण्ड लैंग्वेज ने मेरा कविता संग्रह छापा। डोगरी भाषा के भारतेंदु हरिश्चंद्र कहे जाने  वाले प्रो. रामनाथ शास्त्री ने इसका संपादन किया। 16 वर्ष की आयु में मैं स्नातक द्वितीय वर्ष में मौत के मुंह से वापस लौटी। पूरे तीन वर्ष मैं श्रीनगर के अस्पताल में भर्ती रही और इस दौर में मैंने जो कुछ भोगा, देखा और जाना, उस अस्पताल के साथ ही वहां गूजरों की दिनचर्या, उनका रहन-सहन, उनकी सोच, मुसलमान स्त्रियों की अपनी सौतन के बारे में क्या राय होती है, ऐसे कई जीवन के रंग-बिंरगे, हंसी, खुशी और गम के अनछुए पहलू मैंने उस कालखण्ड में देखे। इससे पहले बचपन में पिताजी के साथ श्रीनगर में निशात, चश्माशाही, शालीमार जैसे बगीचों का सौंदर्य देखा था। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक झंझावातों को झेला लेकिन परमात्मा ने एक नए संघर्ष का अवसर उपलब्ध करवा दिया और फिर पीछे मुड़कर देखने की नौबत नहीं आई।  

   आपको किन रचनाकारों ने प्रभावित किया? हिन्दी में विशेष रूप से विचारधारा के नाम पर साहित्यकारों में जो गुटबंदी और गिरोहबाजी दिखाई देती है, इस पर आप क्या कहेंगी?
    जम्मू-कश्मीर की भूमि सनातन काल से संस्कृत वांग्मय के रचनाकारों से भरी-पूरी रही है, सृजन का संस्कार मुझे विरासत में मिला था। वे सभी रचनाकार मेरी प्रेरणा के स्रोत हैं। इसके बाद महादेवी वर्मा, शिवानी और अमृता प्रीतम ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की मैं ऋणी हूं जिन्होंने अपनी कीर्ति के शिखर पर मुझ जैसी नई लड़की के लिए यह लिखा, ''पद्मा जी ने डोगरी के लोकगीतों के सिवाय कुछ अपनी कविताएं भी मुझे सुनाई और उन्हें सुनकर मुझे लगा मैं अपनी कलम फेंक दूं। वही अच्छा है क्योंकि जो बात पद्मा कहती हैं वह असली कविता है, हममें से हर कवि उस कविता से दूर, बहुत दूर हो गया है।'' उन्होंने मेरी कविता का अनुवाद भी किया था। यह मेरे लिए बड़ी उपलब्धि थी। लेखन को मैं निजी चीज मानती हूं, उसका सार्वजनिक प्रदर्शन करने की पक्षधर मैं कभी नहीं रही। मैंने उर्दू की शायरी पढ़ी, पूरे-पूरे दीवान याद हैं लेकिन जो बात हिन्दी या डोगरी में है वह कहीं नहीं। विचारधारा के लिए सब स्वतंत्र हैं।
 देश में हाल में कुछ लेखकों और बुद्धिजीवियों द्वारा असहिष्णुता, अभिव्यक्ति का संकट और राष्ट्रवाद पर जो बहस चलाई गई आप इसे क्या मानती हैं?
    यह सब ढकोसला है और मुट्ठीभर लोगों द्वारा अपने हितों और स्वार्थों को बचाए रखने के लिए लोगों को बरगलाने का प्रयास है। आए दिन महिलाओं के साथ  अत्याचार हो रहे हैं, संपत्ति के लिए बच्चे बुजुर्ग माता-पिता की हत्या कर रहे हैं, पिता-पुत्री से दुष्कर्म कर रहा है, ये सब संवेदनशील व्यक्ति को हिला देने वाली घटनाएं हैं। इन्हें रोकने के साथ समाज में प्रेम व समरसता का अभियान चलाया जाता तो यह ज्यादा सार्थक होता।
जेएनयू, एनआईटी और देश के अन्य शिक्षण संस्थानों में हुए देशविरोधी अभियानों को आप कैसे देखती हैं?
    ये सब घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण हैं, बच्चों को पढ़ने दें, उनको भटकाना नहीं चाहिए, उनका भविष्य खराब हो जाएगा। यह देश हम सबका है, यह मातृभूमि हमारी मां है। भारत मां की जय हमारी अपनी मां की जयकार है।
''राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी जी ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। वे स्त्रियों की बहुत इज्जत करते थे और मुझे गर्व है कि मेरे और मेरे पति सुरेन्द्र सिंह जी के प्रति  उनकी आत्मीयता रही।  श्री लालकृष्ण आडवाणी जी,  डॉ. कर्ण सिंह जी महिलाओं का विशेष सम्मान करते हैं। महारानी यशोराज्य लक्ष्मी ने हमेशा मुझे प्रोत्साहित किया।  आज जम्मू-कश्मीर में पहली महिला मुख्यमंत्री के बनने से उम्मीद है महिलाओं की स्थिति सुधरेगी।''
    
''राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी जी ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। वे स्त्रियों की बहुत इज्जत करते थे और मुझे गर्व है कि मेरे और मेरे पति सुरेन्द्र सिंह जी के प्रति  उनकी आत्मीयता रही।  श्री लालकृष्ण आडवाणी जी,  डॉ. कर्ण सिंह जी महिलाओं का विशेष सम्मान करते हैं। महारानी यशोराज्य लक्ष्मी ने हमेशा मुझे प्रोत्साहित किया।  आज जम्मू-कश्मीर में पहली महिला मुख्यमंत्री के बनने से उम्मीद है महिलाओं की स्थिति सुधरेगी।''    

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