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यह बहस अब खत्म हो जानी चाहिए कि देश का मुख्यधारा मीडिया निष्पक्ष क्यों नहीं है। मीडिया ऐसा ही है। अगर आप उससे उलझने की कोशिश करेंगे तो वे आपको कहीं का नहीं छोड़ेंगे। हालत यह है कि दिखावे की निष्पक्षता भी अब जरूरी नहीं रही। श्रीनगर के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) में छात्रों की पिटाई का मुद्दा हो या दिल्ली में एक डॉक्टर की उसके ही घर में हत्या। मीडिया का बड़ा तबका खुलकर लाइन लेता है और इसके आधार पर प्रोपोगेंडा करता है, तथ्य चाहे कुछ भी हों। कई बड़े संपादक और पत्रकार सार्वजनिक मंचों पर खुलकर जताते हैं कि केंद्र में एक राष्ट्रवादी सरकार उन्हें बर्दाश्त नहीं है। वे एक वैचारिक-राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसमें उन्हें हर हाल में जीतना है।
श्रीनगर के एनआईटी के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब छात्रों ने वहां देशद्रोही गतिविधियों का विरोध करने की हिम्मत जुटाई। इन छात्रों ने जम्मू-कश्मीर पुलिस की बर्बरता झेली, लेकिन तिरंगे की शान को कम नहीं होने दिया। यह कैसे हुआ? यह समीक्षा तो होती रहेगी, लेकिन मीडिया ने जिस तरह इन बहादुर छात्रों के संघर्ष को ही 'ब्लैकआउट' करने की कोशिश की वह चिंता की बात है। यह वही मीडिया है जिसने कुछ महीने पहले 'भारत की बर्बादी' के नारे लगाने वाले वामपंथी छात्रों को हीरो बना दिया था। उनके लंबे-लंबे भाषण और इंटरव्यू प्रसारित किए गए। यह अलग बात कि ये 'हीरो' खुद ही काठ के उल्लू निकले।
दिल्ली के डॉक्टर पंकज नारंग की हत्या में भी मीडिया ने अपना जाना-पहचाना खेल खेला। ज्यादातर चैैनलों ने पहले खबर को ही दबाने की कोशिश की। जब ऐसा न हो सका तो कहना शुरू कर दिया कि हत्यारों में हिंदू भी हैं। जबकि यह बात पता चल चुकी थी कि कुछ आरोपी फर्जी हिंदू नामों वाले मुसलमान थे। बड़े-बड़े संपादकों ने सोशल मीडिया पर शांति और धार्मिक सद्भाव का संदेश दिया। कुछ चैनलों ने तो इसे मनोवैज्ञानिक समस्या और रोड रेज का मामला बनाने की कोशिश की। जबकि परिवार वाले चीख-चीखकर कहते रहे कि घर में घुसकर हत्या की गई है। घटना के 2-3 दिन बाद ही जब एक खबर आई कि मदरसे के 3 लड़कों को कुछ लोगों ने पीटा है तो इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने इसमें कहानी शामिल कर दी कि लड़कों को इसलिए पीटा गया, क्योंकि उन्होंने 'जय माता की' नहीं कहा। न कोई जांच-पड़ताल और न ही इस बात की परवाह कि इस झूठी खबर से शांति और धार्मिक सद्भाव पर बुरा असर पड़ेगा।
ऐसा लग रहा है मानो न्यूज चैनल किसी संपादकीय नीति पर नहीं, कुछ मुट्ठी भर संपादकों की सनक पर चल रहे हैं। राजदीप सरदेसाई ने सुबह-सुबह ट्वीट किया कि मदरसे के छात्रों की पिटाई की खबर पर कोई हंगामा क्यों नहीं है? देखते ही देखते सभी चैनलों पर यह खबर छा गई। पुलिस बताती रही कि लड़के बार-बार बयान बदल रहे हैं। यह मामला आपसी झगड़े का है, दोनों पक्ष एक साथ क्रिकेट मैच खेल रहे थे और इसी दौरान आपस में झगड़ा हुआ। लेकिन शाम होते-होते चैनलों पर सवाल उठाए जा रहे थे- 'भारत माता की जय पर जंग क्यों?', 'क्या भारत माता की जय न बोलना गुनाह है?' ऐसे स्लग आजतक, एबीपी न्यूज, इंडिया टीवी, एनडीटीवी समेत लगभग सभी चैनलों पर चलाए गए।
प्रधानमंत्री ने भी बेल्जियम में भारतीय समुदाय से बातचीत में मुख्यधारा मीडिया की इस नकारात्मकता का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि 'देश में बहुत सारी अच्छी बातें हो रही हैं, लेकिन उसकी खबरें यहां आपको सुनने को नहीं मिलतीं। जब कहीं से आवाज उठे तो समझिए कि कहीं चाभी कसी गई है।' यह टिप्पणी सीधे-सीधे मीडिया पर थी। लेकिन इस पर आत्मविवेचना की बजाय मीडिया ने ऐसे व्यवहार किया, मानो उन्होंने कुछ सुना ही नहीं।
उधर, हैदराबाद विश्वविद्यालय फिर सुलगाने की मीडिया की कोशिशें लगातार जारी हैं। एनडीटीवी इंडिया की एंकर ने इस खबर को पढ़ते हुए कहा कि 'देशभर के विश्वविद्यालयों में तनाव है, झड़पें हो रही हैं।' यहां तक कि छात्रों पर तेलंगाना पुलिस के लाठीचार्ज का आरोप भी केंद्र सरकार पर मढ़ दिया। इसी चैनल ने एक पीडि़त छात्र के हवाले से लिखा कि 'मैं दलित हूं, वो मुझे मार देंगे'। खबर दिखाने का यह तरीका क्या भड़काऊ नहीं है?
राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में 3 लड़कों को कुछ लोगों ने बाइक चोरी के आरोप में बर्बर तरीके से पीटा। दिल्ली के लगभग सभी अखबारों और चैनलों ने खबर दी कि 'राजस्थान में 3 दलितों पर अत्याचार हुआ' जबकि सच्चाई यह थी कि पीडि़त और आरोपी सभी एक ही समुदाय के थे। बड़ा प्रश्न यह है कि अपराध की ऐसी घटनाओं में भी जाति और धर्म का कोण निकालकर मीडिया क्या करना चाह रही है?
देश में सेकुलरवाद के नाम पर चल रहे कट्टरपंथी खेल का नतीजा रहा कि अभिनेता रितिक रोशन को पोप का जिक्र करने भर से माफी मांगने पर मजबूर कर दिया गया। कुछ अंग्रेजी चैनलों ने रितिक रोशन के बयान को 'आपत्तिजनक' भी करार दिया। ये वही चैनल हैं जो हिंदू धर्म के प्रतीकों के लिए अपशब्द बोलने को 'लिबरल' होना मानते हैं। लेकिन वेे दिन लद गए जब ऐसे पाखंड को लोग समझ नहीं पाते थे। ल्ल
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