भारत और विज्ञान विलक्षण विरासत
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भारत और विज्ञान विलक्षण विरासत

by
Mar 14, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Mar 2016 12:19:02

 

विजय भटकर
जगदीश चंद्र बसु, सत्येंद्र नाथ बसु, श्रीनिवास रामानुजन, सी़ वी़ रमन…असाधारण वैज्ञानिकों की कड़ी इन नामों से पहले भी थी और बाद में भी है। भारतीय विज्ञान दुनिया को जोड़ता है, एक रूप में देखता है। यहां ज्ञान एवं अनुभव बांटने, परिणामों व तर्क आदि की कसौटियों की समृद्घ परंपरा रही है। आज क्वांटम मेकेनिक्स की शुरुआत के बाद दुनिया को पदार्थ की चेतना और उसके ब्रह्मांड के साथ संबंधों की वह कड़ी मिली है जो उसे भारतीय भाववादी सिद्धांत से जोड़ती है। यानी यह भारतीय ज्ञान परंपरा को सहेजने और इसका तकनीकी से तालमेल कराने का दौर है
हम अक्सर विज्ञान जगत में भारत के योगदान से जुड़ी बहसें सुनते हैं और देखते हैं कि लोग मुद्दे को समझे बिना ही उस पर टिप्पणियां करनी शुरू कर देते हैं। विज्ञान की सभी धाराओं की जड़ें इतिहास में गहरी जमी हैं, जिन्हें जाने बिना हम विज्ञान की किसी शाखा को नहीं समझ सकते। उदाहरणार्थ, जब हम सूचना-प्रौद्योगिकी में भारतीय उपलब्धियों की बात करते हैं, तो ऐसा कोई भी विकास तभी संभव होता है जब उससे जुड़ी दूरदृष्टि मौजूद होती है। इसलिए उस दूरदृष्टि को समझे बिना आईटी क्षेत्र में भारत की सफलता को समझना कठिन है।
राजीव गांधी भारत में कंप्यूटर लाए और अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे आर्थिक जगत से जोड़ने संबंधी दूरदृष्टि उपलब्ध कराई थी। चूंकि मैं उस प्रक्रिया का हिस्सा रहा था, ऐसे में मैं कह सकता हूं कि यदि आर्थिक एवं आईटी क्षेत्र से जुड़ी परिकल्पनाओं की स्पष्ट रूपरेखा तैयार न होती तो हम उनका मौजूदा स्वरूप न देख पाते। लेकिन यह विरासत इससे भी बड़ी है। परमाणु ऊर्जा आयोग, अंतरिक्ष कार्यक्रम, इलेक्ट्रॉनिक क्रांति आदि जैसी शुरुआतों की नींव आईटी की शुरुआत से भी कहीं पहले रखी गई थी। उनकी ऐतिहासिक यात्रा और परिकल्पना को समझे बिना हम स्वातंत्र्योत्तर भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की यात्रा को नहीं समझ सकते। विक्रम साराभाई से लेकर मंगलयान तक यह एक लंबी परंपरा है।
भविष्य की तैयारी के लिए इतिहास से सबक लेने जरूरी हैं, जिन्हें हम अब तक नजरअंदाज करते रहे हैं। खासकर तब जबकि हम देश के जनजीवन को प्रत्येक क्षेत्र में आगे ले जाने को प्रतिबद्ध हों, हमें अतीत के अनुभवों से सीख लेनी होगी। आईटी में हमने ऐसा ही किया था। भारत में आईटी परिदृश्य को विकसित करने के लिए हमने पहले अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि का अध्ययन किया था, इसके बाद आईटी क्षेत्र पर काम किया। अफसोस यह है कि हम खुद अपनी उन उपलब्धियों से अनजान हैं जिन्हें सबसे आगे रखा जाना चाहिए। हम में से अधिकांश के लिए विज्ञान पश्चिमी यूरोप की देन है, जो सच नहीं है। इस विषय में हमारा अपना स्वर्णिम इतिहास रहा है। वैदिक काल से आज तक हमने बड़े योगदान दिए हैं। गत वर्ष भारतीय विज्ञान कांग्रेस में जब मैं फील्ड्स पुरस्कार (जिसे गणित का नोबेल पुरस्कार भी कहा जाता है) विजेता गणितज्ञ डॉ़ मंजुल भार्गव से मिला तो उन्होंने मुझे बताया कैसे मेरे पितामह द्वारा लिखित संस्कृत अध्यायों से उन्हें गणित पढ़ने का सर्वथा नया दृष्टिकोण मिला था। उन्होंने साफ कहा कि आर्यभट्ट एवं भास्कराचार्य की लीलावती पढ़े बिना उनका गणितीय अध्ययन अधूरा रहता। उन्होंने इन ग्रंथों को स्कूलों से लेकर उच्चशिक्षा संस्थानों तक पढ़ाए जाने की बात की थी।
इसलिए हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि विज्ञान केवल प्रकृति को उसके यथार्थरूप में समझने का जरिया है। इस स्तर तक भारतीय एवं पश्चिमी सोच समान है। भारतीय दृष्टिकोण विज्ञान को उसके आधारभूत परिदृश्य में देखता है जबकि पश्चिमी दृष्टिकोण विखंडित है, यही दोनों के बीच बुनियादी अंतर है। पश्चिमी विज्ञान का पूरा ध्यान मानव बनाम प्रकृति या वस्तु बनाम पदार्थ पर है, वहीं हमारे लिए यह परिदृश्य व्यक्ति से ब्रह्मांड तक का समग्र रूप में है। सौभाग्यवश अब आधुनिक विज्ञान में शोध के बाद क्वांटम मेकेनिक्स इसी समग्ररूपी दृष्टिकोण को अपना रही है। विज्ञान ने इस एकरूपता को अपनाने पर मजबूर कर दिया है।
पश्चिम की प्राचीन वैज्ञानिक सोच के अनुसार, विज्ञान बाहरी सच्चाई को जानने का जरिया है, जो कि वस्तुगत होती है, और व्यक्ति उसे समझने का प्रयास करता है। लेकिन सच यह है कि बिना वस्तु के चैतन्य तत्व को समझे और ब्रह्मांड के साथ उसके संबंध को जाने बिना, उससे जुड़ा संपूर्ण सच नहीं समझा जा सकता। भारतीय चिंतन में इस तथ्य पर शुरू से ही जोर दिया गया। अब पश्चिमी वैज्ञानिकों ने भी माना है कि भारतीय भाववादी सिद्धांत को जाने बिना चेतना का आकलन नहीं हो सकता। अफसोस, जब तक पश्चिमी विज्ञानी न बताएं, हम अपने योगदान को भी स्वीकार नहीं करते।
विज्ञान के क्षेत्र में सबसे बड़ी भारतीय देन उन उपकरणों के रूप में रही जिन्हें प्रमाण (साक्ष्य) कहा जाता है। प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय चिंतकों ने ज्ञान और सत्य को समझने के लिए छह प्रमाणों को स्पष्ट किया था- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थपती, अनुपलब्धि एवं शब्द। इन सभी उपकरणों को भारतीय दर्शन की विभिन्न शाखाओं ने नियमबद्धता, संपूर्णता, त्रुटि संबंधी संभावना एवं विश्वास जैसी श्रेणियों में रखा है। अब इन उपकरणों या विधियों को आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षण पद्धति के तौर पर पहचान मिली है।
प्राचीन काल से ही हमने गणित से लेकर धातु विज्ञान में योगदान दिया है। हमने ज्यामिति, सिविल इंजीनियरिंग, शहरी विकास आदि क्षेत्रों में भी बड़े योगदान दिए जो कि मोहनजोदड़ो और सरस्वती सभ्यता में अनोखे रूप में दिखते हैं। तक्षशिला एवं नालंदा जैसे शिक्षण संस्थान भी विज्ञान आधारित ही थे। परंतु मेरा मानना है कि असली योगदान दार्शनिक स्तर पर रहा। भारतीय मनीषियों ने सत्य को भौतिक, जैविक, मनोवैज्ञानिक, पारिस्थितिक एवं ब्रह्मांडीय स्तर पर देखा था। हमने पंच महाभूत (पांचों तत्व) से सबको जोड़ा। यह भारत की सबसे बड़ी देन है। इसी के आधार पर हम अपने मूल विचारों पर विमर्श करते हैं जिन्होंने हमारी दार्शनिक व विज्ञान धारा को समृद्ध किया। साथ ही, हमें यह भी समझना होगा कि प्राचीन भारतीय व पश्चिमी परंपराएं एक-दूसरे की विरोधी न होकर           पूरक हैं।

दुनिया भर में ऐसे कई विचारक हैं जो आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों का सेहरा भारत के सिर बांधते हैं। परंतु हम अपनी इस राष्ट्रीय शक्ति को अपने अज्ञान के कारण पहचान नहीं पाते। दरअसल, कई वैज्ञानिकों की शैक्षणिक पृष्ठभूमि संस्कृत की नहीं रही। मैं खुद संस्कृत की ओर विज्ञान-अध्ययन के बाद मुड़ा, जिसका मुझे आज तक अफसोस है। जब आप जीवन से जुड़े गहरे प्रश्नों की ओर मुड़ते हैं, जब बड़े वैज्ञानिक प्रश्नों की पड़ताल शुरू करते हैं तो संस्कृत की ओर जाए बिना कोई अन्य विकल्प नहीं रहता। जब मैं कीबोर्ड को ध्वनि सिद्धांतों के अनुरूप बनाने पर काम कर रहा था, तो इस संबंध में पाणिनि के व्याकरण के अध्ययन के सिवाय चारा नहीं रहा। इसके बाद मैंने संस्कृत की जड़ों को समझना शुरू किया। समस्या यह है कि हम अपनी ज्ञानधारा को वैज्ञानिक विधि से सहेजने में असफल रहे हैं। इसलिए, अधिकांश लोग भारतीय समझ को मिथक कहकर नकार देते हैं। बेशक कई कडि़यां बाहरी आक्रमणों के कारण भी लुप्त हुईं, लेकिन अब हमें टूटे-धागे  जोड़कर आधुनिक विज्ञान के साथ नए सेतु बनाने ही होंगे। अच्छी बात यह है कि विज्ञान के नए शोध भारतीय एवं पश्चिमी विधियों को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। सत्य को जानने के लिए कभी पश्चिमी शोधकर्ता स्मृति, शरीर और दिमाग पर निर्भर रहते थे, लेकिन क्वांटम मेकेनिक्स आने के बाद उन्होंने चेतना पर बात शुरू कर दी है जिसे उन्हें भारतीय सोच के साथ जोड़ना पड़ा।
भाषा विज्ञान में भी विलियम जोन्स ने भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया और बताया कि संस्कृत सबसे वैज्ञानिक भाषा है और यह अधिकांश भाषाओं की जननी है। अब कीबोर्ड को भाषा के अनुसार ढालते हुए भाषा की ध्वन्यात्मक प्रकृति और पाणिनि के व्याकरण को हम समझ पाते हैं। नासा जैसे संस्थान में पाणिनि की अष्टाध्यायी का अध्ययन हमारे यहां से कहीं अधिक हो रहा है। कंप्यूटरी भाषाएं सामान्य प्रोसेसिंग करती हैं जबकि मानवीय भाषाएं अर्थपूर्ण एवं वैज्ञानिक विचार सामने रखती हैं। रिक ब्रिग्स जैसे वैज्ञानिक, जो कंप्यूटरों के लिए एक सामान्य भाषा विकसित करना चाहते थे, को अनुभव हुआ कि इस काम के लिए संस्कृत सबसे कारगर रहेगी। उनके अनुसार, 'हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय मनीषियों की महान उपलब्धियों में से एक शून्य की खोज भी थी और पश्चिम द्वारा उसकी पुन: खोज से हजार वर्ष पहले बाइनरी अंक प्रणाली भी उन्होंने खोजी थी। भाषा संबंधी उनके आकलन से प्राकृतिक एवं कृत्रिम बुद्धि के बीच के मानवीय विभेद संशय के दायरे में आए। बहुत संभव है कि कृत्रिम बुद्धि पर शोध के साथ भाषा की प्राकृतिक समझ और मशीन से किए जाने वाले अनुवाद की समस्या सुलझ जाए।'यानी आज ऐसे लोगों की जरूरत है जो संस्कृत और कंप्यूटर दोनों की जानकारी रखते हों। चिन्ह बनाना और अर्थ निकालना इन दोनों प्रक्रियाओं को मिलाना जरूरी है। हमें जानना होगा कि हम सभ्यता का स्रोत रहे हैं और हमारे यहां विज्ञान की महान परंपरा थी ।
विज्ञान के इन आयामों को समझना और उनकी खोज के आधार पर ही हमने 'मल्टीवर्सिटी' का प्रयोग किया, जो समेकित शिक्षा पर आधारित था। मल्टीवर्सिटी विज्ञान, आध्यात्मिकता एवं संस्कृति के सम्मिश्रित ज्ञान को उसके चाहने वालों तक पहुंचाने में प्रयासरत है। मल्टीवर्सिटी शैक्षणिक प्रणाली की बुनियाद उपनिषदों, भगवद्गीता एवं ब्राह्मण सूत्रों के त्रिदर्शन पर आधारित है जिसकी मदद से परम सत्य की खोज और उसके संबंध में समझ विकसित की जाती है। यही शिक्षा का भी मूल उद्देश्य होता है। इसका लक्ष्य है नई पीढ़ी के विचारकों एवं दार्शनिकों, वैज्ञानिकों व इंजीनियरों, कलाकारों व वास्तुकारों, चिकित्साविदों व डॉक्टरों, अर्थशास्त्रियों व व्यवसायियों, मैनेजरों व नेताओं को
तैयार करना जो उभरते वैश्विक समाज के विविध रंगों के बीच 'एकता' के तत्व की खोज कर सकें। स्वदेशी विज्ञान आंदोलन जैसे अभियान इस मुद्दे की परख कर रहे हैं। 'विज्ञान भारती' जैसी संस्थाएं छात्रों को इस पर आधारित अध्ययन सामग्री देने के साथ-साथ प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित कर रही हैं। यह भारत में ही नहीं बल्कि बाहर भी बेहद लोकप्रिय प्रयोग हुआ है। ज्ञान एवं उससे जुड़े अनुभव बांटने, परिणामों व तर्क आदि से जुड़े कई उपकरणों की समृद्ध परंपरा हमारे यहां रही है। इन सभी उपकरणों की व्यवस्थित खोज और उन्हें तकनीकी विकास के लिए एकमेव करने का काम किया जाना शेष है। जगदीश चंद्र बसु, सत्येंद्र नाथ बसु, श्रीनिवास रामानुजन, सी़ वी़ रमण आदि के असाधारण वैज्ञानिक कार्य इसी जमीन पर फलीभूत हुए थे। अत: हमें उनके पदचिन्हों पर चलते हुए देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए उसके वैज्ञानिकी गौरव को पुनरुज्जीवित करना होगा।
(डॉ़ विजय भाटकर देश के जाने-माने वैज्ञानिक एवं आईटी प्रध्यापक हैं। उनकी सबसे बड़ी पहचान देश के पहले सुपरकंप्यूटर परम के निर्माता और देश में सुपरकंप्यूटिंग की शुरुआत से जुड़े सी-डेक के संस्थापक कार्यकारी निदेशक के तौर पर है।)

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