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दुनियाभर में भारतीय मूल के लोग हर क्षेत्र में बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे हैं। विदेशों में भारतीयों को इतना अधिक स्वीकारा और माना जाता है कि पाकिस्तान और बंगलादेश तक के लोग खुद को भारत का बता देते हैं। लेकिन, हमारे अपने देश के अंदर हालात बहुत अलग हैं। गरीबी का स्तर ऊंचा है जबकि भारत में मौजूद असीम कौशल को देखते हुए, स्टार्ट अप कारोबार में कामयाबी की दर जितनी होनी चाहिए उससे कहीं नीची है। इसकी वजह है शासन का औपनिवेशिक तंत्र, जो आज करीब सात दशक बाद भी राज्य और जनता के बीच दूरी बनाए हुए है। यह खाई प्रगति की रफ्तार में आड़े आती रही है। 16 मई 2014 को जब यह घोषणा हुई कि नरेन्द्र मोदी नीत भाजपा ने लोकसभा में बहुमत हासिल कर लिया है, तब उम्मीद की गई थी कि चलो, अब 19 वीं सदी के शासकीय ढरार् और प्रक्रियाओं की जगह 21वीं सदी की जरूरतों के मुताबिक काम करने वाली व्यवस्था आएगी।
मुगलों ने (और ब्रिटिश ने तो और ज्यादा) भारत के लोगों को अपना दिमाग इस्तेमाल करने से रोक दिया था। ऐसे प्रशासनिक ढांचे खड़े किए गए जिन्होंने निर्णय लेने के रास्ते में कई अड़चनें ही पैदा कीं, छोटे से छोटे मामले में भी बड़े अफसर की रजामंदी लेना जरूरी बना दिया गया। दुर्भाग्य से, 15 अगस्त 1947 को भारत के आजाद होने के बाद भी, अफसर और नेता, दोनों ने मिलकर औपनिवेशिक ढांचा बनाए रखा, सिर्फ इसलिए कि जनता पर उनकी थानेदारी बनी रहे और इस तरह घूस का रास्ता खुला रहे। 1950 के दशक से ही, खासकर गांधी जी के गुजर जाने, और उसके बाद जल्दी ही सरदार पटेल को मंत्रिमंडल से हटा देने के बाद, भारत में नेहरू की एकछत्र मनमानी चली जो हर पांच साल बाद फिर-फिर चुनकर आती रही। उनको वही जनता चुनती रही जो आजाद भारत के नागरिक होने का सौभाग्य मिलने पर उनको सिर-माथे बिठाए थी। स्कूलों में बच्चों को पढ़ाया गया (और आज भी पढ़ाया जाता है) कि आजादी कोई हक नहीं है, जिसे गांधी जी के शब्दों में 'लाखों भोंदुओं' ने पाया था, बल्कि एक तोहफा है जिसे देश की तरफ से मुट्ठीभर नेताओं ने अर्जित किया था। नतीजतन, लोगों के दिमाग में कहीं गहरे एक असहायता का भाव औपनिवैशिक काल से ही बना रहा, इसमें शासन तंत्र भी शामिल था जिसने लोगों को उनकी जिंदगियों के बारे में फैसला करने का मौका बहुत कम दिया। यह फैसला मुगल-ब्रिटिश काल की परंपरा के अनुरूप ही सरकारी मशीनरी के हाथों में रखा गया। भारत में उच्च शिक्षा से जुड़ी नौकरशाही इस मामले में सरकार के दूसरे विभागों से अलग नहीं है। हमारे देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नौकरशाही का ध्यान नियंत्रण पर है बजाय इसे सुगम बनाने में एकरूपता पर है बजाय विविधताओं को प्रोत्साहित करने में अपने फरमानों पर जी-हुजूरी करवाने पर है बजाय व्यक्तिगत प्रयास के लिए फलने-फूलने का वातावरण तैयार करने में।
नरेन्द्र मोदी के भारत का प्रधानमंत्री बनने के बाद, आखिरकार देश को ऐसा नेता मिला है जिसने अपनी युवावस्था में गरीबी देखी है और बाकी के ज्यादातर जीवन में कष्टों का अनुभव किया है। उच्च शिक्षा की भूमिका भारत की कामयाबी में अहम है, क्योंकि ज्ञान-अर्थव्यवस्था में मोल होता है कौशल का और ऐसे कौशल के विकास के अवसर का। उच्च संस्थान अपने यहां प्रशिक्षित सैकड़ों दिमागों को गुणवत्तापूर्ण बनाए रखें इसके लिए जरूरी है कि उन्हें स्वायत्तता दी जाए। दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है, और मानव संसाधन विकास मंत्रालय (यूजीसी तथा अन्य एजेंसियों के माध्यम से) द्वारा भारत में पूरे विश्वविद्यालय तंत्र में एक जैसी नीतियां लागू करने के लिहाज देश बहुत विशाल है। इसके बजाय, विश्वविद्यालयों (केन्द्रीय संस्थानों सहित) को शैक्षिक स्तर की उच्चता बनाए रखने के लिए अपनी खुद की प्रक्रियाएं और पाठ्यक्रम बनाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। मंत्रालय को प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने की जरूरत है। गुणवत्ता बोर्ड स्थापित किए जाने चाहिए, कुछ सरकार के द्वारा, कुछ निजी क्षेत्र द्वारा। इनको चयनित विश्वविद्यालयों को उनके पाठ्यक्रमों और शिक्षण की गुणवत्ता के आधार पर ग्रेड देने चाहिए। हर विश्वविद्यालय अपनी खुद की परीक्षाएं आयोजित करे। समय के साथ यह साफ हो जाएगा कि कौन से उच्च गुणवत्ता वाले संस्थान हैं ताकि उनको कम गुणवत्ता वालों से अलग किया जा सके। प्रधानमंत्री मोदी की इच्छा भारत को पूरी तरह डिजिटल बनाने की है, इसे तेजी से लागू किया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा तंत्र को मंत्रालय-यूजीसी के खांचों से इस तरह आजाद करना जोखिमभरा प्रयोग लग सकता है, मगर सचाई यह है कि भारतवासियों की अच्छी समझ आधिकारिक नीति की सबसे अच्छी बुनियाद है। एक और क्षेत्र, जिसमें सरकारी मशीनरी का लोगों में भरोसा जगाया जा सकता है, वह है सरकारी दस्तावेजों से गोपनीयता हटाना। अधिकांश दस्तावेज तो फौरन जनता के सामने लाने चाहिए जबकि कुछ को 25 साल के अंतराल के बाद लाया जा सकता है।
फिलहाल विश्वविद्यालय व्यवस्था जिस औपनिवेशिक और केन्द्रीकृत तरीके से चल रही है उसे 21वीं सदी के निजी संस्थानों को आजादी देने वाले मॉडल से बदलने पर तालमेल बैठाने में कुछ समय लगेगा। लेकिन, यह बदलाव की कीमत है, जिसे चुकाना ही पडे़गा। लेकिन यह जरूर है कि मंत्रालय और यूजीसी जैसी कुछ एजेंसियों द्वारा अपनायी जा रही वर्तमान व्यवस्था उच्च शिक्षा में विश्व स्तरीय गुणवत्ता या इस तरह के पाठ्यक्रमों को सुनिश्चित करने में नाकाम रही है जो आज की दुनिया के साथ मेल खाते हों, न कि शैक्षणिक नौकरशाही द्वारा कल्पित दुनिया के साथ।
दूसरे, केन्द्रीय विश्वविद्यालयों (आईआईटी और आईआईएम आदि भी) को 'हायब्रिड मॉडल' अपनाना चाहिए, जिसमें 25 फीसदी छात्र दूसरे रास्ते से दाखिल किए जाते हैं और पूरी फीस भरते हैं, जबकि 75 फीसदी उससे कहीं कम (सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ों के मामले में) या शून्य फीस भरते हैं। इस तरीके से उगाहा गया पैसा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बढ़ती लागत की पूर्ति में मदद करता है। इसके साथ ही, निजी विश्वविद्यालयों से उनकी 25 फीसदी सीटें गरीब और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित करानी चाहिए। इनकी फीस कहीं कम होनी चाहिए। विश्वविद्यालय को ऐसे दाखिल आधे छात्रों के लिए स्कॉलरशिप का भार उठाना चाहिए जबकि बाकियों की फीस और तमाम खर्च सरकार द्वारा वहन करना चाहिए। इसके बाद, भारत में उच्च शिक्षा पर खर्च हुई आय में से आधी आयकर से माफ कर देनी चाहिए। विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने की अनुमति दे दी जाए, बशर्ते उनकी डिग्रियों को घरेलू विश्वविद्यालयों की डिग्रियों के बराबर माना जाए। भारत में उच्च शिक्षा तंत्र देश में सरकारी काम-काज के एक संपूर्ण ढांचे का हिस्सा है, ऐसा ढांचा जो आज भी औपनिवेशिक बोझ से लदा हुआ है। ऐसी आवाजें जरूर उठेंगी जो भारत में उच्च शिक्षा संस्थानों को विचार और काम करने की आजादी की खिलाफत करेंगी।
दरअसल ऐसे लोगों को भारतीयों की काबिलियत में भरोसा नहीं है और खुद को उसी तरह नकारते हैं जैसे पूर्व में औपनिवेशिक ताकतों ने किया था। इस क्षेत्र में सही चाल में आने में कुछ साल लगेंगे पर ऐसी जरूरी प्रक्रिया का अधिकांश काम ज्यादा से ज्यादा साल-दो साल में पूरा हो जाएगा। भारत में उच्च शिक्षा के पंछी को उन्मुक्तता से उड़ने की आजादी देनी होगी बजाय इसे उन सरकारी नीतियों के पिंजरे में कैद रखने के जिनकी जड़ें औपनिवेशिक काल में हैं और जो भारत के नागरिकों की असाधारण बौद्धिक शक्ति को अनदेखा करती हैं।
माधव दास नालापाट (लेखक मणिपाल विश्वविद्यालय में भूराजनीति विभाग के निदेशक हैं)
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