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60 वर्ष वर्ष पाञ्चजन्य के पन्नों सेभारत के उत्थानार्थ गोहत्या निरोध आवश्यकत्

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Feb 22, 2016, 12:00 am IST
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दिंनाक: 22 Feb 2016 12:48:37

तृतीय गोहत्या निरोध सम्मेलन

झूसी। ''हम पूछते हैं, सरकार की धर्म-निरपेक्षता हिन्दुओं के ही लिए है या और लोगों के लिए भी। वह दिल्ली की जुमामस्जिद के जीर्णोद्धार में लाखों रुपए व्यय कर सकती है, ताजमहल की चिंता कर सकती है, किंतु हिंदुओं की प्रत्यक्ष जीवित देव जो गो है उसके प्रति उसके मन में कोई सम्मान नहीं।'' ये शब्द अ.भा. गोहत्या निरोध समिति के अध्यक्ष संत प्रभुदत्त जी ब्रह्मचारी ने तृतीय गोहत्या निरोध सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए कहे।

सम्मेलन का उद्घाटन प्रयाग विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के आचार्य श्री क्षेत्रचंद्र जी चट्टोपाध्याय ने किया तथा स्वागताध्यक्ष का पद राजनीति विभाग के अध्यक्ष डॉ. इश्वरी प्रसाद जी ने सुशोभित किया। सम्मेलन में अनेक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित हुए।

श्री ब्रह्मचारीजी ने अपने भाषण में कहा, ''गोरक्षा का आंदोलन सनातन है। वेद की आज्ञा है, जो तुम्हारी गो की, अश्व की और युवा पुरुष की हत्या कर दे उसे तुम शीशे की गोली से मार डालो।' इससे बड़ा आंदोलन और क्या होगा? मुसलमानों ने गो संबंधी हमारी मान्यता पर आघात किया। उन्होंने जैसे हमारे मंदिर तोड़े, मूर्तियां खंडित कीं, धार्मिक पुस्तकें जलाईं वैसे ही हमारी परंपरा को मिटाने को गोहत्या भी आरंभ की, किंतु हमने उनके सम्मुख कभी सिर नहीं झुकाया। हम प्रजा होकर, पराधीन रह कर राजधर्म से भिन्न धर्म मानते हुए भी गोरक्षा की अपनी मांग पर अड़े रहे। और मुसलमान बादशाहों से गोरक्षा कराके ही रहे। सन् 1857 का गदर भी गो के प्रश्न पर ही हुआ। सन् 57 के पश्चात तो गांव-गांव नगर-नगर में गो के प्रश्न को लेकर दंगे हुए। गो के महत्व की पुराणों में अनेक कथाएं हैं।

अर्जुन ने गो की रक्षा के लिए ही 14 वर्ष का वनवास स्वेच्छा से स्वीकार किया, गो की रक्षा में कितने ही राजाओं ने प्राणों की आहुतियां दीं।

 

अविलम्ब राष्ट्रीय आवश्यकता

एकात्मक शासन-विधान

-श्री मेहरचन्द महाजन-

(भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय)

एक संस्कृति : एक परंपरा

यद्यपि भारत राजनीतिक दृष्टि से कभी भी एक सत्ता के अधीन नहीं रहा है तथापि सांस्कृतिक दृष्टि से वह सदैव एक संगठित राष्ट्र रहा है और हिमालय से कन्याकुमारी, कश्मीर से बंगाल तथा असम तक उसकी एक संस्कृति व एक परंपरा रही है। भारत में निवास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए संस्कृत विरासत स्वरूप प्राप्त हुई है। दक्षिण में वास करने वाले ब्राह्मणों ने तथा गंगा-यमुना के मैदानों और उत्तराखंड में विभिन्न आश्रमों में वास करने वाले ऋषियों ने उसकी पवित्रता को अक्षुण्ण बनाये रखा है। यही एकमात्र साधन था जिसके सहारे विद्वान पुरुष एक दूसरे से ज्ञान को आदान-प्रदान किया करते थे। विविध धार्मिक समारोहों के अवसर पर तीर्थों में जनसमुदाय एक दूसरे के संपर्क में आया करते थे।

भारत के किसी कोने में ऐसा कोई सुरम्य प्राकृतिक स्थल नहीं है जिसे देश के किसी भी कोने में वास करने वाला भारतीय पवित्र न मानता हो तथा उसकी यात्रा करना अपना परम कर्तव्य न मानता हो। देश में विभिन्न स्थानों पर स्थापित वृहत् विश्वविद्यालय देश को एकसूत्रता में आबद्ध करने के लिए एक बड़ा भारी साधन थे। सामान्यत: सभी देशवासियों की वृत्तियां, रीति-रिवाज, खान-पान एक सा ही था। इस कारण बिना किसी संदेह के स्वीकार किया जा सकता है कि भारत सांस्कृतिक और भाषा की दृष्टि से एक संगठित राष्ट्र था। क्षेत्रीय भाषाएं मातृभाषा की संतानें मात्र थीं।

भारत ने जब स्वाधीनता प्राप्त की तथा अपने संविधान का निर्माण किया और विभिन्न देशी राज्य भारतीय संघ में सम्मिलित हुए अथवा उनका विलय हुआ, उस समय एक ध्वज और एक संविधान की छत्रछाया में संगठित भारत का ढांचा खड़ा हुआ। यह महान सफलता है। आज भारत राजनीतिक रूप में संगठित है, भारतीय एक राष्ट्र हैं तथा सभी भारत के नागरिक हैं।

आदर्श के विपरीत वृत्तियां

मेरी तुच्छ बुद्धि के अनुसार देश में इस आदर्श के विपरीत वृत्तियों का संचार हो रहा है तथा स्वनिर्धारित संविधान के अंतर्गत ही असंगठन के कीटाणु विद्यमान हैं। जिस समय संविधान का निर्माण किया था, शायद उस समय अन्य कोई विकल्प नहीं था। किंतु अब समय आ गया है जब कि उसका पुनर्निर्माण किया जाना चाहिए। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1935 के कानून का निर्माण एक विशेष उद्देश्य से किया था, वह था देश को विभिन्न ऐसी स्वाधीन इकाइयों में विभाजित रखना जो कभी भी एक सूत्र में संगठित न हो सकें और इस प्रकार उन्हें सदैव किसी न किसी सर्वोच्च सत्ता की आवश्यकता अनिवार्य रहे।

दिशाबोध

सभी समस्याओं का समाधान है भारतीयता में

आज हम अभी भी मानव इतिहास के एक संक्रमण-युग में हैं किंतु इससे पहले ही यह स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि मानव जाति को आत्मविनाशकारी अंत से यदि बचाना हो तो इस युग का अध्याय प्रारंभ भले ही पश्चिम से हुआ हो, उसकी समाप्ति भारत से ही होनी होगी। आज के युग में पश्चिमी तंत्र-विज्ञान ने विश्व को भौतिक स्तर पर एकत्र किया है। इस पश्चिमी तंत्र ने न केवल दूरी नाम की वस्तु को समाप्त किया है, अपितु विश्व के देशों को एक-दूसरे के अत्यंत निकट खड़ा करके विध्वंसक शस्त्रों से उनको सुसज्जित भी किया है। एक-दूसरे को जानने और प्रेम करने का तंत्र उन्होंने आज भी नहीं सीखा है। मानव इतिहास के इस संकट के क्षण में मानवता को बचाना हो, तो केवल भारतीय मार्ग से ही वैसा किया जा सकता है।

-पं. दीनदयाल उपाध्याय

(पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन खण्ड-1, पृष्ठ संख्या-103)

 

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