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हजार वर्ष पूर्व प्रशान्त महासागर से लेकर अटलांटिक महासागर तक यानी चीन और रूस के पूर्वी किनारे से लेकर पुर्तगाल और रोम तक संस्कृत भाषा ही बोली जाती थी। विश्व के इस भूभाग में भाषा, परंपरा और बौद्धिकता पर गौर करें तो यह बात समझी जा सकती है। आज उसी बौद्धिकता को फिर से एकजुट करने की आवश्यकता है, यह कहना था यूरोप के पूवार्ेत्तर कोने में स्थित बाल्टिक देशों में 'लातविया' नामक छोटे से देश से आए एक विचारक डॉ. वाल्डिस स्टेन्स का। पुणे में 9-0 फरवरी, 2016 को डेक्कन कालेज में 'इंडो बाल्टिक' परिषद में वे प्रमुख अतिथि थे। संस्कृत, संस्कृति और अटलांटिक से प्रशांत के बीच दो महाद्वीपों में एकरूपता का अध्ययन करने वाले यह विचारक यूरोप में 'बाल्टिक गांधी' के नाम ये मशहूर हैं।
डेक्कन कालेज विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. गो़ बं़ देग्लूरकर ने इस परिषद का उद्घाटन किया। इस परिषद की आयोजक और आईसीसीएस की डॉ़ लता दाणी ने परिषद की भूमिका रखी। अपने भाषण में डॉ. वाल्डिस ने कहा, ''वेदों का निर्माण सरस्वती तथा सिंधु नदियों के आस-पास होने के उल्लेख प्रत्यक्ष वेद में ही हैं। इसके प्रमाण एशिया और यूरोप के कई देशों में मिलते हैं। आज वह प्राचीन ज्ञान उपलब्ध है। लेकिन जिन भाषाओं में उसका संबंध आता है, उस पर अध्ययन होना आवश्यक है। मैं ऐसे देश से आया हूं जहां हमारी सभ्यता, भाषा और हमारे लोकगीतों में वेदों के अर्थ मिलते हैं। इसलिए हमें वेद अपने करीब लगते हैं। यही स्थिति यूरोप और अफ्रीका के कई देशों की भी है।''
उन्होंने कहा, ''दक्षिण पूर्व एशिया में तो रोज रामचरितमानस के दोहों के साथ ही सूयार्ेदय का स्वागत होता है। विश्व की अलग-अलग नदियों के किनारे उपासना करने वाले वेदपुत्रों को एकजुट करने में इतना लंबा वक्त क्यों लगा, इसके बारे में सोचने का हमारे पास समय नहीं है। किसी भी हालत में यूरोपीय साम्राज्यवादी नहीं चाहते थे कि हम आपस में जुड़ें इसलिए उन्होंने 'आर्य' शब्द का गलत अर्थ सामने रखा।''
डॉ. वाल्डिस ने परिषद के दौरान अपने तीन शोधनिबंध भी प्रस्तुत किए जिनमें बाल्टिक देशों के 2,000 संस्कृत शब्द, वहां के देवताओं की वैदिक देवताओं से समानता आदि का समावेश था। इसी परिषद में लातविया के मार्टिन ने भारतीय पंचांग और लात्वियाई कैलेंडर की समानताओं का जिक्र किया। डॉ. रामत्जे ने बताया कि वे गायत्री मंत्र का उच्चरण कैसे करते हैं। वे नियमित अग्निहोत्र की उपासना करते हैं।
यह परिषद कई सुखद स्मृतियां छोड़कर गई। अनेक सत्रों में मुख्यत: डॉ. वाल्डिस स्टेन्स ने संस्कृत, वैदिक वाङ्मय, वेदों का भूगोल, स्वतंत्रता आंदोलन में निष्ठा और त्याग का विशेष वर्णन किया। उनके द्वारा दी गई लातविया की यज्ञ परंपरा और पंचांग परंपरा की जानकारी पहली बार भारतीयों के सामने आ रही थी। भारतीय स्वस्तिक और लातविया में बनाए जाने वाले स्वस्तिक के तुलनात्मक अध्ययन से सभ्यता के संदर्भ में कई विषयों पर रोशनी पड़ी। लातविया से पुणे आए 12 सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल ने आलंदी और सिंहगड़ का भी दौरा किया। आलंदी में आलंदी संस्थान के मुख्य अधिकारी डॉ़ अजित कुलकर्णी ने जब उनका स्वागत किया तब उन सबने 'गायत्री मंत्र' गाकर उसे स्वीकारा। पुणे के कई शोध संस्थानों का दौरा करने के बाद ये लोग लातविया लौटे। वापसी से पहले उन्होंने भारत और लातविया के बीच शोधकार्य के आदान-प्रदान और दोनों देशों में अनुसंधान के लिए साथ काम करने का संकल्प लिया। मोरेश्वर जोशी
वेदों का निर्माण सरस्वती तथा सिंधु नदियों के आस–पास होने के उल्लेख प्रत्यक्ष वेद में ही हैं। इसके प्रमाण एशिया और यूरोप के कई देशों में मिलते हैं। मैं ऐसे देश से आया हूं जहां हमारी सभ्यता, भाषा और लोकगीतों में वेदों के अर्थ मिलते हैं।
—डॉ. वाल्डिस स्टेन्स
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