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छत्रपति शिवराज की साधनहीन मुट्ठीभर मराठी सेनाओं को पीस डालने के लिए बीजापुर की अपार सेनाओं ने पन्हाला दुर्ग को चारों तरफ से घेरा हुआ था। शिवराज ने सारी परिस्थितियों को देखा परखा और शत्रु सेनापति के सामने संधि का प्रस्ताव भेज दिया। मुसलमान की सेनाओं में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। सभी प्रसन्न थे कि बिना लड़े ही मराठों ने हथियार डाल दिए।
रात हुई तो विजय के मद में चूर बीजापुर की सेनाएं लंबी तानकर सो गईं। शिवराज ने शत्रु को असावधान देखा तो वह मुसलमान पहरेदारों की आंखों में धूल झोंककर अपने मालवा वीरों की एक टोली के साथ ठीक आधी रात को पन्हाला दुर्ग के गुप्त रास्ते से निकल भागे। वह विशालगढ़ की तरफ बढ़ चले।
बीजापुर की सेनाओं को यह समाचार मिला तो उसके घुड़सवार तत्काल शिवराज की टोली का पीछा करने लगे।
छत्रपति घाटी से विशालगढ़ के दुर्ग की पर चढ़ रहे थे। सेनापति बाजीप्रभु देशपांडे का घोड़ा ठीक उनके पीछे था। शत्रु की उमड़ती हुई सेना के घोड़ों की टाप की ध्वनि साफ सुनाई दे रही थी। तभी बाजीप्रभु ने कहा, महाराज आप आगे बढ़ जाएं, मैं पीछे आ रही सेना का मार्ग रोकता हूं। किंतु…।' 'किंतु क्या महाराज…।' बाजीप्रभु ने शिवराज के कथन को बीच में ही रोकते हुए कहा, मैं स्वयं इसका परिणाम जानता हूं लेकिन मुझ जैसे सैकड़ों बाजीप्रभु पैदा कर सकती है किंतु महाराज आप जैसा सेनानी कहां से लाएंगे?
शिवराज बोले, जैसी तुम्हारी इच्छा, मैं दुर्ग में पहुंचने की सूचना तुम्हें तोप से दूंगा।
बलिदान की भावना से बाजीप्रभु का रोम-रोम पुलकित हो उठा। उन्होंने अपने मुट्ठीभर सैनिकों के साथ अपने-अपने घोड़ों की लगाम मोड़ी और बीजापुर की सेना का मार्ग रोकने के लिए चल-पड़े।
मुसलमानों की अपार सेना के साथ मराठा सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी टकरा गईर्। सुबह हो चली थी लेकिन हर-हर महादेव के नारों से आकाश को गुंजाते मराठा सैनिकों ने बीजापुर के सैनिकों को जरा सा आगे नहीं बढ़ने दिया। एक-एक मराठा सैनिक कइयों पर भारी पड़ रहा था। रणभूमि रक्त से लाल हो चुकी थी। बाजीप्रभु दोनों हाथों से तलवार चलाते हुए मुसलमान सैनिकों में मार-काट मचा रहे थे। उनका शरीर रक्त से लहूलुहान था लेकिन उनके कान दुर्ग से आने वाली तोप की आवाज की तरफ लगे हुए थे। बीजापुर के सैनिकों की तादाद ज्यादा थी मराठा सैनिक वीरगति को प्राप्त होने लगे। तभी एक गोली बाजीप्रभु को लगी उसी समय विशालगढ़ के दुर्ग की चोटी सेछत्रपति ने तोप चलाकर सुरक्षित दुर्ग में पहुंचने की सूचना दी। बाजीप्रभु के मुख से निकला बस, मेरा काम पूरा हो गया और अगले ही पल वह घोड़े से नीचे गिर पड़े और उन्होंने प्राण त्याग दिए।
( श्री मदन गोपाल सिंहल की पुस्तक 'हमारी गौरव गाथाएं से' साभार)
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