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भटका आंदोलन बना भारत के लिए बड़ा सिरदर्द

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Jan 25, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Jan 2016 14:01:37

भारत में नक्सली-माओवादी हिंसा में समय-समय पर उतार-चढ़ाव  देखने में आते हैं। जब लगता है इसमें अत्यधिक गिरावट आई है, तभी कहीं किसी बड़े नरसंहार को अंजाम दे दिया जाता है। इसके पीछे की गुत्थी समझकर रणनीति पर विचार करना जरूरी है।  
 पाञ्चजन्य ब्यूरो
आज से लगभग एक-डेढ़ वर्ष बाद भारत में नक्सलवादी आंदोलन अपने पचास वर्ष पूरे करेगा। यह आज देश में आंतरिक विरोध की विकट समस्या बन चुका है, देश की सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती बना हुआ है। चिंता की बात है कि आजादी के सात दशक बाद भी इससे लड़ने की कोई कारगर रणनीति नहीं बन पाई है। नक्सलियों ने सैकड़ों सुरक्षाकर्मियों सहित पिछले बीस वर्ष में 12,000 से ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतारा है। यह इस आंदोलन की सबसे बड़ी विडंबना है। आंदोलन आज उस रूप में नहीं है जिसमें यह शुरू हुआ था। पिछले 50 वर्ष से माओवादी विचारधारा में विचारधारा के प्रति अंधभक्ति रखने वाले अतिवादी भारतीय राज्य तंत्र से बेवजह की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसकी भारी कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ी है।
कैसे हुई शुरुआत?
यह आंदोलन शुरू हुआ उत्तर बंगाल के एक अनजान गांव नक्सलबाड़ी में तीन मार्च 1967 को, जब  तीन बटाईदार किसानों ने साथ मिलकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थकों के साथ पार्टी,  झंडों, लाठियों, तीर-कमानों से लैस होकर (भू-स्वामियों) के अन्न भंडारों पर धावा बोल दिया और सारा धान लूट लिया। इस मुहिम की अगुआई चारू मजूमदार, कानु सान्याल और जंगल संथाल कर रहे थे। इससे किसानों के विद्रोह में रूप में नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत हुई और नक्सलबाड़ी से नक्सली शब्द का जन्म हुआ। कानु सान्याल ने इसे 'जमीन के लिए नहीं लेकिन राज्य की शक्ति कब्जाने के लिए सशस्त्र संघर्ष' करार दिया।
पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के नेता माओत्से तुंग ने नक्सलबाड़ी आंदोलन को वैचारिक नेतृत्व प्रदान किया और भारतीय किसानों तथा निचली पायदान पर खड़े वनवासियों से सरकार और उच्च वर्गों को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया। बड़ी संख्या में शहरी अभिजात्य वर्ग के युवक भी इस नई विचाराधारा की ओर आकृष्ट हुए। यह विचाराधारा चारू मजूमदार के लेखों, विशेषकर 'ऐतिहासिक आठ दस्तावेज' के प्रकाशन से तेजी से फैली और जिसने नक्सलवादी विचाराधारा को आधारभूमि प्रदान की। मजूूमदार की राय थी कि 'माओ का विचार मार्क्सवाद-लेनिनवाद का सर्वोच्च रूप' है और देश की मुक्ति के लिए किसानों की क्रांति ही एकमात्र रास्ता है।
बदल गई धारा
नवंबर 1967 में सुशीतल राय चौधरी के नेतृत्व में एक समूह ने साम्यवादी क्रांतिकारियों की अखिल भारतीय समन्वय समिति (एआइसीसीसीआर) का आयोजन किया। देश के विभिन्न हिस्सों में हिंसक आंदोलन भड़काए गए। 1959 में लेनिन की जन्म शताब्दी के अवसर पर एआइसीसीसीआर ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) को जन्म दिया।
पिछले कई दशकों में वामपंथी उग्रवाद अनेक विभाजन और कई नए समूहों के जन्म का गवाह बना जिनमें पीपुल्स वॉर गु्रप (पीडब्ल्यूजी) और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया (एमसीसीआइ), दो सबसे बड़े और ताकतवर समूह थे। एमसीसीआइ 1975 में बनी और पीडब्ल्यूजी का गठन 1980 में कोंडापल्ली सीतारमैय्या ने आंध्र प्रदेश में किया। माओवादियों का समानान्तर सरकार चलाने का दावा अधिकतर पीडब्ल्यूजी के खाते में जाता है जबकि एमसीसीआइ हिंसक सशस्त्र संघर्ष की राह पर चली और उसने राजतंत्र के विरुद्ध निरंतर गुरिल्ला लड़ाई जारी रखी।

सबसे बड़ा खतरा बन गई है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2006 माओवादियों को 'देश की आंतरिक सुरक्षा के सामने खड़ी हुई सबसे बड़ी चुनौती' करार दिया था।
केंद्र सरकार की रिपोर्ट के अनुसार माओवादी देश के 17 राज्यों में 602 में से 200 जिलों में पूरी तरह सक्रिय हैं और इसी के साथ नेपाल सीमा से भारत के दक्षिण पश्चिमी तट तक  फैले 92,000 वर्ग किमी. 'लाल गलियारे' में भी वे जबरदस्त सक्रियता दिखा रहे हैं।
यह 'लाल गलियारा' तेजी से बढ़ रहा है, क्योंकि माओवादी नेपाल में पशुपतिनाथ से भारत में तिरुपति तक एक निष्कंटक क्षेत्र बनाने का दिवास्वप्न पाले हुए हैं। हाल के वर्षों में माओवादियों ने पूर्वी भारत से परे पश्चिम में देश के प्रमुख औद्योगिक राज्यों, महाराष्ट्र और गुजरात तक अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने के लिए अभियानों और गतिविधियों में खासी तेजी दिखाई है। खुफिया सूत्र कहते हैं कि वे इस इलाके में तेजी से पैर जमा रहे हैं। अब उन्होंने बंगाल से परे उत्तर-पूर्व के राज्यों में घुसपैठ की है और वहां वे अपने पैर पसार रहे हैं। छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में जबरदस्त मार खाने के बाद माओवादियों ने अब केरल का रुख किया है। वास्तव में माओवादियों की केंद्रीय कमान का एक बड़ा हिस्सा केरल में चला गया है ताकि वहां आंदोलन को मजबूती दी जा सके।
सीमा सुरक्षा बल के पूर्व प्रमुख और माओवाद के विशेषज्ञ प्रकाश सिंह कहते हैं, 'माओवादियों ने उत्तर-पूर्वी राज्यों में सफलतापूर्वक प्रवेश कर लिया है और अब वे दक्षिणी भारत में अपना फैलाव कर रहे हैं। क्रमश: वे पश्चिमी घाट की तरफ भी बढ़ रहे हैं जो गंभीर चिंता का विषय है'।
बस्तर (छत्तीसगढ़) स्थित दंडकारण्य का घना जंगल, जिसका उपयोग माओवादी शुरू में केवल छिपने के लिए करते थे, अब उनके अभियानों का कमान केंद्र बन गया है। 'जनता सरकार' या माओवादियों की रिवोल्यूशनरी पीपुल्स काउंसिल के नाम पर वे कुछ इलाकों में वास्तव में समानान्तर सरकार चला रहे हैं। छत्तीसगढ़ के एक स्थानीय दैनिक ने हाल ही में एक रपट प्रकाशित की है जिसमें कहा गया कि राज्य के शिक्षा मंत्री केदार कश्यप के विधानसभा क्षेत्र में माओवादी वनवासी लड़कियों के लिए खस्ताहाल सरकारी स्कूल भवनों में कक्षाएं चला रहे हैं और उन्हें माओवादी विचारधारा की घुट्टी पिला रहे हैं।
माओवादियों की रणनीति
माओवादियों ने अपने प्रभावी खुफिया तंत्र, जो दूरदराज की वनवासी बस्तियों में पक्के तौर पर फैला है, का इस्तेमाल करते हुए पुलिस और केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को नचाए रखा है। उनका नेटवर्क इतना मजबूत है कि माओवादी सुरक्षा बलों की हर गतिविधि और हलचल को  तुरंत जान लेते हैं और इससे उन्हें जवाबी हमला करने की रणनीति बनाने में मदद मिलती है। 'माओवादी मुक्त क्षेत्र' में प्रभावी ढंग से प्रवेश करने में सुरक्षा बल अब तक सफल नहीं हो पाए हैं। बस्तर के सुकमा में पिछले साल माओवादियों के गढ़ में सुरक्षा बलों पर हुआ हमला  इसकी मिसाल है। छत्तीसगढ़ पुलिस के आईजी पवनदेव, जिन्होंने लंबे समय तक माओवादी क्षेत्र में काम किया है, कहते हैं, ''यह माओवादियों का डर ही है जो वनवासियों और गांव वालों को उनका समर्थन करने के लिए विवश करता है।''
आतंकवाद विरोधी अभियानों के विश्लेषक अनिल कंबोज कहते हैं, ''अपने चुस्त-दुरुस्त खुफिया तंत्र के अलावा माओवादियों को हमला करने और ऊंचे दर्जे की गुरिल्ला लड़ाई का प्रशिक्षण लिट्टे के पूर्व लड़ाकों से मिला है जिन्हें उन्होंने अपने फरार रहने के दौरान अपने नियंत्रण वाले जंगल के क्षेत्र में छिपाया था।''
पुलिस और सुरक्षाबलों पर हमला करते समय कट्टर माओवादी गरीब वनवासी गांववालों को आगे रखते हैं जिससे सुरक्षाबलों के लिए उनका सामना करना कठिन हो जाता है। परिणाम यह होता है कि माओवादी सुरक्षित भागने में कामयाब हो जाते हैं जबकि वनवासी गांववाले और सुरक्षाबलों के जवानों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है।
उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार सीपीआई (माओवादी) ने स्वयं को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक और केरल को आच्छादित करने वाले पश्चिमी घाट का उपयोग करते हुए एक एकीकृत क्रांतिकारी क्षेत्र बनाने की योजना तैयार की है। इसका उद्देश्य रणनीतिक अड्डे बनाना है जो सुरक्षाबलों के खतरे से दूर सुरक्षित पनाह दे और मौजूदा 'लाल गलियारे' के एक विकल्प के तौर पर काम करे।
शस्त्र, गोलाबारूद और अपवित्र गठजोड़
हाल के अध्ययन बताते हैं कि नक्सलियों ने दूसरे उग्रवादी गुटों और कुछ मुस्लिम कट्टरवादी संगठनों के साथ पुख्ता संबंध स्थापित कर लिए हैं। मानसिक समर्थन और कुछ एनजीओ द्वारा दृष्टिकोण निर्माण के साथ ही ये संबंध माओवादियों की पैसा और हथियार हासिल करने में मदद करते हैं।
अपने एक आलेख में पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.पी.मलिक लिखते हैं, 'सिविल सोसाइटी में कई ताकतवर एनजीओ हैं जो माओवादियों को राबिन हुड के आधुनिक अवतार मानते हैं।' बीते दौर से उलट, माओवादियों के पास इस वक्त हथियारों की कोई कमी नहीं है जो उन्होंने पुलिस और सुरक्षाबलों से छीनकर और तस्करी द्वारा इकट्ठे किए हैं। लेकिन इस वक्त गोलाबारूद पाना उनके लिए एक मुश्किल बन गया है।
आइडीएसए के पूर्व वरिष्ठ अध्येता कम्बोज बताते हैं,'आज उनके पास 303, एसएलआर, एके47 भारी मात्रा में हैं, इसके अलावा एलएमजी, कार्बाइन और आधुनिकतम इस्रायल निर्मित एक्स 95 असाल्ट रायफल भी हैं। माओवादी क्षेत्र में काम कर रही खदान और खनिक कंपनियों से उन्हें विस्फोटक और जिलेटिन छड़ें मिल रही हैं। या तो वे उन्हें खरीद लेते हैं या उगाह लेते हैं। उनके पास तकनीकी रूप से चुस्त कैडर हैं जो आइईडी, बारूदी सुरंगें और राकेट लांचर तक बना रहे हैं। उन्हें ये हथियार वीरप्पन  गुट, लिट्टे के पुराने कैडर और उल्फा जैसे उत्तर-पूर्व के विद्रोही गुटों से हासिल हो रहे हैं। माओवादी बिहार और झारखंड के मुस्लिम कट्टरवादी संगठनों के भी संपर्क में हैं। यह एक खतरनाक चक्र है।'

वे आगे कहते हैं,'माओवादियों के पैसे का मुख्य स्रोत हैं तेंदू पत्ता ठेकेदारों, विकास कार्यों, व्यवसायियों तथा उद्योग समूहों से उगाही और सरकारी संपत्ति को लूटना। यह पैसा हथियार, उपकरण, विस्फोटक खरीदने और अपनी गतिविधियां चलाने में इस्तेमाल किया जाता है।'
नीति: नक्सल रणनीति का सामना करना
सरकार की रणनीति वामवादी उग्रवाद से समग्रता से निपटने की है जिसमें सुरक्षा, विकास, सुशासन को बढ़ावा देना और राज्य सरकारों की सामर्थ्य बढ़ाना शामिल है। बहरहाल, विशेषज्ञों को लगता है कि नीति से लेकर सामना करने की रणनीति तक, यह उद्देश्यों से मेेल नहीं खाती। प्रकाश सिंह कहते हैं, 'राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र नीति नहीं है और इसके चलते हर राज्य अपनी समझ और हितों के अनुसार इस संकट से निपटता है। हमें बहुआयामी पहल की जरूरत है और इसमें केन्द्र को अगुआई करनी होगी। खुफिया जानकरियों को साझा करने के तंत्र को उन्नत किया जाना चाहिए।' मेजर जनरल (रिटा.) धु्रव कटोच का कहना है, 'हमें एक उच्च प्रशिक्षित और दक्ष बल तैनात करना होगा जो कम्युनिस्ट आतंक से निपटने और जंगली इलाकों में गुरिल्ला युद्ध में निपुण हो।' सेंटर फॉर सिक्योरिटी एंड स्टे्रटेजी, इंडिया फाउंडेशन के निदेशक आलोक बंसल का मत है, 'माओवादियों से समग्रता से निपटने के लिए एक आक्रामक मानसिक अभियान चलाये जाने की जरूरत है। विचारधारा के स्तर पर लड़ाई का सामना सिर्फ प्रतिरोधी वैचारिक अभियान से ही किया जा सकता है।'
विद्रोहियों का समर्पण
छत्तीसगढ़, बिहार , झारखण्ड आदि माओवाद से प्रभावित राज्यों ने विद्रोहियों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए एक समर्पण की नीति आरम्भ की है। दिसम्बर 2015 में 15 महिला कैडर सहित 70 माओवादियों ने छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में जन जागरण अभियान के तहत समर्पण किया था, जबकि अन्य 8 ने 19 जनवरी को बीजापुर जिले में समर्पण किया था। छत्तीसगढ़ के एक पुलिस अधिकारी का कहना है कि सरकार उन जनजातीय बंधुओं को समाज में वापस लौटाने का प्रयास कर रही है जो माओवादी बन गए थे। इसी तरह तीन कट्टर माओवादियों ने बिहार के औरंगाबाद जिले में पिछले दिसम्बर माह में ऑपरेशन विश्वास के तहत समर्पण किया था। बहरहाल, विपक्षी दल और एक्टिविस्ट्स ने खूब हो-हल्ला मचाया और समर्पण पर सवाल खड़े किए। 70 माओवादियों के समर्पण के बाद, छत्तीसगढ़ राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल ने स्पष्टीकरण की मांग की। बस्तर के एक स्थानीय जनजातीय नेता ने कहा, 'समर्पण करने वालों में से कुछ तो सीपीआइ (माओवादी) के कैडर भी नहीं हैं। वे तो निर्दोष गांव वाले हैं।'
अमानवीय कानून
हालांकि वक्त की मांग है कि माओवादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए, पर राज्य के लिए पर्याप्त सावधानी बरतना भी उतना ही जरूरी है ताकि नक्सल आतंक को खत्म करने के लिए बने कानूनों का दुरुपयोग न हो पाए। बस्तर के दो स्थानीय पत्रकारों संतोष यादव और सोमारू नाग की छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम अथवा जन सुरक्षा कानून और गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून के तहत गिरफ्तारी के बाद पत्रकारों और सिविल राइट्स गुटों ने पूरे भारत में जबरदस्त हंगामा खड़ा कर दिया था। एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीज ने इस कानून के तहत गिरफ्तारी की भर्त्सना की और कहा, 'तनावग्रस्त क्षेत्रों से रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को चुप कराने के लिए अमानवीय कानूनों का इस्तेमाल किया जा रहा  है, जो कि चिंताजनक है।'
राज्य सरकारों के लिए यह देखना आवश्यक है कि कहीं कानूनों का गलत इस्तेमाल तो नहीं हो रहा है-एक तरफ तो यह सरकार की मंशाओं की साख बिगाड़ता है तो दूसरी ओर ये मानवाधिकारियों  को सरकार को बदनाम करने के मौके दे देता है।
वर्तमान स्थिति
हालांकि केन्द्र और राज्य सरकारें वामपंथी उग्रवाद से दशकों से जूझ रही हैं, लेकिन एक समग्र प्रतिक्रिया अभी दो-तीन साल के दौरान ही व्यवहार में लाई जा रही है, खासकर मौजूदा सरकार के सत्ता में आने के बाद से। इससे एक समन्वित प्रतिक्रिया का रास्ता खुलता है। केन्द्रीय गृहमंत्रालय इसमें अगुआई कर रहा है। मंत्रालय ने विकास के काम करने के साथ ही बलों की प्रतिरोधी आक्रमण सामर्थ्य को बेहतर बनाने और विशेष गुप्तचरी तंत्र को सरलीकृत करने पर ध्यान केन्द्रित किया है।
गृहमंत्रालय के एक सूत्र की मानें तो साफ दिखता है कि वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित राज्यों जैसे छत्तीसगढ़, झारखण्ड और ओडिशा में अहम सड़कों और पुलों को बनाने पर खास ध्यान दिया जा रहा है। पूरे क्षेत्र में मोबाइल नेटवर्क की सुविधा भी बढ़ाई जा रही है। वामपंथ एग्रवाद प्रभावित इलाकों में 2014-15 में बड़ी तादाद में विकास कार्य विशेष योजनाओं के अंतर्गत पूरे किए गए हैं। ऐसे प्रयासों से पिछले दो साल में इस आतंक से उपजी हिंसा से होने वाली मौतों में कमी आई है।

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों की तैनाती
   केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों की 93 बटालियनें छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड, ओडिशा, पश्चिमी बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और और उत्तर प्रदेश में तैनात हैं।
    त्वरित कार्रवाई के लिए सीआरपीएफ के साथ 10 कमांडो बटालियनें लगाई गई हैं, जिनमें से 9 नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तैनात हैं।
    सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी के करीबन दो हजार जवान आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में  और एक हजार जवान पश्चिम बंगाल में तैनात किए गए हैं। इसके अलावा विशेष अभियान के लिए ओडिशा में 1370 जवानों की तैनाती की गई है। 

क्या है लाल गलियारा?
लाल गलियारा भारत के पूर्वी क्षेत्र का नक्सल प्रभावित इलाका जहां नक्सलियों- माओवादियों ने आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र (विदर्भ), ओडिशा, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल को हिंसा का केन्द्र बना रखा था। यह माओवादी रणनीति को बढ़ाने के लिए एक मुक्त और सुरक्षित क्षेत्र है जहां वे अपनी सशस्त्र गतिविधियों और कैडर को मजबूत करने के लिए लगातार सक्रिय दिखाई देते रहे हैं। इस लाला गलियारे में माओवादियों ने अपने लिए एक मुक्त क्षेत्र बना रखा है जिस पर उनकी मजबूत पकड़ है और जहां सुरक्षा बल भी उन पर किसी प्रकार की कार्यवाही करने के में स्वयं को असमर्थ महसूस करते हैं। छत्तीसगढ़ के सुकमा में कई सुरक्षाकर्मी मारे गए हैं, जब कभी उन्होंने माओवादियों के इन मुक्त गढ़ों में विशेष अभियान चलाने की कोशिश की है। 

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