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तमिलनाडु के लोग इन दिनों इस बात से नाराज हैं कि पोंगल के अवसर पर उन्हें उनकी सदियों पुरानी परम्परा खुलकर निभाने नहीं दी गई। इस अवसर पर वे परंपरागत तौर पर लोग बैल दौड़, जिसे जल्लीकट्टू कहते हैं, का आयोजन करते आ रहे थे। पर 13 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने इस खेल पर लगी रोक को हटाने से मना कर दिया। न्यायालय के इस आदेश पर रोष प्रकट करते हुए तमिलनाडु के लोग सड़कांे पर उतर आए और प्रतिबंध हटाने की मांग करने लगे। मुख्यमंत्री जयललिता ने केन्द्र सरकार से इस मामले में एक बार फिर से दखल देने की मांग की। चूंकि यह मामला न्यायालय से जुड़ा हुआ था, इस वजह से केन्द्र सरकार भी कुछ नहीं कर पाई। केंद्रीय मंत्री पी. राधाकृष्णन कहते हैं, ''2,000 वर्ष पुराना यह त्योहार प्रतिबंध की वजह से संकट में था। प्रधानमंत्री ने तमिलनाडु के लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए इस प्रतिबंध को हटा लिया था।''
उत्तर भारत में मकर संक्रांति के पर्व के साथ ही उधर दक्षिण में मुख्य रूप से तमिलनाडु में पोंगल का पर्व हषार्ेल्लास से साथ मनाया जाता है। पोंगल के त्योहार के दिन विशेष रूप से बैल की पूजा की जाती है क्योंकि बैल से ही किसान अपनी जमीन जोतता है। चेन्नै के दक्षिण में 575 किमी दूर पालामेडू में पोंगल के मौके पर जल्लीकट्टू का आयोजन किया जाता रहा है।
आइए पहले इस मामले की पृष्ठभूमि जान लें। पशुओं पर क्रूरता के खिलाफ आवाज उठाने वाले कुछ लोगों ने 2008 में सबसे पहले देश की सबसे बड़ी अदालत से गुहार लगाई थी कि जल्लीकट्टू खेल में बैलों के साथ बड़ी क्रूरता होती है, इसलिए उस खेल पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। इसके बाद अदालत ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन कुछ समय बाद ही वह हटा भी लिया। पर पशु अधिकार की बात करने वाले चुप नहीं बैठे और वे इस पर रोक लगवाने की कोशिश करते रहे। 2014 में वे एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचे। न्यायालय ने पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 का हवाला देते हुए 7 मई, 2014 को जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद से ही तमिलनाडु के प्राय: सभी दलों के नेता इस रोक को हटवाने के लिए केन्द्र सरकार से अधिसूचना जारी करने की मांग कर रहे थे। अभी 8 जनवरी को केन्द्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर जल्लीकट्टू पर लगी रोक हटा दी। फिर से कुछ लोग अदालत गए और उन्होंने इस अधिसूचना पर रोक लगाने की मांग की। अदालत ने 13 जनवरी को उनकी मांग मान ली और केन्द्र सरकार की अधिसूचना को निरस्त कर दिया। इसके बाद से ही तमिलनाडु में विरोध प्रदर्शन होने लगे जो इस रपट के लिखने तक जारी हैं। चंूकि यह मामला अदालत से जुड़ा हुआ है, इसलिए कोई बड़ा नेता या अन्य इस पर खुलकर कुछ बोल नहीं रहा है। लेकिन सोशल मीडिया में लोग इस रोक के खिलाफ जमकर अपना रोष प्रकट कर रहे हैं। गुड़गांव में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में काम करने वाले बाबू रामचन्द्रन वे सब तर्क दोहरा रहे हैं जो जल्लीकट्टू पर रोक से रुष्ट लोग दे रहे हैं। देश में कुछ लोग ऐसे हैं, जो हिन्दू पर्व-त्योहारों का किसी न किसी बहाने विरोध करते हैं। जब हिन्दू होली खेलने की तैयारी करते हैं तो ये लोग कहते हैं कि रंग साफ करने से लाखों लीटर पानी बर्बाद होता है। दुर्गा पूजा और काली पूजा के वक्त ये लोग कहते हैं कि नदियों और तालाबों में मूर्तियों के विसर्जन से पानी दूषित होता है। वे कहते हैं, ''ये लोग तब कुछ क्यों नहीं बोलते हैं जब बकरीद में एक ही दिन में लाखों पशुओं की हत्या कर दी जाती है? ऐसे लोगों की मंशा साफ नहीं है। इनका मकसद सिर्फ हिन्दू त्योहारों का विरोध करना है।'' जल्लीकट्टू के समर्थक कहते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के सामने यह बात अच्छी तरह रखने की जरूरत है कि जल्लीकट्टू मनाने वाले पशु-हत्यारे नहीं, बल्कि पशु-पूजक हैं। हमारे पूर्वजों ने किसी भी त्योहार को मनाने का विधान बहुत ही सोच-समझकर किया है। जल्लीकट्टू में शामिल होने वाले युवा जोशीले और साहसी बनते हैं। यही इसका मुख्य उद्देश्य भी है। यह समाज को जागृत करने का एक जरिया भी है। इसलिए समाज की खातिर इसका विरोध करना उचित नहीं है। -प्रतिनिधि
ये लोग तब कुछ क्यों नहीं बोलते हैं जब बकरीद में एक ही दिन में लाखों पशुओं की हत्या कर दी जाती है? ऐसे लोगों की मंशा साफ नहीं है। इनका मकसद सिर्फ हिन्दू त्योहारों का विरोध करना है।
— बाबू रामचन्द्रन, कॉल सेन्टर कर्मचारी
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