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भारत की कूटनीतिक ‘उड़ान’

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Jan 4, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jan 2016 14:48:24

 

दिसंबर, 2015 के आखिर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अचानक पाकिस्तान पहुंचना और नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई देना सारी दुनिया में चर्चा का विषय बन गया। इस मुलाकात की पल-पल की खबरें वैश्विक मीडिया की सुर्खियों में जगह बनाती रहीं। हफ्तेभर बाद भारत समेत दुनियाभर का समाचार जगत दूसरी सरगर्मियों में व्यस्त हो गया है, लेकिन पाकिस्तानी मीडिया और पाकिस्तानी सियासत में आज भी मोदी का यह दौरा बड़ा मुद्दा बना हुआ है। सवाल-जवाब, राजनीतिक दांव-पेंच, बयानों और साक्षात्कारों के दौर चल रहे हैं। ग्वादर बंदरगाह को दक्षिणी-पश्चिमी चीन से जोड़ने वाले पाकिस्तान-चीन आर्थिक गलियारे (सी.पी.ई.सी.) को भारत विरोधी पाकिस्तान-चीन गठजोड़ की बेमिसाल उपलब्धि मानने वालों की पाकिस्तान में कमी नहीं है। 30 दिसंबर को इसी आर्थिक गलियारे के पश्चिमी हिस्से की आधारशिला रखने के बाद नवाज शरीफ ने बयान दिया कि ‘भारत और पाकिस्तान दुश्मनों की तरह नहीं रह सकते। सारी दुनिया में विवाद आपसी बातचीत के जरिए सुलझाए जाते हैं। भारत-पाकिस्तान को भी यही करना होगा। हमें मैत्रीपूर्ण वातावरण बनाना होगा।’ नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री मोदी को लाहौर आने और उनके साथ समय बिताने के लिए धन्यवाद भी दिया। ठीक इसी समय नवाज शरीफ सरकार के विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अजीज का बयान आया कि ‘पाकिस्तान की रचनात्मक कूटनीति और अंतरराष्टÑीय दबाव के कारण भारत ने पाकिस्तान के प्रति शत्रुता के अपने रवैये में परिवर्तन किया है।’ सरताज अजीज संसद में विपक्ष के सवालों का जवाब दे रहे थे। प्रमुख विपक्षी पार्टियां पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और इमरान खान की तहरीक-ए-इन्साफ मिले-जुले संकेत देती रहीं। कुल मिलाकर नवाज शरीफ और सरताज अजीज के बयानों में पाकिस्तानी राजनीति की बदलती परिस्थितियों और चिरस्थायी मजबूरियों की झलक देखी जा सकती है।

विचार कीजिए कि अचानक लाहौर पहुंच कर मोदी ने सबसे ज्यादा किसे चौंकाया? नवाज शरीफ को? मीडिया को? उत्तर है पाकिस्तान के फौजी अधिष्ठान को। आखिर नवाज सरकार के महत्वपूर्ण नाम यह साबित करने में सबसे ज्यादा ऊर्जा और समय क्यों खपा रहे हैं कि यह दौरा पहले से तय नहीं था, पहल मोदी की ही थी, और काठमांडू में शरीफ और मोदी के बीच कोई गुप्त बैठक नहीं हुई थी। पाकिस्तान में रहनुमाओं सी अदा रखने वाले और पाकिस्तान की फौज के सबसे विश्वासपात्र लोगों में से एक हाफिज सईद ने बयान दिया है कि नवाज शरीफ नरेंद्र मोदी के साथ मिलकर पाक फौज को खत्म करने की साजिश रच रहे हैं। संकेत स्पष्ट है कि पाकिस्तान की राजनीति एक दोराहे पर आ खड़ी है। चिरपरिचित मुद्दा है पाकिस्तान के अस्तित्व को खतरे का। इस मुद्दे की उम्र पाकिस्तान जितनी ही है, जिसकी जड़ें राजनीतिक इस्लाम में गहरे तक समाई हुई हैं। अब तक इस मुद्दे पर तुरुप का इक्का पाकिस्तान की फौज के हाथ रहा है, जिसके दम पर वह बार-बार तख्ता पलट करती आई है। लेकिन आज जब इस्लाम के आंतरिक मतभेदों ने कलाश्निकोव की गोलियों और आत्मघाती हमलों की शक्ल में पूरे पाकिस्तान में मौत बरपाना शुरू कर दिया है और अफगानिस्तान के सीने में अपने नाखून गड़ाने के लिए तैयार किए गए जिहादी दस्ते, पाकिस्तानी समाज में मजहबी और नस्लीय हिंसा का तांडव कर रहे हैं, तब इस इस्लामी गणराज्य के कर्ताधर्ता सबसे कठिन चुनौती और सबसे बड़े अवसर, दोनों से दो-चार हो रहे हैं। पाकिस्तान का वर्तमान इस्लामी मॉडल, पाकिस्तान की फौज और आई.एस.आई. द्वारा गढ़ा गया है, जिसमें भारत के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की कोई संभावना नहीं है। लेकिन असफलताएं पाकिस्तान को एक-दूसरे रास्ते की ओर धकेलने का दबाव बना रही हैं, जिसका नेतृत्व पाकिस्तान की राजनीति ही कर सकती है। फौज मार्का इस्लामी मॉडल की असफलता ने कुछ सचाइयों को उघाड़कर रख दिया है। पाकिस्तान के दो प्रमुख राजनीतिक दलों, सत्तासीन पाकिस्तान मुस्लिम लीग और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, दोनों के नेतृत्व ने अस्थिर लोकतंत्र के दुष्परिणामों को व्यक्तिगत रूप से भुगता है।

फिलहाल वे युगपरिवर्तन करने की स्थिति में तो नहीं हैं, लेकिन कुछ सचाइयां स्वीकृत हो रही हैं। जैसे कि, पाकिस्तान के अस्तित्व को खतरा बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक है। और पाकिस्तान को खतरा इसलिए नहीं है कि इस्लाम खतरे में है, बल्कि असली खतरा गर्त में जाती अर्थव्यवस्था, लचर कानून-व्यवस्था और पाकिस्तान के समाज में दिन-प्रतिदिन मजबूत हो रहे जिहादी समूहों से है। इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान ही पाकिस्तान में एक बड़ा आत्मघाती हमला हुआ है, जिसमें दर्जनों लोग मारे गए हैं। पाकिस्तान के इस्लामी देश होने को लेकर राजनीतिक जमात में तो शायद ही कोई इतर बात कहने का साहस हो, लेकिन इस्लामी मॉडल कौन सा हो यह जबान पर न सही, दिल में जरूर सुगबुगा रहा है। तुर्की वो बन नहीं सके और अब अफगानिस्तान होने का खौफ हावी है। पाकिस्तान दुनिया का संभवत: एकमात्र देश है जिसने अपने पड़ोसी के घर में आग लगाने के लिए खुद के फर्श पर बारूद बिछा लिया है। भारत को अस्थिर करने के पाक फौज के सारे मंसूबे नाकाम हो चुके हैं, और अफगान जिहाद का कांटा अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों के गले में एक समान अटका है। जब अफगानिस्तान में नाटो के बम बरसते हैं तो आई.एस.आई. के लाडले तालिबान पाकिस्तान की अपनी सुरक्षित आरामगाहों में लौटने को मजबूर होते हैं और पेशावर की गलियों और दूरदराज कबीलाई इलाकों में दनदनाते घूमते हैं। इन्हें इकट्ठा रखना भी तराजू में मेंढक तौलने जैसा है। लिहाजा फौजी अधिष्ठान की अधिकांश ताकत अफगानिस्तान से सटे सीमावर्ती प्रांतों में केंद्रित है। कराची उबल रहा है, और बलूचिस्तान हाथ से फिसल रहा है। अफगानिस्तान में सैनिक कार्रवाइयों में उलझा अमरीका राहिल शरीफ से सौदेबाजी करता रहता है। लेकिन अमरीका के आगामी राष्टÑपति चुनावों को लेकर, विशेष तौर पर अमरीकी मानस में इस्लामी आतंकवाद सम्बन्धी अंदेशा, पाक फौज को भी लंबे समय तक असमंजस में बनाए रखेगा।  

मोदी और नवाज शरीफ में जिस प्रकार बातचीत हुई है, उससे एक बात तो तय है कि बयानबाजियों और विरोधाभासों के बीच दोनों ने व्यक्तिगत बातचीत का सिलसिला बनाए रखा है। मोदी के शपथ ग्रहण में आने के बाद शरीफ ने सकारात्मक संकेत देने शुरू किए थे। उसके बाद फौज के दो पिट्ठुओं, इमरान खान और मौलाना ताहिर-उल-कादरी ने महीनों शरीफ बंधुओं की नाक के नीचे उत्पात मचाया था। और शरीफ को कदम खींचने पड़े थे। रूस के उफा में मोदी और शरीफ दोबारा साथ दिखे और पाकिस्तान के रसूखदारों ने एक बार फिर अड़ंगा लगाया। लेकिन पेरिस में दोनों प्रधानमंत्रियों की आपसी समझ काम करती दिखी। फिर जब दोनों की तीन मिनट लम्बी बातचीत के चलचित्र सामने आए तो वे अपने आप में काफी कुछ संकेत दे रहे थे।

पाकिस्तान के पुराने और प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘डॉन’ ने हाल ही के मोदी के दौरे को हाथों-हाथ लेते हुए ‘कूटनीतिक तख्तापलट’ शब्द का प्रयोग किया। जो पाकिस्तान की मीडिया हलचलों को देख रहे हैं, वे इस शब्द के प्रयोग के महत्व को भली प्रकार से समझेंगे। यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मोदी के इस कदम की रचना नौकरशाहों ने तो नहीं की थी। नौकरशाही हमेशा नपे-तुले, सुरक्षित और छोटे कदम उठाती है, कूटनीतिक उड़ान नहीं भरती। मोदी रूस के साथ कई बड़े समझौते (जिसमें बड़ा रक्षा समझौता शामिल है) करने के बाद अफगानिस्तान पहुंचे। वहां उन्होंने संसद भवन का उद्घाटन किया। भारत लौटते हुए अचानक पाकिस्तान की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार के प्रमुख से व्यक्तिगत मुलाकात करने उनके घर जा पहुंचे। पाकिस्तान के बेहद ताकतवर भारत विरोधी तंत्र के लिए मोदी ने ये तीन चुनौतियां पेश की हैं। मोदी नवाज शरीफ के अंदर भरोसा पैदा करने में भी सफल रहे हैं। दोनों ने हाथ मिलाकर गिद्ध को लाश पर से उतर आने को मजबूर किया है, भले ही कुछ समय के लिए। यहां से एक बड़ा खेल शुरू होता है। हां, उतार-चढ़ावों के लिए तैयार रहना होगा। प्रशांत बाजपेई         

 

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