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मेरे लिए स्वयंसेवकों की श्रद्धाञ्जलि समस्त राज्यों के सम्मान से भी अधिक
मद्रास संघ शाखा द्वारा अर्पित श्रद्धाञ्जलि के उत्तर में पूज्य शंकराचार्य का भाषण
'मैंने कभी आकांक्षा नहीं की कि कोई मेरे प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करे, किन्तु मेरी सदा आकांक्षा रही कि जबकि दुनिया के सभी धर्मों के प्रति श्रद्धांजलियां अर्पित की जाती हैं, मेरे धर्म के प्रति भी कोई श्रद्धांजलि व्यक्त करे। अनुभव किया जा रहा है कि हमारे शासन ने हमारे धर्म के प्रति किसी भी प्रकार की श्रद्धांजलि तो व्यक्त की ही नहीं है, यथाशक्ति हानि पहुंचाने की भी चेष्टा की है। ऐसी अवस्था में पद या सत्ता की आकांक्षा से विमुक्त स्वयंसेवकों ने श्रद्धांजलि अर्पित की है, उसने मेरी चिर आकांक्षा को पूर्ण कर दिया है। मैं इस श्रद्धांजलि को सम्पूर्ण राज्यों द्वारा सम्मिलित रूप से किए गए अभिनन्दन से भी अधिक गौरवशाली अनुभव करता हूं।''ये हृदय स्पर्शी शब्द व्यक्त किए गए थे कांची के पूज्य शंकराचार्य महाराज द्वारा 23 फरवरी 1959 को मद्रास के संस्कृत कॉलिज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थानीय शाखा द्वारा अर्पित की गई श्रद्धांजलि के उत्तर में। पूज्य शंकराचार्य जी उन महाविभूतियों में से हैं जो जगती के कल्याण के लिए यदा-कदा ही जन्म ग्रहण किया करते हैं, वह आध्यात्मिकता और राष्ट्रीय चेतना के अपूर्व स्रोत हैं तथा साथ ही उनके रोम-रोम से देशभक्ति की भावना नि:सृत होती है।
भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर के इस्पात कारखानों में अरबों रुपयों की बरबादी
अभी कुछ दिनों पूर्व राजस्थान विधानसभा द्वारा नियुक्त प्राक्कलन समिति ने भी राजस्थान सरकार पर यही आरोप लगाया था कि सरकार की आय का आधा भाग प्रशासनिक व्यय में चला जाता है। उस रिपोर्ट ने प्रकट किया कि इस वर्ष का सरकारी व्यय 1951-1952 की कुल सरकारी आय से कहीं अधिक है।
निजी क्षेत्र द्वारा बर्बादी
इधर भूखी जनता पर टैक्सों का भार बढ़ रहा है। विदेशों का ऋण बढ़ता जा रहा है (केन्द्रीय वित्त मंत्री के कथनानुसार पिछले विदेशी ऋण में से 1961में अदा होने वाली 123 करोड़ की किस्त को चुकाने के लिए पुन: विदेशी ऋण लेने की तैयारियां चल रही हैं)
उधर देश का उत्पादन घट रहा है, बेकारी बढ़ रही है और मुद्रा स्फीति के कारण जनता की क्रय शक्ति दिनोंदिन समाप्त होती जा रही है। पर अपनी असफलताओं पर से जनता के ध्यान को हटाने के लिए बड़े-बड़े बांधों और फैक्टरियों के नाम पर उसे स्वर्णिम भविष्य का झूठा सपना दिखाया जा रहा है, निजी क्षेत्र को समाप्त कर सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार की चर्चा की जा रही है। गल्ला, खेती आदि प्रत्येक क्षेत्र पर सरकार के प्रत्यक्ष नियन्त्रण की हवा बांधी जा रही है।
ये लोहे के कारखाने
पंडित नेहरू का लाड़ला 'सार्वजनिक क्षेत्र' किस प्रकार विदेशी ऋण और जनता की गाढ़ी कमाई को बर्बाद कर रहा है इस का पता लोकसभा द्वारा नियुक्त प्राक्कलन समिति की रिपोर्ट से चलता है। इस रिपोर्ट को श्री बलवन्तराय मेहताने 4 मार्च को लोकसभा में प्रस्तुत किया। उक्त रपट में भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर के 3 बृहद् इस्पात के कारखानों में हुई धन की बर्बादी पर प्रकाश डाला गया है।
निर्णय में देरी का परिणाम
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार ने परामर्शदात्री समिति की सिफारिश के अनुसार 1949 में इन लोहे के कारखानों का निर्माण प्रारम्भ न करके 'राष्ट्र के अमूल्य पांच वर्षों और अपार धनराशि की हानि कर डाली।'
रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि यदि उसी समय उनके निर्माण का निर्णय ले लिया गया होता तो उस समय दाम सस्ते होने के कारण लागत व्यय में 40 से 50 प्रतिशत की कमी हो जाती, अर्थात् हमें दुगुना व्यय करना पड़ा।
रिपोर्ट के अनुसार इन तीनों कारखानों के निर्माण में उस समय 353 करोड़ रुपया व्यय होता हो अब 560 करोड़ रुपया व्यय हुआ है। अर्थात् राष्ट्र को 1 अरब 7 करोड़ रुपये की हानि सहनी पड़ी है, जिसमें 1 अरब 2 करोड़ की विदेशी मुद्रा का अपव्यय हुआ है।
विदेशी आयात बढ़ा
रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि इन कारखानों का निर्माण 1949 में प्रारम्भ हो गया होता तो वे 1954 या 1955 में उत्पादन प्रारम्भ कर देते। इस स्थिति में गत 4-5 वर्षों में इस्पात के आयात के लिए अरबों रुपयों की जो विदेशी मुद्रा लगायी गयी है, उसकी बचत हो जाती। रिपोर्ट के अनुसार 1955-56 तक उक्त आयात की लागत 320 करोड़ रुपये हैं और विदेशी मुद्रा का यह सिंचन कब तक चलता रहेगा जब तक ये कारखाने उत्पादन प्रारम्भ नहीं कर देते। वर्ष: 12 अंक: 36 16 मार्च 1959
औद्योगिक विकास नीति
पश्चिमी ढंग की भारी एवं जटिल यंत्रप्रधान उत्पादन प्रणाली के द्वारा उत्पादन बहुत बड़ी मात्रा में हो तो सकता है, किंतु उससे देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था में स्थायी और क्रांतिकारी परिवर्तन करने वाला कोई प्रवाह निर्मित नहीं हो सकेगा। उसके लिए तो कृषि-भूमि पर आज जो बोझ पड़ रहा है, उसे कम कर सकने वाले और खेती के साथ सुसंवाद रखने वाली स्थायी उद्योगों की स्थापना करने वाली व्यवस्था लानी पड़ेगी। उसके लिए बड़े-बड़े उद्योगों के स्थान पर हमें छोटे उद्योगों को प्रधानता देनी पड़ेगी। आज की परिस्थति में हमारे लिए थोड़े कामगारों और छोटे उपकरणों द्वारा चलाए जाने वाले छोटे-छोटे उद्योग अधिक उपयोगी होंगे।
—पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन, खण्ड-4 एकात्म अर्थनीति, पृष्ठ संख्या-66
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