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अपनी बात :आक्रोश, आशंकाओं और आवश्यकताओं के बीच

by
Dec 7, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Dec 2015 11:05:30

 

इतिहास स्वयं को दोहराता है। शायद ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय मान्यता के अनुसार समय 'चक्र' है। धरती की ही तरह गोल। समय की खराद पर वर्तुल में घूमती घटनाएं जब कालांतर में फिर से परखी जाती हैं तब सही-गलत का अंतर सुधारने का मौका होता है। इस मौके पर गलत छंट जाता है, सही आगे बढ़ जाता है। जलवायु संकट के मुद्दे पर पेरिस में विश्व के 195 देशों के बीच वार्ता भूल-सुधार का ऐसा ही मौका है।
दरअसल, अठारहवीं सदी के अंत और उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में दुनिया संभवत:  पहली बार ऐसे बड़े तकनीकी, सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन से गुजरी कि विश्व के एक छोर पर रहने वालों का रहन-सहन और सोचने का ढंग ही बदल गया। प्रसिद्ध आर्थिक इतिहासकार ऑनार्ेल्ड टायनबी ने इस बदलाव को नाम दिया औद्योगिक क्रांति।
आज पेरिस में तमाम माथापच्ची इस बात पर है कि लगातार गर्म होती धरती का तापमान औद्योगिक क्रांति  के बाद बढ़े औसत वैश्विक तापमान से 2 डिग्री सेल्सियस कम कैसे किया जाए। वातावरण को गर्म करने वालीं गैसों का उत्सर्जन घटाना और धरती द्वारा सोखे जाने वाले सौरीय ताप को कम रखने का मुद्दा नए प्रकार की जटिल वैश्विक गुटबंदी का आधार है।
कोई दो राय नहीं कि पर्यावरण को बचाना मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक है। लेकिन विश्व मानवता का बड़ा हिस्सा दूसरे सिरे पर लामबंद है। यह हिस्सा वह है जिसके आक्रोश, आशंकाओं और आवश्यकताओं को अनदेखा करना न तो संभव है और न ही न्यायपूर्ण।
पहले बात आशंकाओं की।  विकास की नई परिभाषाओं, टिकाऊ तकनीकों और कसौटियों को लेकर विकासशील देशों को आशंका यह है कि नए और कानूनी रूप से बाध्यकारी नियमों की दिशा में बढ़ने पर उनके परंपरागत उद्योग और रोजगार क्षेत्र को भारी झटका लगेगा। और वे फिर पीछे धकेल दिए जाएंगे। इसके बाद बारी आती है आक्रोश की। उपनिवेशवाद का दंश झेल चुके ऐसे ज्यादातर देशों का गुस्सा इस कारण है कि आज पर्यावरणीय संकट से जुड़े सवालों का झंडा उठाने वाले देश वही हैं जिन्होंने औद्योगिक क्रांति के दौरान और इसके बाद भी 'पूंजी' को मानवता और पर्यावरण से ज्यादा महत्व दिया।
इसके बाद आता है आवश्यकताओं का उल्लेख। यह ऐसा बिन्दु है जहां विकासशील देशों की अपेक्षाओं की तीसरी पर्त खुलती है। विश्व व्यवस्था में 'स्तर' और 'नागरिक संतुष्टि' महत्वपूर्ण मसला है। विश्व जनसंख्या के बड़े हिस्से की जरूरतों और आकांक्षाओं को समझना सबसे ज्यादा जरूरी है। चुनिंदा देश मनमाने तरीकों से की गई तरक्की की दौड़ में आगे निकल चुके हैं। अब वे अपनी सहज स्थिति में विकास की होड़ के नए नियम तय करना चाहते हैं। ऐसे में विकासशील देशों की जरूरतें और उनका बाजार नई भूमण्डलीकृत व्यापार व्यवस्था के अंतर्गत स्वाभाविक तौर पर उनके कब्जे में रहेगा। विकासशील देशों को यह बात डराती है।
दरअसल, यही कारण हैं कि वर्तमान स्थिति में पर्यावरणीय प्रश्न केवल नदी, पहाड़, जंगल की ही बात नहीं रहे, यह विश्व कूटनीति का नया मुद्दा है। जलवायु पर विश्व व्यवस्था के नए बाध्यकारी कायदे यह भी तय करने वाले हैं कि अंतत: आगे कौन रहेगा। इसलिए पेरिस में मुद्दा ऊपरी तौर पर भले सीधे-सीधे पर्यावरण से जुड़ा दिखे, इसकी विस्तृत व्याख्याएं अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के बारीक सूत्र समेटे हैं।
यह विश्व व्यवस्था के इतिहास का तीसरा अध्याय है।
पहला चरण औद्योगिक क्रांति थी, जिसका आधार जैव ईंधन था। यानी धुआं उड़ाओ, तरक्की पाओ।
दूसरा अध्याय साम्राज्यवाद था। यानी संसाधन तुम्हारे, तरक्की हमारी।
तीसरा चरण अब सामने आया है जो इस किए धरे का हिसाब मांग रहा है। हिसाब होगा तो दोनों चरणों का होगा। आधी-अधूरी बात फिर चौथे चरण को ही जन्म देगी। किसी की करनी दूसरे पर थोपकर आगे बढ़ना अब दुनिया के लिए संभव नहीं। मानवता की कराहों के साथ ये धरती भी हांफने लगी है।

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