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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की राजनीति एक विचित्र संयोग का प्रतिफल है। इसके नाम तथा कार्यों में विरोधाभास तथा विपरीत गुणों का मिश्रण रहा है। इसके कार्यक्रम तथा ध्येय कभी भी स्पष्ट नहीं रहे। न इसके जन्म के समय में और न अब बुढ़ापे में। प्रारंभ में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों को सरकारी नौकरियों में स्थान दिलाना, ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन की प्राप्ति, कभी गृह शासन की स्थापना, कभी शांतिपूर्ण तथा कानून के अन्तर्गत 'डोमिनियन स्टेटस' प्राप्त करना इसका लक्ष्य रहा। इसने कभी भी पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की ही नहीं। 1929 में पंडित जवाहरलाल की अध्यक्षता में लाहौर में पूर्ण स्वराज्य का ढोंग अवश्य हुआ, परंतु उसका अर्थ गांधी जी ने 'डोमिनियन स्टेटस' ही लगाया। (यंग इंडिया, 9 जनवरी, 1930)
दिसम्बर 1885 ई. में मुम्बई में कांग्रेस का जन्म हुआ। इसका जन्मदाता ए. ओ. ह्यूम नाम का एक सामान्य ब्रिटिश अधिकारी अर्थात इटावा का जिलाधिकारी था। ए.ओ. ह्यूम के प्रथम जीवन लेखक एवं परम मित्र वेडनबर्न ने अपनी पुस्तक में उसके व्यक्तित्व तथा कांग्रेस की स्थापना की पृष्ठभूमि का तथ्यों के आधार पर विस्तृत वर्णन किया है। (देखें विलियम वेडरबर्न, ए.ओ. ह्यूम, फादर ऑफ द इंडियन नेशनल कांग्रेस, प्रथम संस्करण 1913, संशोधित, नई दिल्ली 1970)
1857 ई. के महासमर के समय, ह्यूम इटावा का जिलाधिकारी था। क्रांति के समाचार से वह भयभीत, विचलित तथा उद्वेलित हो गया था। भयभीत होकर वह एक मुस्लिम महिला का वेश धारण कर आगरा भाग गया था। उसने अपने शरीर को काले रंग से रंगा तथा काली टोपी तथा काला गाउन पहना था ताकि पहचान में न आ सके। बाद में वह 6 महीने बाद पुन: इटावा लौटा। (विस्तार के लिए, सतीश चन्द्र मित्तल, भारत का स्वाधीनता संघर्ष, पृ. 247 देखें) विचारणीय प्रश्न यह है कि ह्यूम को किस प्रेरणा या भय ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के लिए प्रेरित या मजबूत किया? वास्तव में वह 1857 के महासमर के दौरान भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों से उभरते राष्ट्रवाद, देश के नवयुवकों में बढ़ती बेचैनी, किसानों के सतत विद्रोहों, धार्मिक नेताओं एवं गुरुओं की गुप्त वार्ताओं तथा संभावित भयंकर हिंसात्मक विद्रोह से विचलित था। लाला लाजपत राय ने लिखा, 'कांग्रेस की स्थापना का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को खतरे से बचाना था, भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करना न था।' ए.ओ. ह्यूम ने ब्रिटिश तथा भारत के उच्च पदाधिकारियों का आशीर्वाद प्राप्त कर 1885 ई. में मुम्बई में दिसम्बर में इसकी स्थापना की। कांग्रेस की सदस्यता के लिए दो शर्तें अनिवार्य थीं- अच्छी अंग्रेजी का अभ्यास तथा सदस्य की राजभक्ति संदेह से ऊपर होना। वह ऐसे पढ़े-लिखे केवल 50 सदस्य चाहता था, परंतु कांग्रेस में ऐसे 72 सदस्य बने। इसके अलावा सरकार के 28 अधिकारी भी उनकी देखभाल तथा सुविधाओं के लिए थे। प्रारंभ के वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने इन कांग्रेसी सदस्यों की बड़ी देखभाल की। इनके लिए मनोरंजन स्थलों की यात्रा, सहभोज आदि के सरकारी आयोजन भी हुए। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन का समापन महारानी विक्टोरिया की 27 बार जय-जयकार के साथ हुआ था। कांग्रेस के कार्यक्रमों, पारित प्रस्तावों तथा अध्यक्षीय भाषणों से उसकी नीति-रीति का भलीभांति आंकलन किया जा सकता है। मोटे रूप से कांग्रेस के इतिहास को चार भागों में बांटकर देखा जा सकता है।
अंग्रेज भक्ति
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक बीस वर्ष (1885-1905) का काल अंग्रेज भक्ति का काल था। यह सत्य है कि इसमें अनेक कांग्रेसी नेता देशभक्ति, समाज सेवा तथा श्रेष्ठ गुणों से युक्त थे, परंतु सबकी राजभक्ति संदेह से परे थी। उनका पाश्चात्य राजनीतिक राष्ट्रवाद उनकी प्रेरणा का मुख्य सूत्र था। उसकी भौंडी नकल ही कांग्रेस के विचार तथा चिंतन का ध्येय बिन्दु बन गया। ब्रिटिश इतिहासकारों तथा तत्कालीन प्रशासकों ने कहा कि भारत कोई राष्ट्र नहीं है। किसी ने कहा भारत में दस राष्ट्र हैं, एक ने कहा भारत में बीस राष्ट्र हैं। इसे कांग्रेसी नेताओं ने स्वीकार भी किया। उन्होंने कहा कि भारत एक बनता हुआ राष्ट्र है। इस पर तत्कालीन कांग्रेसी नेता प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा, अंग्रेजों के कारण भारत में एक राष्ट्र का उदय हो रहा है। कांग्रेसी नेता इस भ्रामक राष्ट्रवाद के शिकार बनते रहे। वस्तुत: तत्कालीन सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय चेतना को दुर्बल करने में ह्यूम सफल हुआ। (अयोध्या सिंह, भारत का मुक्ति संग्राम, पृ. 136)
1885-1905 ई. के प्रारंभिक बीस वर्षों में सभी कांग्रेस अध्यक्षों का मुख्य विषय राजभक्ति का अधिक से अधिक प्रकटीकरण तथा सरकार से कुछ सुविधाएं प्राप्त करना मात्र रहा। उदाहरण के लिए प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी को ले सकते हैं। उन्होंने तो अपनी आत्मकथा का नाम भी 'ए नेशन इन मेकिंग रखा'। 1892 में अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा, 'हम एक महान और स्वतंत्र साम्राज्य के नागरिक हैं और दुनिया के अब तक के एक सर्वोत्तम संविधान की छाया हमारे सिर पर है।' बैनर्जी ने 1902 ई. में पुन: कांग्रेस के अध्यक्षीय भाषण में कहा, 'हम ब्रिटिश राज के स्थायीत्व के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के महान संघ में स्थायी रूप से शामिल किए जाने के लिए चिन्तित और उत्सुक हैं।' (देखें, रपट इंडियन नेशनल कांग्रेस, अमदाबाद, 1902) 1899 ई. में रोमेश चन्द्र दत्त ने अध्यक्षीय भाषण में कहा, 'शिक्षित भारत ने अपने को ब्रिटिश भारत के साथ व्यावहारिक रूप से एकाकार कर लिया है। वह ब्रिटिश शासन को सदैव बनाए रखना चाहता है और ब्रिटिश राज्य का वफादार है।' इतना ही नहीं उन्होंने अपने बच्चों के बच्चों को संवैधानिक वफादारी की विरासत अपनाते हुए संघर्ष के लिए कहा। संक्षेप में कांग्रेसी नेताओं ने अंग्रेजी शासन को एक 'सच्चा और न्यायप्रिय', 'भारत में शांति तथा व्यवस्था का निर्माणकर्ता', 'भारतीयों का प्रभु' तथा 'वरदान' माना। कांग्रेस के कार्यक्रम का स्वरूप अंग्रेज सरकार से बार-बार प्रार्थना करना, याचना करना, मनवाना तथा प्रचार था।
कभी-कभी प्रतिनिधिमण्डल भेजना भी था, परंतु उनकी कोई सुनता ही न था। पी.ई. राबर्ट्स ने लिखा, 'कांग्रेस पाश्चात्य ढंग से उच्च शिक्षा की उपज थी।' (द हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया, पृ. 496)। उसने पुन: लिखा, कांग्रेस राष्ट्रीय नहीं, एक मामूली स्तर पर प्रतिनिधि थी और उसका कोई राष्ट्रीय आदर्श नहीं था। (कैम्ब्रिज मॉडर्न हिस्ट्री, भाग 12, पृ. 494-95)। कांग्रेस के सर्वेसर्वा तथा स्वयं निर्वाचित एकमात्र महामंत्री ह्यूम ने 1894 ई. में वापस इंग्लैण्ड लौटते हुए अपने भाषण में कहा था, 'अगर दुर्भाग्य से एक महान यूरोपीय युद्ध हो जाए, जिसमें इंग्लैण्ड भी भाग ले रहा हो तो वह (ह्यूम) चाहता है कि भारत के लोग मिलकर तथा बिना किसी हिचक के ब्रिटिश जनता की सहायता करें, जो उनकी भावना के अनुरूप एक श्रेष्ठ राष्ट्र है।'
राष्ट्रवाद की झलक
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दूसरा चरण 1905-1918 ई. का काल माना जाता है। इस काल में कांग्रेस की अंग्रेज-भक्ति की धारा अविरल रूप से चलती रही, जिसे गांधीजी ने 1909 ई. में अपनी पुस्तक 'हिन्द स्वराज्य' में बताया है। इनकी ऊर्जा राष्ट्रवादी नेताओं की उपेक्षा करने में, 1912 में ह्यूम की मृत्यु पर महाशोक तथा प्रथम महायुद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार की तन-मन-धन से सहायता में स्पष्ट दिखाई देती है। 1912 का बांकीपुर अधिवेशन तो ह्यूम के महाशोक में डूब गया था। डी.ई. वाचा ने ह्यूम को एक सर्वोच्च प्रभावी व्यक्तित्व, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने भारत के राष्ट्रीय जीवन का एक महान निर्माता तथा भारत की राष्ट्रीय एकता को सच्ची उन्नति देने वाला बताया। शोक प्रस्ताव में ह्यूम को कांग्रेस का संस्थापक तथा पिता कहा गया। (देखें, सतीश चन्द्र मित्तल, कांग्रेस : अंग्रेज भक्ति से राजसत्ता तक, पृ. 9-10) इतना ही नहीं। 1986 ई. में कांग्रेस के एक केन्द्रीय मंत्री ने ह्यूम की तुलना स्वामी विवेकानंद से कर दी (जनसत्ता, 2 फरवरी 1986)।
परंतु इसके साथ ही इस काल में भारतीय जनमानस में बढ़ते असंतोष, सरकार की अकर्मण्यता, कांग्रेस की अटूट अंग्रेज-भक्ति तथा उदासीनता के विरुद्ध राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति भी हुई। विदेशी घटनाओं ने इन्हें उत्तेजित किया। 20 जुलाई, 1905 ई. को लार्ड कर्जन के बंगाल विभाजन की घोषणा ने इसको बढ़ावा दिया। यहां तक कि गोपाल कृष्ण गोखले ने लार्ड कर्जन की तुलना औरंगजेब तथा रूस के जार से की। (देखें गुप्त फाइलें गृह विभाग, भारत् ा सरकार, मार्च, 1906, पब्लिक ए, नं. 5-6) गांधी जी के शब्दों में अब 'एक्सट्रीमिस्ट' या 'हिम्मतवाला पक्ष' जागरूक हुआ। ब्रिटिश दमन, दबाव तथा दहशत का जवाब प्रमुख राष्ट्रवादी नेता- लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय विपिन चन्द्र पाल तथा महर्षि अरविन्द ने दिया। तिलक ने 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार' बताया तथा केसरी में लिखा, 'हमारा ध्येय किसी भी तरह सफल न होगा, अगर हम साल में एक बार मेढकों की तरह टर्र-टर्र करते रहे।' (देखें 4 जुलाई, 1904 का अंक)। लाला लाजपतराय ने कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य ब्रिटिश राज्य की सुरक्षा करना अथवा 'सेफ्टी वाल्व' कहा। ब्रिटिश अधिकारियों ने लिखा, 'कांग्रेस पार्टी वफादार है, पर लाजपत राय खतरनाक हैं।' भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग ने उन्हें एक खतरनाक षड्यंत्रकारी माना (देखें हार्डिंग पेपर्स)। महर्षि अरविन्द ने एक लेख 'न्यू लैम्प फॉर ओल्ड' में कांग्रेसी नेताओं की अंग्रेजों के प्रति भक्ति, डरपोक भाषा और अंग्रेजी राज्य को एक वरदान मानने की कटु आलोचना की। उन्होंने तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं की कटु आलोचना की तथा कहा, 'हम इस वक्त उन अंधों की तरह हैं जिनका नेतृत्व अगर अंधे नहीं तो काने जरूर करते हैं।' (विपिन बिहारी मजूमदार व भक्त प्रसाद मजूमदार, कांग्रेस एण्ड कांग्रेसमैन इन द प्री. गांधी एरा (1857-1917) पृ. 50-51) अब राष्ट्रवादियों ने स्पष्ट रूप से कांग्रेस का उद्देश्य स्वराज्य बताया, अंग्रेज भक्ति का मार्ग त्यागा, कांग्रेस का देशव्यापी आधार होम रूल आंदोलन बनाया। उन्होंने अब कांग्रेस में स्वराज्य, स्वभाषा, स्वदेशी तथा स्वधर्म का उद्घोष किया। इस काल में हिन्दी भाषा, गऊ रक्षा, गीता, रामराज्य, वन्देमातरम, रक्षाबंधन, शिवाजी उत्सव, गणेश उत्सव, दुर्गा पूजा, भारत माता की जय आदि जयघोषों की झलक दिखाई दी। परंतु लोकमान्य तिलक की मृत्यु के साथ कांग्रेस का सांस्कृतिक एजेण्डा बिल्कुल समाप्त हो गया।
समझौतावादी कांग्रेस
अंग्रेज-भक्तों, राष्ट्रवादियों के साथ तीसरी श्रेणी समझौतावादियों की रही तथा इनका कार्यकाल सबसे लंबा अर्थात् 1919 से 1947 ई. तक रहा। इनका उद्देश्य भी भारत में स्वराज्य (डोमिनियन स्टेटस) की स्थापना से अधिक न था। इनका मार्ग भिन्न था। इनका क्रम सरकार से बातचीत, विरोध, असफलता, ठहराव तथा कुछ काल बाद फिर वही क्रम होता था। इन्हें समझौतावादी या आंदोलनवादी कांग्रेस कहा जाता है। भारत की राजनीति में गांधी जी का आगमन एक महत्वपूर्ण मोड़ था। उन्होंने अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व से कांग्रेस को जनव्यापी बनाया। उन्होंने असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, व्यक्तिगत सत्याग्रह तथा 1942 के आंदोलन किए। सभी आंदोलन असफल हुए, पर निश्चय ही राजनीतिक चेतना निरंतर बढ़ी। साथ ही 1916 में लखनऊ समझौते द्वारा कांग्रेस ने सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को स्वीकार किया। अंग्रेजों की इच्छानुसार देश की स्वतंत्रता के लिए हिन्दू-मुस्लिम सहयोग को स्वतंत्रता से भी ऊपर माना। पर गांधीजी का यह संबंध फिसलनभरी आधारभूमि पर खड़ा था जो अस्थायी तथा अवसरवादी सिद्ध हुआ तथा जिसका परिणाम भारत का विभाजन हुआ। संक्षेप में द्वितीय महायुद्ध से क्षत-विक्षत तथा लड़खड़ाती ब्रिटिश सरकार ने थके-हारे बूढ़े कांग्रेसी नेताओं को सत्ता हस्तांतरण का लालच देकर भारत विभाजन के लिए मना लिया। अनेक विद्वानों का मत है कि यदि कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने भारत के विभाजन के समय अगले 6 महीने की प्रतीक्षा की होती तो वह न होता जो भारत विभाजन के बाद हुआ।
हाय राजसत्ता!
महात्मा गांधी अपने भारतीय राजनीति में पदार्पण से लेकर देहावसान तक, कभी भी अपने आंदोलनों की असफलताओं से इतने दु:खी न थे जितना कांग्रेस में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा कांग्रेस नेताओं के क्षुद्र व्यवहार से। 1908 ई. में कांग्रेस का पहला संविधान ब्रिटिश मॉडल का अर्थात अलिखित बना था। गांधी जी ने आते ही 1919 ई. में कांग्रेस की कायापलट की सोची। इस संदर्भ में उन्हें कांग्रेस के विभिन्न भागों में आर्थिक लेन -देन की जांच करना भी था। उन्होंने कांग्रेसियों द्वारा की जा रही फिजूलखर्ची की कटु आलोचना भी की (क्लैक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, भाग 16, पृ. 489)। 1937 के दौरान प्रांतों में कांग्रेसी मंत्रिमंडल में व्याप्त भ्रष्टाचार की भी उन्होंने कटु आलोचना की।
मंत्रियों के भारी अपव्यय, सुख-सुविधाओं पर फिजूलखर्ची, क्षुद्र स्वार्थ के लिए टकराव, बोगस सदस्यता, साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने की कांग्रेसी नेताओं की धमकी, हिंसात्मक प्रवृत्ति को प्रोत्साहन, कोषों का गबन, रिश्वत लेने, पद लोलुपता, झूठ-फरेब आदि से उन्हें घोर निराशा हुई। (देखें, सतीश चन्द्र मित्तल, कांग्रेस अंग्रेज भक्ति से राजसत्ता तक प़ृ. 98-101) 1942 के आंदोलन के बाद तक कांग्रेस के बड़े- बड़े नेताओं ने भी उनकी उपेक्षा करनी शुरू कर दी। डॉ. पट्टाभिसीता रमैया के अनुसार जब गांधी जी 1944 में जेल से बाहर आए तो उन्हें लगा कि वे अब महत्वहीन हो गए हैं। उनकी अब कोई सुनता ही नहीं। कांग्रेसी नेताओं में अब सत्ता की भूख तेजी से बढ़ी। भारत के भविष्य के बारे में अब पंडित नेहरू ने गांधी जी की पूर्ण उपेक्षा की। पं. नेहरू व गांधी जी के पत्र व्यवहार से यह पूरी तरह स्पष्ट होता है।
गांधी जी ने अपने अंतिम दिनों में स्वतंत्रता के पश्चात् कांग्रेस का विघटन कर इसे लोकसेवक संघ के रूप में स्थापित करने की घोषणा की, पर उनके इस संकल्प को कांग्रेसी नेताओं ने अस्वीकृत कर दिया। अत: गांधी जी की मृत्यु से पूर्व ही कांग्रेसी नेताओं द्वारा उनके विचारों की हत्या कर दी गई थी। प्रारंभ में नेहरू ने गांधी जी का मुल्लमा ओढ़ा, पर गांधी जी की आत्मा को स्वीकार न था और फिर वही हुआ जिसका गांधी जी को डर था। -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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