जिहादी राजनीति का विज्ञान
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जिहादी राजनीति का विज्ञान

by
Nov 23, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Nov 2015 12:29:22

 

जो घटनाएं कालक्रम में बार-बार घटती रही हों; कई देशों, स्थलों पर और विभिन्न परिस्थितियों में घट चुकी हों, उनके बारे में प्रामाणिक निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है। बशर्ते ज्ञान-विज्ञान की सामान्य विधि का पालन किया जाए। अर्थात, सभी संबंधित तथ्यों का संग्रह और उनसे सामान्यीकरण करना। इसमें पूर्व-निर्धारित निष्कर्ष, पूर्वाग्रह या राग-द्वेष को जगह न दी जाए।

वर्तमान विश्व में जिहादी राजनीति वैसी ही एक परिघटना है। बार-बार, कई देशों, विभिन्न हालातों में यह राजनीति विभिन्न नामों से अपना संपूर्ण चेहरा और क्रिया-कलाप दिखाती रही है। अत: इसके भी कुछ सामान्य नियम सरलता से पहचाने जा सकते हैं। इन्हें कमोबेश सभी जगह देखा, परखा जा सकता है। उसे राजनीतिक चश्मों से समझने की सभी कोशिशें गलत साबित हुई हैं।

इस्लामी राजनीति को अपनी पूर्व-निर्धारित मान्यताओं या अपनी सुविधा के अनुकूल समझ की जिद के कारण ही पूरी दुनिया के गैर-इस्लामी नेता व बुद्धिजीवी तरह-तरह की भूल करते रहे हैं। यह प्रमुख कारण है कि दुनिया भर में चल रहे जिहादी आतंकवाद से लड़ने में वे विफल रहे हैं।

आधुनिक विश्व में इस्लाम आधारित आक्रामक, आतंककारी, अंतरराष्टÑीय राजनीति का आरंभ पश्चिम एशिया से हुआ। (यद्यपि भारत में खिलाफत आंदोलन के दौर से, यानी लगभग सौ वर्ष पहले से ही इस का दौर-दौरा रहा है)। ‘ब्लैक सेप्टेंबर’ (1970) के आतंक और म्यूनिख ओलंपिक में इस्रायली खिलाड़ियों की हत्या से यह विश्व-कुख्यात हुआ। इस प्रकार, चार-पांच दशकों से किसी न किसी रूप में इस्लामी आतंकवाद दिखता रहा है। उस के घोषित विचार और कार्य सभी देख सकते हैं। फिलिस्तीनी मुक्ति आंदोलन (पी़ एल़ ओ़) और इसके नेता यासर अराफात लंबे समय तक आतंकवादी ही थे। इन्हें पीछे छोड़ने वाले संगठन फतह और अब हमास भी आतंक में ही आगे बढ़े।

फिर ईरान में अयातुल्ला खुमैनी का इस्लामी शासन, उसकी प्रतिद्वंद्विता में सऊदी अरब द्वारा वहावी इस्लाम का दुनियाभर में प्रसार, अफगानिस्तान में सोवियत सेना के विरुद्ध पाकिस्तान की अंतरराष्टÑीय जिहादी मोर्चेबंदी, ओसामा बिन लादेन व अल कायदा का उदय और दुनियाभर में आतंकी हमले, अफगानिस्तान में तालिबान राज और अंतत: न्यूयार्क पर आतंकी कहर के बाद जिहादी आतंकवाद सबसे बड़ी अंतरराष्टÑीय समस्या बन कर खड़ा हुआ है।

किंतु इतने लंबे अनुभव के बाद भी इसकी रणनीति, कूटनीति और विचारधारा के मूल नियमों को समझा नहीं गया है। लोग इसे प्राय: अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप देखने की गलती करते हैं। जनहित, समझौते, शांति, उन्नति, विकास आदि के बारे में अपनी धारणाओं से इस्लामी विचारों को समझना सबसे बड़ी भूल रही है। यूरोप, अमरीका और भारत जैसे देशों में बड़े-बड़े बुद्धिमान मान बैठते हैं कि ‘जिन आशा-आकांक्षाओं से हम संचालित होते हैं, कुछ वैसी ही जिहादियों की भी होंगी। जैसे हम शांति व खुशहाली चाहते हैं, वही अल कायदा और इस्लामी स्टेट भी चाहते होंगे।’

पर यह बहुत बड़ा भ्रम है। इसने जिहादी राजनीति को बढ़ने, फलने-फूलने में भारी सहयोग दिया। जिस तरह सभी घाव मलहम से ठीक नहीं होते, उसी तरह हरेक राजनीतिक विवाद बातचीत या लेन-देन से नहीं सुलझता। कुछ घावों को चीरा लगाकर ही भरा जाता है, उसी तरह कुछ लड़ाइयां इस पार या उस पार की कटिबद्धता से ही समाधान पाती हैं। इस्लामी समाजों में मानवीय समानता कोई मूल्य ही नहीं है, यह साधारण सी बात पश्चिमी या भारतीय बुद्धिजीवी मानना ही नहीं चाहते। यही स्थिति विकास, उन्नति, शांति जैसे अनेक मूल्यों के बारे में है।

अत: इस्लामी राजनीति, चाहे वह पाकिस्तान, सूडान या सीरिया में हो, उसकी अपनी मानसिकता, विचारधारा, नीति और कूटनीति के सामान्य नियमों को साफ-साफ समझना उसके प्रतिकार की पहली पूर्वापेक्षा है। अन्यथा उससे निपटना नितांत असंभव है, और बना रहेगा। इस्लामवादी राजनीति आज दुनियाभर में अनेक नामों से सक्रिय है। उसके सामान्य व्यवहार के तरीके हर जगह प्रदर्शित हुए हैं। उन्हें फिलिस्तीन से लेकर कश्मीर तथा चेचन्या से नाइजीरिया तक सब कहीं पहचाना जा सकता है। वे व्यवहार कुछ सैद्धांतिक विश्वासों से बने-ढले हैं। उनमें एक यह है कि हर हाल में इस्लाम को जीतना है, दूसरों को मिटना है। बीच का हर रास्ता ‘शैतान की ईजाद’ है, वह उन्हें कदापि मान्य नहीं। ऐसे सिद्धांतों वाले प्रतिद्वंद्वी का प्रतिकार उन सिद्धांतों पर खुली चोट करके ही हो सकता है। जैसे, मार्क्स-लेनिन वाले कम्युनिज्म का हुआ था। इस्लाम स्वयं को ‘रिलीजन’ कहता है, किन्तु वह स्वयं को ‘स्टेट’, ‘लॉ’, ‘सिस्टम’ भी कहता है। इसलिए उस पर प्रहार करने में संकोच करना आत्मघात के समान है।

अर्थात, जिहादी सिद्धांत जैसा है, वैसा ही जानना आवश्यक है। इस्लामिक स्टेट, अल कायदा, लश्करे-तोयबा, सिमी, इंडियन मुजाहिदीन आदि सैकड़ों संगठन आज राजनीति में सक्रिय हैं। इनके अलावा कई मुस्लिम देशों में स्वयं सत्ताधारी हलके भी प्रत्यक्ष या परोक्ष जिहादी राजनीति का संचालन या सहयोग जब-तब करते रहते हैं। इन सबकी स्थानीय भिन्नताएं अपनी जगह हैं। किंतु उनके क्रिया-कलापों की सैद्धांतिक-व्यावहारिक समानताएं अधिक महत्वपूर्ण हैं। उसी में उनकी शक्ति और कमजोरी की थाह मिलेगी।

यदि विचार के लिए उन सभी इस्लामी संगठनों, नेताओं को ‘हम’ मान लिया जाए जो जिहाद में संलग्न हैं तो उनके व्यवहार के घोषित-अघोषित नियमों को संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है। यह वर्गीकरण कोई मनमाना नहीं है। न केवल उग्रवादी, आतंकवादी बल्कि सामान्य मुस्लिम नेता और सत्ताधारी भी पूरी दुनिया में इस्लाम और गैर-इस्लाम के वर्गीकरण का प्रयोग करते हैं। उनके कट्टरपंथी तो खुले तौर पर ‘दारुल-इस्लाम’ और ‘दारुल-हरब’, ‘मोमिन’ और ‘काफिर’ का व्यवहारगत वर्गीकरण इसी ‘हम’ और ‘वे’ के रूप में करते हुए अपनी नीतियां बनाते हैं।

तद्नुरूप, पश्चिम एशिया के अमरीकी विशेषज्ञ डेनियल पाइप्स के अनुसार, जिहादी राजनीति के व्यवहार-नियम कुछ इस प्रकार हैं :

  1. हम कभी हार नहीं मानेंगे। चाहे तुम कुछ भी करो, हम हिंसा करते रहेंगे। तुम चाहे हमें कितना भी समाधान प्रस्तावित करो, हम हमला करना नहीं छोड़ेंगे। हथियारों या शब्दों से। तुम जीत नहीं सकते, इसलिए हार तुम्हें माननी होगी।
  2. तुम्हारे दबावों से हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। कोई चीज हमारे लिए बाधक नहीं बन सकती। वार्ता से हम कायल होने वाले नहीं। न प्रलोभन हमें खरीद सकता है, न दंड का भय हमें रोक सकता है। कोई समाधान नहीं, जो इस झगड़े का अंत करे। तुम न सैनिक तरीके से जीत सकते हो, न बातचीत से शांति स्थापित कर सकते हो।
  3. यदि आर्थिक प्रतिबंध लगाओगे तो हम कहेंगे कि तुम हमारी निर्दोष जनता को भूखे मार रहे हो। फिर उससे कुछ तुम्हारी भी हानि होगी और तुम्हारे वे लोग विरोध करेंगे जिन्हें उससे घाटा होने लगेगा।
  4. तुम्हारी सैन्य कार्रवाइयों पर हम तुम्हारी नागरिक आबादी को मारेंगे। उससे तुम्हारा अंदरूनी समर्थन घटेगा। हम अपनी नागरिक बस्तियों के बीच सैनिक ठिकाने बनाकर तुम्हें मजबूर करेंगे कि हमें निशाना बनाने में तुम हमारे निर्दोष नागरिकों को मारो। इनकी हमें कोई परवाह नहीं, मगर हम दुनिया में प्रचार करेंगे कि तुम कितने पापी हो, निर्दोषों की हत्या कर रहे हो! मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हो!
  5. यदि तुम हमें अलग-थलग करने का प्रयास करोगे तो हम तुम्हारे बुद्धिजीवियों और मीडिया का उपयोग करेंगे। हम बातचीत से मामला सुलझाने और व्यावहारिक बनने, झुकने का ढोंग करेंगे ताकि वे तुम पर दबाव डालें कि हमसे बात करो। तुम्हारे समर्थक तुम्हारे ऊपर दबाव डालेंगे कि तुम हमें कुछ सहूलियतें दो, झुको। तुम्हारी सहूलियतें लेकर हम फिर किसी बहाने अपने वचन से मुकर जाएंगे, फिर हिंसा आरंभ करेंगे और इसके लिए तुम्हें दोषी ठहराएंगे।

6.अपने लोगों से हम एक बात कहेंगे, और तुम्हारे अंतरराष्टÑीय मीडिया से दूसरी बात। अपने लोगों के बीच हम तुम्हारे विरुद्ध घृणा फैलाएंगे, गाली-गलौज करेंगे, जबकि मीडिया में तुम पर आरोप लगाएंगे कि तुम नस्लवादी हो, हमारे विरुद्ध घृणा फैला रहे हो।

  1. हम अपने कमजोर और उत्पीड़ित होने की बात हर सांस में करेंगे, चाहे स्वयं हमीं क्यों न हमले कर तुम्हारे लोगों को सता रहे हों। चूंकि तुम मजबूत, विकसित और धनी हो, इसलिए तुम ही खलनायक दिखोगे। क्योंकि किसी गरीब, उत्पीड़ित से कोई संयम बरतने की उम्मीद कैसे कर सकता है! इस प्रचार में तुम्हारे बुद्धिजीवी, यानी उपयोगी मूर्ख (‘यूजफुल ईडियट्स’) हमारी पूरी मदद करेंगे।
  2. हमारे समाजों में लोकतांत्रिक, उदारपंथी नेता कम ही हैं इसलिए तुम्हें जगह-जगह नकली उदारपंथियों से समझौते करने पड़ेंगे। वे प्राय: हमारे हाथों में खेलते हैं। हमें दूर रखने और अपनी सत्ता बचाने के लिए वे वही चरमपंथी बातें कहते हैं जो हम बोलते हैं। ताकि लोग उनके साथ रहें और उन की कमियों, भ्रष्टाचार, निकम्मेपन आदि पर ध्यान न दें। इसीलिए हमारे वे शासक या नेता भी जो तुम्हारा सहयोग, अनुदान आदि लेते हैं, वे भी बात-बात में तुम्हें कोसते हैं। स्थान के अनुरूप अमरीका, इस्रायल या आऱ एस़ एस. को हर समस्या की जड़ बताते हैं, उसे मिटाने तथा अरब या मुस्लिम एकता की बात करते हैं। वे भी इस्लामी आतंकी संगठनों का बचाव, उनकी प्रशंसा करते हैं। इस प्रकार अंतत: अपने बेदखल होने और हमारा वर्चस्व बढ़ाने का उपाय करते हैं।  
  3. तुम्हारे लिए बातचीत, समझौते आदि से कोई समाधान नहीं, चाहे उसके लिए तुम कितना ही तड़पो। कोई सैनिक समाधान भी नहीं। क्योंकि तुम जीना पसंद करते हो, हम मरना। तुम विभक्त हो, हम एक हैं। तुम भौतिक सुख-समृद्धि में रमना चाहते हो, हम समर्पित क्रांतिकारी हैं। हम तुम्हें थकाकर हरा देंगे।
  4. अंतत: हमारी सबसे बड़ी शक्ति है कि तुम ऊपर गिनाई गई बातें समझते ही नहीं। तुम्हें उन लोगों ने सिखाया-पढ़ाया, नेतृत्व किया जो इस्लाम की वैकल्पिक, क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि को जानते ही नहीं। नतीजा कि हम तुम्हारे ही सबसे बुद्धिमान लोगों को महामूर्ख में बदल कर तुम्हारे विरुद्ध उपयोग करेंगे। वही तुम्हें समझाएंगे कि हमारी मदद करो, हम से सहानुभूति रखो, हमारी ये-वे मांगें मान लो, हममें विश्वास पैदा करो, हमारे दुश्मनों और अपने सहयोगियों को त्याग दो, आदि ताकि शांति हो। जो कभी नहीं होगी। हम तुम से ही ताकत हासिल कर फिर तुम्हारे विरुद्ध ही उसका प्रयोग करेंगे। इस प्रकार, अपने जीवट, अनम्यता, निर्भयता और हिंसा से हम अंतत: तुम्हें हरा देंगे। हमें तुंरत जीतने, जिंदा रहकर सुख, सत्ता भोग करने की कोई इच्छा नहीं। हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी लड़ने-मरने के लिए तैयार हैं, जिसके लिए तुम तैयार नहीं। तुम जैसे भी हो, जल्दी शांति, समाधान चाहते हो। यही तुम्हारी कब्र खोदेगी। हम तुम्हारी कब्र खोदेंगे।

उपर्युक्त सभी सामान्यीकरण किसी व्यवस्थित, गंभीर अवलोकन से प्रमाणित हैं। उदाहरण के लिए, फिलिस्तीन या कश्मीर में दशकों से तरह-तरह के इस्लामी संगठनों के काम, घटनाओं, घोषणाओं, गतिविधियों, लड़ाइयों, उनके साथ सुलह-समझौते करने की कोशिशों, गैर-इस्लामी नेताओं, बुद्धिजीवियों के बयानों तथा अब तक हुए समझौतों, समझौतों के उल्लंघन, आदि के क्रम-बद्ध विश्लेषण उपर्युक्त सभी बातें कमोबेश साफ झलकेंगी।

तब क्या जिहादी राजनीति से लड़ाई हारी मानी जाए? उपर्युक्त बातों का निष्कर्ष निराशावादी लगता है, किंतु है नहीं। आतंकी, जिहादी कितनी भी हिंसा करें, वे लोगों की जीने, हंसने, सुखी होने, सुरक्षित होने की इच्छा खत्म नहीं कर सकेंगे। यह दूसरी बात है कि इस्लामी समाजों के लोग अपने उलेमाओं, मजहबी संस्थानों के शिकंजे में, उनकी कैद में हैं। उन्हें स्वतंत्र रूप से सोचने तथा तुलनात्मक रूप से जीवन और विचारों को परखने का अवसर नहीं है। किंतु यदि स्वतंत्र विश्व, गैर-इस्लामी समाज जिहादी राजनीति को ठीक-ठीक पहचान कर उपाय सोचे तो दिखेगा कि जिहादियों से, उनकी गतिविधि और विचारधारा से खुली, लंबी लड़ाई की तैयारी करते ही वे कमजोर पड़ने लगेंगे। वे हार नहीं मानेंगे, किंतु हार जाएंगे। खुली लड़ाई स्वीकार करते ही गैर-इस्लामी समाज इस्लामी मान्यताओं की सभी कमजोरियों को उजागर करेगा, किसी तरह सुलह की आशा में उनकी झूठी प्रशंसा, अनुचित वैचारिक उदारता नहीं दिखाएगा, जिहादियों की मजहबी कल्पनाओं, बुनियादों पर चोट करने से नहीं झिझकेगा। ‘उन्हीं परिकल्पनाओं में उनकी शक्ति बसती है’, इस सत्य को पहचानना होगा।

जब जिहादियों के प्रतिपक्षी अपनी मनोवैज्ञानिक कमजोरी से मुक्त हो जाएंगे, तब वे जिहादियों पर उतना ही निर्मम वैचारिक प्रहार करेंगे। उनकी मजहबी मान्यताओं को ‘रिलीजियस बिलीफ’ या ‘भावना’ के नाम पर छूट नहीं देंगे, जिनसे जिहादियों को शक्ति मिलती है। तब जिहादियों को अपनी सभी वैचारिक प्रस्थापनाओं का बचाव विचारों से ही करना पड़ेगा, जिसमें वे नितांत असमर्थ हैं। यह उनकी नहीं, उन इस्लामी विचारों की कमजोरी है जिनसे वे परिचालित होते हैं। इसीलिए तो वे अपने मुस्लिम समाज में भी असहमति और आलोचना के सभी स्वरों को क्रूरतापूर्वक दंडित करते हैं। इसे समझना पड़ेगा कि सारी हिंसा, असहिष्णुता, साम्राज्यवादी कल्पना का स्रोत उस मजहबी विचारधारा में है। वह अदद जिहादी संगठनों या नेताओं की अपनी गलती नहीं है। इस प्रकार, जिहादियों की मजबूती उनके विचार और नीतियों आदि के बारे में फैले भ्रम में है। आम मुस्लिम भी पूरे विश्व में इस्लामी राज होने, इतिहास, मानवता और शरीयत आदि के बारे में अतिसंकीर्ण नजरिया रखने और खुद के एकमात्र सही समुदाय होने आदि बुनियादी इस्लामी सिद्धांतों के बारे में भ्रम में ही है। उन भ्रमों से ही जिहादियों को शक्ति मिलती है। जब स्वतंत्र विश्व आसान   समाधान की दुराशा छोड़कर इस्लामी व्यवहार का विज्ञान समझ लेगा, उसी दिन से जिहादी आतंकवाद का सदा के लिए खात्मा आरंभ हो जाएगा। -शंकर शरण

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