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बीते हफ्ते की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि देश में फैली तथाकथित असहिष्णुता अचानक खत्म हो गई। जो टीवी चैनल इस मुद्दे पर राष्टÑीय बहस में जुटे थे, वे अब इस बारे में बात भी नहीं कर रहे हैं। बिहार चुनाव के नतीजों की खुशी स्टूडियो में बैठे कुछ तथाकथित बड़े पत्रकारों से छिपाए नहीं छिपी। बिहार के जनमत का 2019 और उससे पहले होने वाले सभी चुनावों के नतीजों पर असर पड़ने की भविष्यवाणी होने लगी। एक क्रांतिकारी पत्रकार ने तो इसे 2014 के जनमत का ‘भूल सुधार’ तक करार दिया।
प्रधानमंत्री के ब्रिटेन दौरे की कवरेज में भी इस ‘मानसिक अवस्था’ की छाप दिखाई देती रही। लंदन में बीबीसी संवाददाता ने असहिष्णुता पर सवाल पूछा और प्रधानमंत्री ने इसका तर्कसंगत जवाब भी दिया। लेकिन कुछ चैनलों को प्रधानमंत्री का जवाब हजम नहीं हुआ। एनडीटीवी इंडिया पर संवाददाता यह बताता रहा कि ‘प्रधानमंत्री जिन सवालों से देश में बचते रहे, वे सवाल विदेश में उनके सामने खड़े हो गए।’ लंदन में हो रही उस प्रेस कान्फ्रेंस में कई भारतीय पत्रकार भी मौजूद थे। क्या उन्हें किसी ने यह सवाल पूछने से रोका था? अगर नहीं रोका था, तो ऐसे विश्लेषण का क्या मतलब समझा जाए?
नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री रहे, जिन्होंने ब्रिटिश संसद को संबोधित किया। एक राष्टÑ के तौर पर इस सम्मान के लिए खुश होने के बजाय एक बड़ी पत्रकार ने ट्वीट करके यह बताया कि दरअसल, मोदी ने ब्रिटिश संसद को नहीं, बल्कि सिर्फ रॉयल गैलरी में सांसदों को संबोधित किया है। जबकि सच्चाई यह है कि संसद का सत्र जारी न होने की वजह से ऐसा किया जाता है और ऐसे किसी भाषण का भी वही महत्व होता है।
बयानों को गलत तरीके से दिखाने का पुराना खेल भी जारी है। इस बार भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इसका शिकार बने। चित्रकूट में नानाजी देशमुख के बारे में शाह ने बताया कि कैसे उन्होंने 60 वर्ष की उम्र के बाद अपने जीवन का ध्येय बदल लिया था। मीडिया ने इस भाषण में वही सुना, जो वह सुनना चाहता था। सभी चैनलों ने ब्रेकिंग न्यूज चलाई कि ‘अमित शाह ने कहा है कि 60 वर्ष के बाद राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए।’ एक बार गलत खबर चल जाए तो वह सच पर हावी हो जाती है। अमित शाह ने स्पष्टीकरण दिया, लेकिन उस ‘बयान’ पर भी प्रतिक्रियाओं का आना जारी है, जो उन्होंने कभी दिया ही नहीं।
पेरिस में हमले के बाद कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर और सपा नेता आजम खान ने आतंकवाद के समर्थन में खुलेआम बयान दिए। थोड़े-बहुत जिक्र के अलावा मीडिया ने इन आपत्तिजनक बयानों को नजरअंदाज करने की कोशिश की। सोशल मीडिया नहीं होता तो बहुत लोगों को पता भी नहीं चलता कि देश के ये ‘कर्णधार’ आतंकवाद पर ऐसी राय रखते हैं। जब फ्रांस के राजदूत ने इनके बयानों को ‘दु:खद’ करार दिया तब जाकर सेकुलर मीडिया का थोड़ा ध्यान इस बयानबाजी की ओर गया। उधर, मणिशंकर अय्यर ने तो बाकायदा पाकिस्तान से मदद मांगी कि वह मोदी सरकार को हटाने में कांग्रेस की मदद करे। अय्यर ने पाकिस्तानी चैनल पर खुलकर भारत की पाकिस्तान नीति की आलोचना की। यह वीडियो जी न्यूज चैनल पर चला, लेकिन बाकी चैनलों ने भरसक आंख मूंदने की कोशिश की। 2-3 दिन तक सोशल मीडिया पर यह वीडियो फैलने के बाद बाकी चैनलों को भी इसे दिखाने को मजबूर होना पड़ा। लेकिन जो चैनल हर छोटी-मोटी बयानबाजी के लिए सीधे प्रधानमंत्री से सफाई मांगते हैं, वे मणिशंकर अय्यर के बयान को लेकर सोनिया गांधी पर सवाल उठाने से बच रहे हैं। मणिशंकर अय्यर के बयान में छिपा बेहद खतरनाक संदेश क्यों नहीं दिखाई दे रहा है?
भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सबूतों के साथ दावा किया कि राहुल गांधी ने 2003 से 2009 के बीच खुद को ब्रिटिश नागरिक बताया था। लेकिन लगभग सभी चैनलों इसे स्वामी के आरोप के तौर पर दिखाया। एनडीटीवी ने दस्तावेजों की सत्यता की जांच की और इन्हें सही पाया, लेकिन इतने बड़े खुलासे को जो मीडिया कवरेज मिली वह उस अनुपात में काफी कम है।
15 नवंबर को कई चैनलों ने नाथूराम गोडसे का ‘बलिदान दिवस’ जोर-शोर से दिखाया। एबीपी न्यूज ने बताया कि कार्यक्रम में मुश्किल से 50 लोग भी नहीं थे। सवा करोड़ लोगों के देश में जिस विचार के लिए 50 लोग भी नहीं जुटे, उसे इन चैनलों ने दिनभर प्रमुखता से दिखाया। गोडसे को लेकर ऐसे कार्यक्रम पहले भी होते रहे हैं, लेकिन इन्हें मीडिया जो महत्व अब दे रहा है उसके पीछे कोई न कोई एजेंडा तो जरूर है। ‘द हिंदू’ अखबार ने तो बाकायदा खबर छापी कि ‘संघ और भाजपा गोडसे का बलिदान दिवस मनाएंगे’। जब रंगे हाथ पकड़े गए तो संपादक ने सारा ठीकरा रिपोर्टर पर फोड़कर माफी मांग ली। इसे सच का डंका बजाकर झूठ को स्थापित करने का खेल न कहें तो क्या कहें? नारद
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