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फ्रांस की राजधानी पेरिस सन्न रह गई, उस वक्त जब एक के बाद एक, सात धमाके हुए। और पूरा शहर ही नहीं, पूरा देश और फिर पूरी दुनिया दहल गई इन धमाकों से। पेरिस अभी शार्ली एब्दो पर हुए हमले की पीड़ा से उबरा नहीं था, तिस पर कुछ ही महीने बाद एक और बड़ा हमला। 150 से ज्यादा लोग मारे गए, सैकड़ों गंभीर रूप से घायल हुए। पहली प्रतिक्रिया में ही लोग दांत पीसते हुए इस्लामी आतंक को जिम्मेदार ठहराने लगे थे जिसकी तस्दीक थोड़ी देर में ही आईएसआईएस की मुनादी ने कर दी कि हां, हमने किए हमले। मजहब के नाम पर लोगों का सरेआम कत्ल करना और निर्दोषों की मौत का जश्न मनाना। यही है उनके तथाकथित 'खलीफा के राज' का असली चेहरा। इस्लामी हमलावरों ने नेशनल स्टेडियम और रेस्तराओं पर हमला बोला था, उन जगहों पर इसलिए क्योंकि ज्यादा से ज्यादा लोग मारे जाएं। एक सुनियोजित साजिश। हमले के बाद से यूरोप में मुसलमान शरणार्थियों का पनाह देने के फैसले का विरोध शुरू हो गया है। एक तरह से दूसरे विश्व युद्ध के बाद फ्रांस पर यह सबसे बड़ा हमला था।
राष्ट्रपति ओलांद ने फौरन हरकत में आते हुए सीरिया में जिहादियों के ठिकानों पर बमबारी के आदेश देते हुए आर-पार की लड़ाई का ऐलान कर दिया है। अब तो फ्रांस ही नहीं, बल्कि देनिया के ज्यादातर ताकतवर देश मिलकर इस कोढ़ को खत्म करने के पक्ष में एकजुट होते दिख रहे हैं। जी-20 के सभी सदस्यों ने आतंकवाद के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने का संकल्प लिया है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा कि आतंकवाद से रक्षा के लिए जल्द ही एक व्यापक योजना संयुक्त राष्ट्र महासभा में पेश की जाएगी।
महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या फ्रांस में यह आतंकी हमला आतंकवाद के नए स्वरूप की व्याख्या करता है? फ्रांस में छोटे-मोटे हमले पिछले कुछ महीनों में कई बार हुए हैं लेकिन इस तरह के सुनियोजित हमले का होना कई खतरनाक मंसूबों को जन्म देता है। आईएस अपने खिलाफ बने गठजोड़ को चुनौती देने का मन बना चुका है। यह हमला उस परिवर्तित सोच का नतीजा है। इससे पहले रूस के एक विमान को ध्वस्त करने की जिम्मेदारी वह ले चुका है।
उल्लेखनीय है कि आईएसआईएस के मसले पर न तो यूरोपीय देश और नही मध्यपूर्व के देश पूरी तरह से एकजुट हैं। कई बार उनके स्वार्थ आपस में टकराने लगते हैं और एक सुनियोजित मुहिम आईएस के विरुद्घ नहीं हो पाती। ईरान आईएसआईएस के खिलाफ लड़ तो रहा है, पर वह अमरीका के साथ नहीं है। इस युद्घ में अमरीका और रूस के एजेंडे में भी फर्क है अमरीका जहां आईएसआई को खत्म करने के साथ सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद को भी हटाना चाहता है, वहीं रूस का असद के प्रति नरम रुख है।
जी-20 बैठक में भारतीय प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ की मजबूती का हवाला दिया। भारतीय सोच के अनुसार आतंकवाद पूरे विश्व के लिए मवाद बन चुका है, इसलिए एक देश या कुछ देशों के संगठन के झंड़े तले लड़ाई अधूरी और बेतरतीब होगी। भारत वषार्ें से कहता आ रहा था कि पाकिस्तान इस्लामिक आतंकवाद का अड्डा है, पश्चिमी देशों ने भारत की आवाज नहीं सुनी। बल्कि अपने स्वार्थ के लिए आग में घी डाला। जब अमरीका में हमले हुए तो सबकी नींद खुली। अब पूरा पश्चिमी यूरोप आतंकियों के निशाने पर है। इस बात को समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि आखिरकार फ्रांस में ही आईएसआईएस ने ऐसा क्यों किया? इसके कई कारण हैं। पहला फ्रांस में मुस्लिम तादाद अन्य यूरोपीय देशों से ज्यादा है।
18वीं शताब्दी में फ्रांस ने अफ्रीकी देशों को अपना उपनिवेश बनाया जो मुख्यत: मुस्लिम देश थे। उन गरीब मुस्लिम देशों से गरीब मजदूरों को फ्रांस के उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों को लाया गया। ये मुस्लिम आबादी फ्रांस की गंदी बस्तियों में रहने लगी। द्वितीय विश्वयुद्घ के उपरांत जब फ्रांस के बहुतेरे उद्योग बंद होने लगे तब इन बस्तियों में रहने वाले अफ्रीकी मुस्लिम आबादी की आर्थिक स्थिति से तंग होने लगी। इन लोगों की पुनर्वापसी अफ्रीकी देशों में भी नहीं हुई। दूसरी तरफ फ्रांस में दो प्रतिगामी राजनीतिक परिवर्तनों की लहर चल पड़ी। एक बहुआयामी संस्कृति की छाया पनपने लगी, जिसमें बोलने और लिखने की स्वतंत्रता की बात शुरू हुई। शार्ली एब्दो पत्रिका इस परिवर्तन का सूचक था, जहां से परंपरागत सामाजिक और पांथिक ढांचे को निशाना बनाया गया।
जब सीरिया में अमरीकी सैनिकों के साथ फ्रांस भी बमबारी में सम्मिलित हुआ तो आईएस ने फ्रांस पर हमले का मन बना लिया। फ्रांस के भीतर मौजूद द्गिभ्रमित मुस्लिम आबादी और शरणार्थियों के हुजूम में फिदायीन हमलावरों ने मौका मिलते ही बड़े आतंकी हमले को अंजाम दे दिया।
(लेखक केंद्रीय विश्वविद्यालय, झारखंड में
अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग के विभागाध्यक्ष हैं)
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