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भारत और चीन को सलीब तले लाने में जुटा प्रोटेस्टेंट चर्च

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Nov 2, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Nov 2015 12:03:39

प्रोटेस्टेंट पंथ, दुनिया में जिसके अनुयायियों की संख्या कैथोलिकों के बाद क्रमांक दो पर है, आज दो बड़े प्रसंगों से गुजर रहा है। यद्यपि पूरी दुनिया में कैथोलिक पंथ अर्थात पोप का तंत्र हावी दिखता है, लेकिन ब्रिटिश वालों के साथ साथ प्रोटेस्टेंट पंथ ने अपने पांव पूरी दुनिया में फैलाए हैं, इसलिए अधिक आक्रामक पंथ के रूप में ही उसका वर्णन किया जाता है। भारत में ईसाईकरण के मुद्दे पर इनका ही नाम अधिक होता है, इसलिए इस पंथ के संदर्भ में होने वाली घटनाओं को लेकर भारत को अधिक सतर्क होना चाहिए। आज जिन दो महत्वपूर्ण मोड़ से यह पंथ गुजर रहा है, उनमें एक तरफ है चीन में बड़े पैमाने पर उसकी वृद्धि, तो दूसरी तरफ है समलैंगिकों के अधिकारों के मुद्दे पर 500 वर्ष पुराने और पूरी दुनिया में फैले इस समाज के दो फाड़ होने की आशंका।

तीन वर्ष पूर्व प्रोटेस्टेंट पंथ के मुख्यालय माने जाने वाले चर्च आॅफ इंग्लैंड के प्रमुख के पद पर डॉ. जस्टीन वेल्बी को नियुक्त किया गया। मूलत: तेल कंपनी के लिए बड़ा व्यवसाय करवाने वाले व्यक्ति के तौर पर विख्यात डॉ. वेल्बी को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। चर्च आॅफ इंग्लैंड का व्याप पूरी दुनिया में है। हालांकि यह कैथोलिक पंथ जितना व्यापक नहीं है लेकिन आक्रामकता की दृष्टि से विचार किया जाए तो यह कैथोलिक पोप के साम्राज्य से भी अधिक आक्रामक है। उन्होंने चीन में अगले 15 वर्ष में ईसाइयों की संख्या तीन से चार गुना बढ़ाने का उद्देश्य सामने रखा है। चीन में ईसाइयों की संख्या 10 करोड़ है। कुछ लोगों के मत में वह छह करोड़ है जबकि कुछ के अनुसार संख्या 12 करोड़ है। लेकिन इसमें एक बात तो तय है कि अगले 15 वर्ष में यह संख्या 15 करोड़ से अधिक ले जाकर चीन को विश्व में क्रमांक एक का ईसाई देश बनवाने का उनका प्रयास पूरी ताकत से चल रहा है।

डॉ. जस्टीन वेल्बी के हाल ही में चीन के दौरे को महत्वपूर्ण माना जा रहा है। चीन में ईसाइयों की वृद्धि को लेकर वहां की साम्यवादी सरकार की स्थिति ‘न उगलने न निगलने’ जैसी है। लेकिन तेजी से बढ़ती यह संख्या भले सुखद प्रतीत हो, फिर भी इससे दूसरी तरफ यह पूरा पंथ ही कहीं दो फाड़ न हो जाए, ऐसा भी लग रहा है। इसका मुख्य कारण समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने, न देने की कशमकश है। उनकी दृष्टि से यह सवाल केवल उन देशों का राष्टÑीय प्रश्न नहीं रहा बल्कि अंतरराष्टÑीय स्तर पर गंभीर प्रश्न बन चुका है। अनेक देशों की सरकारों का भविष्य इस प्रश्न पर टिका है।

भारत की दृष्टि से चीन में कन्वर्जन गंभीर प्रश्न है, क्योंकि बढ़ता ईसाईकरण केवल चीन की ही नहीं बल्कि एशिया के अनेक देशों की समस्या बन चुका है। भारत में नागालैंड एवं मिजोरम में हुए कन्वर्जन का कारण ईसाइयों का बैप्टिस्ट पंथ अर्थात प्रोटेस्टेंट्स का ही एक उपपंथ बना था। अन्य किसी भी पंथ से अधिक भारत से इस पंथ का निकट संबंध है, क्योंकि अंग्रेजों के सत्ताकाल में इस पंथ की भारत में अधिक वृद्धि हुई थी। आज भी इस पंथ के नियंत्रण में इस देश की बड़ी-बड़ी चर्च संपत्तियां हैं।

आर्चबिशप आॅफ केंटरबरी डॉ.जस्टीन वेल्बी के चीन के दौरे की ओर पूरी दुनिया का ध्यान खींचे जाने का कारण यह है कि आज पूरी दुनिया अलग अलग पंथों की आबादी के आंकड़ों की खींचतान से गुजर रही है। पिछले पांच-छह महीनों में जनसंख्या के आंकडेÞ अंतरराष्टÑीय राजनीति में चर्चा का विषय बने हैं। आज तक सेना की शक्ति, उसके आधार पर आक्रमण, आर्थिक सत्ता, राजनीतिक सत्ता, औद्योगिक सामर्थ्य, सीमा विवाद जैसे विषय अंतरराष्टÑीय कूटनीति के विषय बनते थे। इसमें अचानक जनसंख्या युद्ध का विषय समाविष्ट हुआ और इस दृष्टि से कुछ तेवर अपनाए जाते भी दिखाई दिए। मुख्यत: ईसाई और मुस्लिम, ये दो विश्व के सबसे बड़े समुदाय एक दूसरे पर वर्चस्व बनाने के लिए 100-100 करोड़ की जनसंख्या वृद्धि का लक्ष्य रखकर काम कर रहे हैं, यह बात अमरीका की सर्वेक्षण संस्था ‘पीयू’ की एक रिपोर्ट से स्पष्ट हुई है। इस दृष्टि से विश्व में बातचीत के एजेंडे तय हो रहे हैं। दूसरी तरफ भारत में मुस्लिम समुदाय की पिछले 10 वर्ष में भारतीय जनसंख्या में एक से डेढ़ प्रतिशत वृद्धि हो चुकी है। जो स्थिति भारत में है दुनिया में उससे अलग स्थिति नहीं है। जनसंख्या वृद्धि के ऐसे आंकड़ों से ही विश्व में जगह जगह पर युद्ध जैसी स्थिति बनने की संभावनाएं दिख रही हैं।

प्रोटेस्टेंट पंथ के प्रमुख डॉ. जस्टीन वेल्बी के कुछ महीने पूर्व चीन के दौरे से विश्व के जनसंख्या निरीक्षकों के कान अभी तक खड़े हैं। पिछले पांच वर्ष में चीन में चर्च की 5200 इमारतें बनी हैं। वहां एक तरफ चर्च की इमारतें बन रही हैं वहीं दूसरी तरफ वे गिराई भी जा रही हैं। लेकिन इमारतें गिराने की वजह के तौर पर उनको ‘चर्च की इमारत’ न दिखाकर ‘गैरकानूनी निर्माणकार्य’ दिखाया जाता है। डॉ. वेल्बी के चीन के दौरे में एक तरफ उनका स्वागत का वातावरण था तो वहीं दूसरी तरफ सरकार उन्हें चीन के ईसाई समुदाय से अधिक मिलने से रोक रही थी। वे राजधानी बीजिंग में ठहरे थे, वहां से नजदीक के इलाके के कुछ हिस्सों में पिछले वर्ष चीन ने चर्च की 500 इमारतें गिराई थीं लेकिन प्रयास यह था कि वेल्बी वहां न जाएं। बीजिंग विश्वविद्यालय में भी उनके भाषण में किसी स्थानीय मुद्दे का उल्लेख नहीं था बल्कि आध्यात्मिक विषय ही थे जैसे कि पूरा समाज अगर एकजुट होकर काम करे तो ईश्वर को भी यह पसंद आता है। इस बैठक में चीन की पोलित ब्यूरो के सदस्य यू. जेंगशेंग ने केवल यही कहा कि पूरा समाज साथ है, वे बाकी सब मुद्दों को टालते दिखे। इस कार्यक्रम का समाचार एक स्थानीय समाचार पत्र ग्लोबल टाइम्स नामक सरकारी समाचार पत्र में संक्षिप्त रूप में दिखाई दिया। लेकिन यूरोप-अमरीका के मीडिया में इस प्रसंग का वर्णन इस तरह किया गया मानो ‘अब शीघ्र ही चीन में ईसाई जनसंख्या के 25 करोड़ होने की प्रक्रिया को गति मिल जाएगी’। आर्चबिशप आॅफ केंटरबरी डॉ. जस्टीन वेल्बी के दौरे पर विश्व के ईसाई मीडिया द्वारा आज भी जो चर्चा जारी है, उसमें अपेक्षा व्यक्त की जा रही है कि फिलहाल ब्राजील, अर्जेंटीना, मेक्सिको और अमरीका का हर प्रांत ही विश्व में ईसाई बहुत देशों/ प्रांतों के तौर पर जाने जाते हैं। लेकिन शीघ्र ही चीन उनसे अधिक ईसाई जनसंख्या वाले देश के रूप में जाना जाएगा। साथ ही वहां के ईसाइयों की संख्या भी चीन के कम्युनिस्टों की सदस्य संख्या से अधिक होगी, इसलिए वहां अगर जल्दी ही ईसाइयों का राज हो जाए तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

चीन में प्रोटेस्टेंट्स की वृद्धि की पृष्ठभूमि में इस पंथ को एक बिल्कुल अलग ही स्थिति का तीव्रता से सामना करना पड़ रहा है। वह यह कि इस पंथ के दो टुकडेÞ होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इसका कारण यह है कि समलैंगिक विवाहों और मित्रता के संदर्भ में दो बड़े खेमे बने हैं और इस पर कठोर भूमिकाएं ली जा रही हैं। आज इसी विषय पर वैश्विक स्तर पर कुछ बड़े सम्मेलन जारी हैं। इस मुद्दे पर यह पंथ न टूट जाए, इसके लिए प्रयास चल रहे हैं। लेकिन किसी मुद्दे पर किसी पंथ का विभाजन अमरीका, यूरोप के संदर्भ में बहुत बड़ी बात नहीं मानी जा सकती। क्योंकि यूरोप-अमरीका की अनेक सरकारें इसी मुद्दे पर गिर रही हैं। बिशप, आर्चबिशप एवं कार्डिनल के स्तर पर एक महत्वपूर्ण मुद्दा चर्चा में आता है कि जब समलैगिंक मित्रता अथवा विवाह का आग्रह करने वाले अनुयायी चर्च में आते हैं तो पंथ प्रमुखों को उन पर कृपा करनी चाहिए या नहीं। इस पर कुछ चर्च नेताओं का कहना है कि ‘ईसाई मत जिस परमेश्वर परंपरा को मानता है उसमें परमेश्वर की निर्मिति ही ऐसे संबंधों से हुई है, तो अगर बिशप भी इसका अनुसरण करें तो गलत क्या है।’

इस तरह एक तरफ नई वृद्धि की नई दिशाएं खोलता पंथ है तो दूसरी तरफ विभाजन की संभावना से जुझता हुआ पंथ है। कैथोलिक पंथ पर जिस तरह पोप का एकछत्र राज है, वैसी स्थिति इस पंथ की नहीं है। लेकिन ब्रिटेन से भारत तक इसमें हर एक गुट का स्वरूप स्वतंत्र है। कानून की दृष्टि से और स्थानीय सुविधा की दृष्टि से हर एक का अस्तित्व स्वतंत्र होने के बाद भी शायद यह पंथ अधिक संगठित है। इसके पीछे कई कारण दिखते हैं। असंगठित होकर भी यह पंथ विश्व पर अधिकाधिक वर्चस्व रखने वाला है। 85 करोड़ अनुयायियों वाला यह प्रोटेस्टेंट पंथ इंग्लैंड तक सीमित है।

भारत के प्रोटेस्टेंट चर्च का ब्रिटेन वाले चर्च से वैसे कोई संबंध नहीं है, लेकिन फिर भी उस पर चर्च आॅफ इंग्लैंड का पूरा नियंत्रण है। हर एक देश का प्रोटेस्टेंट चर्च यद्यपि स्वतंत्र है फिर भी उसका उन सब पर नियंत्रण है। दूसरा यह कि चीन की तरह भारत में भी उसके व्यापक विस्तार का काम जारी है। नागालैंड में 60 वर्ष पूर्व विभाजन का जो आंदोलन खड़ा हुआ था वह बैप्टिस्ट चर्च के कारण ही हुआ था। भारत में लंबे समय तक अंग्रेजों की सत्ता थी। इस चर्च को अंग्रेजों ने भारत के बड़े-बड़े शहरों के छावनी इलाकों में बड़ी जमीनें दी थीं। वे अब सोने के भाव हैं। देश की जमीनों से आए पैसे के कन्वर्जन में लगने की संभावना है। अत: भारत को इस पंथ के तेजी से विस्तार की योजनाओं के बारे में पूरी तरह सतर्क रहने की आवश्यकता है।   मोरेश्वर जोशी

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