|
पाकिस्तान के विसर्जन की शुरुआत तो उसी दिन हो गई जब 1971में बंगलादेश का निर्माण हुआ था। कुदरत के नियम के अनुसार अप्राकृतिक स्थितियां कभी टिकी नहीं रह सकती हैं। एक न एक दिन उनकी समाप्ति निश्चित है। राष्ट्र भी एक प्राकृतिक इकाई है इसलिए उसके अंग भी अलग-अलग नहीं रह सकते हैं। जब समय आता है वे अपने पिंड से जुड़ जाते हैं। इस नियम के आधार पर मुझे लगता है कि भारत का विभाजन नैसर्गिक कसौटी पर सही नहीं था। परिस्थितियों के जन्म लेते ही उनका जुड़ जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है। पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर से उठती आवाजें क्या इसी प्रक्रिया का एक चरण हैं?
पिछले दिनों रा.स्व.संघ के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार ने अखंड भारत विषय पर बोलते हुए कहा कि वर्ष 1930 में रावी के तट पर तत्कालीन कांग्रेस ने अखंड भारत और पूर्ण स्वराज का संकल्प लिया था। लेकिन कांग्रेस ने 17 वर्ष के भीतर ही अपने उस संकल्प को भुला दिया। अपने विचारों की शृंखला में उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता पूर्व राजस्थान में जैसलमेर एवं अमरकोट हिन्दू सत्ताएं थीं। इन दोनों में बड़ी अनबन थी। अमरकोट ने निर्णय लिया कि जैसलमेर जहां भी जाएगा वह उसके विरुद्ध जाएगा। उसने स्वयं का पाकिस्तान में विलय कर दिया। इस प्रकार हिन्दू बहुल अमरकोट आज पाकिस्तान में सर्वनाश के कगार पर है। अंग्रेजों की यह सोच थी कि भारत विश्वशक्ति न बने इसलिए भारत को विभाजित कर देना उनका उद्देश्य बन गया था। अमरकोट का विलय भारत में कब होगा, यह कहना तो अभी जल्दी होगी, लेकिन लगता है कि बंगलादेश बनने के बाद पाकिस्तान के कब्जे में जो कश्मीर का हिस्सा है वहां से उठती आवाजों में इस इच्छा की गूंज है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने अपने सम्बोधन में एक बार कहा था कि यदि भारत दस वर्ष पूर्व स्वतंत्र हो जाता तो सम्भवत: पाकिस्तान नहीं बनता। दूसरे महायुद्ध में अपनी आर्थिक बर्बादी से निपटने के लिए ही पाकिस्तान का निर्माण हुआ। एक हिस्से को उसने भले हथिया लिया हो, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि पाकिस्तान के लाख प्रयास करने पर भी वह अपने इस हथियाये हुए भाग को न तो पचा सका है और न ही वहां के नागरिकों के गले अब तक कोई बात उतार सका है। घाव पर पट्टी बांध देने से वह छिप तो सकता है लेकिन इससे उसका स्थायी इलाज नहीं हो सकता है। यह घाव अब पाकिस्तान के लिए कैंसर बन गया है जो न केवल बीमारी का रूप है, बल्कि उस बीमार की ही जान लेकर उससे अलग हो सकेगा। वास्तविकता तो यह है कि अब यह विस्फोट होकर ही रहेगा।
पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर में सन् 1988-89 तक चौधरी गुलाम अब्बास और सरदार अब्दुल कय्यूम की जोड़ी अपने गिनती के चाटुकारों के साथ सत्ता पर काबिज रही। उस दौर में दोनों समय-समय पर आपस में तथाकथित राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद की अदला-बदली करते रहे। लेकिन उन्हें अपने निजी ठाट-बाट से लेकर प्रदेश में काम करने तक इस्लामाबाद का ही मुंह देखना पड़ता था। सरकार ने अपने इने-गिने और पिट्ठू नौकरशाहों का एक अलग से विभाग बना दिया था। उन पर ही प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की गद्दी टिकी रहती थी। वे सब कुछ होने के बावजूद एक क्लर्क तक को न तो हटा सकते थे और न ही किसी को नियुक्त कर सकते थे। इसलिए जब इस पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के लोग शेष कश्मीर के लोगों को देखते थे तो स्वाभाविक रूप से उनके मन में उबाल उठता था। तब अपनी इस गुलामी की जंजीर को तोड़ने के लिए वे बेचैन हो उठते थे।
आज वहां जो हो रहा है वह आधी सदी का प्रतिशोध है। अपने ही पड़ोस में बसे शेष कश्मीर केनिवासियों से जब उनका मेल-मिलाप होता है तो उनका पाकिस्तान की सत्ता के साथ टकराव बढ़ जाता है। आज वहां जो कुछ हो रहा है वह 60 साल की पुरानी बीमारी का ही नतीजा है। मीडिया में समय-समय पर इसके स्वर भी बुलंद होते थे, लेकिन इस्लामाबाद तो अपने ही सपनों में खोया रहता था। 'पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पाकिस्तान का अंग नहीं है। इसलिए गिलगित और बाल्टिस्तान के बारे में उसे निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है। यह हिस्सा जम्मू-कश्मीर का ही अंग है।' यह स्पष्ट आदेश पाकिस्तान के ही सर्वोच्च न्यायालय ने 2008 में दिया था। पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के प्रधानमंत्री के अतिरिक्त अंजुमन मिहासे रसूल के अध्यक्ष मौलाना सैयद अजहर देहलवी ने वहां के पांच दिवसीय दौरे से लौटने के बाद कहा, 'जिस प्रकार भारत ने युद्ध स्तर पर बाढ़ पीडि़तों की सहायता की है उससे पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के लोग बहुत खुश हैं। वहां के 99 प्रतिशत लोग भारत के साथ जाना चाहते हैं।'
पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के लोगों का पाकिस्तान सरकार से सवाल है कि 1963 में कश्मीर का 5180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र चीन को उपहार में देने से पहले यहां की स्थानीय जनता को पूछा क्यों नहीं? उसने संयुक्त राष्ट्रसंघ के उस प्रस्ताव को मान्यता नहीं दी जिसके अनुसार जनमत संग्रह कराने से पहले पाकिस्तान को यह सारा क्षेत्र खाली करवाना था। लेकिन पाकिस्तान उसे अपनी जागीर समझकर हर बड़े से छोटे पद तक में नियुक्ति इस्लामाबाद से कराता है। नियंत्रण रेखा के आस-पास की आबादी को हटाकर उस पर पाकिस्तान के आतंकवादियों, अफगान शरणार्थियों एवं पाकिस्तान परस्त दहशतगर्दों को लाकर बसा देता है। इस प्रकार उनका क्षेत्र तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अड्डा बन गया है। वहां चीन से लगाकर सभी अन्य देशों की सत्ता का हस्तक्षेप यह बतलाता है कि उनकी मातृभूमि का सौदा पाकिस्तान के सत्ताधीश हर किसी से कर लेते हैं। उन्हें विश्वास हो गया है कि वे उस हिस्से को लम्बे समय तक सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकते हैं। उनमें ईर्ष्या की यह भावना जाग्रत हो गई है। पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के लोग शेष कश्मीर के साथ मिलकर अपनी इस पवित्र भूमि को बचाने का संकल्प कर चुके हैं।
इसलिए पाकिस्तानी कब्जे वाला कश्मीर तो आज नहीं तो कल, भारतीय कश्मीर से मिल ही जाएगा। लेकिन स्वयं पाकिस्तान के दो बड़े राज्य सिंध और बलूचिस्तान भी स्वतंत्र होने के लिए बेचैन हैं। पाठक अच्छी तरह जानते हैं कि बलूचिस्तान स्वतंत्र होने के लिए पिछले कई दशकों से बेचैन है।
बलूचिस्तान पाकिस्तान का सबसे बड़े क्षेत्रफल वाला प्रदेश है। बलूच जनता स्वतंत्र और उन्मुक्त स्वभाव की है। वह कभी किसी के अधीन नहीं रहना चाहती। बलूचिस्तान ईरान और अफगानिस्तान से जुड़ा हुआ इलाका है। इसके सर्वश्रेष्ठ तट पर ग्वादर नामक बंदरगाह है। हिन्द महासागर के तट पर स्थित यह बंदरगाह एशिया के मध्य एवं उत्तर पश्चिम देशों से जुड़ा हुआ है, जिसमें न केवल कजाकिस्तान और उसके आस-पास के 6 देश बल्कि चीन और रूस तक से उसकी सीमाएं मिलती हैं।
पाकिस्तान की सुरक्षा की दृष्टि से ग्वादर सबसे महत्व का बंदरगाह है। लेकिन यहां की जनता ने अपने आपको मानसिक और सांस्कृतिक रूप से खुद को कभी पाकिस्तान का भाग नहीं माना है। उन पर चाहे जो कब्जा कर ले, लेकिन मूलभूत रूप से वे किसी की भी गुलामी के अभ्यस्त नहीं हैं। इसलिए पाकिस्तान सरकार से उनका टकराव बने रहना कोई नई बात नहीं है।
भौगोलिक और सामरिक रूप से यह प्रदेश पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए यहां के नेता गौस बख्श बिजेंजो ने पाकिस्तान निर्माण के समय ही यह कहा था कि बलूच जनता किसी की गुलामी में नहीं रहती है।
पिछले कुछ समय से पाकिस्तान सरकार के साथ बलूचों का संघर्ष चल रहा है। पाकिस्तान सरकार केवल इसकी भौगोलिक स्थिति को ही दृष्टि में रखते हुए अपनी सीमाओं में बनाए रखना चाहती है। लेकिन इस पर आज तक वहां की कोई सरकार अपना वर्चस्व नहीं जमा सकी है। पाकिस्तान का भविष्य इस समय तो अधर में है। आने वाले विश्व मानचित्र में केवल पाकिस्तानी पंजाब ही पाकिस्तान के नाम से जाना जाए तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं होगी।
मुजफ्फर हुसैन
टिप्पणियाँ