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नाम, बस नाम के लिए ही नहीं रह जाते कुछ लोगों के जीवन में। काल का पहिया उनको ऐसी-ऐसी परीक्षाओं से गुजारता है कि दम-खम के पक्के उनमें तप कर अपना नाम सार्थक करते हैं। विजया की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। एक के बाद एक मुसीबतों के पहाड़ टूटे, लेकिन अपनी जीवटता के बूते उसने हर बार ऐसा संघर्ष किया, अपने मन को ऐसा मजबूत बनाया कि उस मजबूती के आगे हर मुसीबत परास्त हो गई। यह कहानी है प. बंगाल के हुगली जिले में श्रीरामपुर में रहने वाली विजया की। पहिए वाली कुर्सी के सहारे बढ़ते उस जीवन की, जिसने न सिर्फ अपनी राह बनाई बल्कि अपने जैसे शरीर से अक्षम कितने ही बालकों के जीवन को नए मायने देने का बीड़ा उठाया।
बात शुरू होती है 1995 से। कालेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद बाकी लड़कियों की तरह विजया के मन में भी जिंदगी में कुछ कर गुजरने के, आगे के कैरियर के बारे में सोचने और बाकियों से कुछ अलग करके दिखाने के सपने थे। पर रह्यूमेटॉइड आर्थराइटिस ने शरीर के जोड़ों को ऐसा जकड़ दिया कि चलना-फिरना मुश्किल हो गया। दर्द ऐसा कि जरा हाथ हिलाया नहीं कि जान निकली। पिता श्री ओमप्रकाश मिश्र ने लाख दवाई की, सब नामी डाक्टरों, वैध, हकीमों को दिखाया पर आराम नहीं आया। मर्ज बढ़ता गया। तब किसी ने सलाह दी, हरिद्वार में बाबा रामदेव के पतंजलि संस्थान में इलाज संभव है। हारे को हरिनाम। 2006 के सितम्बर महीने में मिश्र जी ले चले बेटी को हरिद्वार। पर भाग्य ने फिर हेकड़ी दिखाई। हरिद्वार से कुछ पहले ही उनकी गाड़ी को एक तेज रफ्तार वाहन से ऐसी टक्कर लगी कि सबकी जान पर बन आई। सबसे ज्यादा घायल हुई विजया। दोनों हाथ और दोनों पैर टूट गए, सिर में भयंकर चोट आई। जान बच गई, बस। लंबा इलाज चला। पहले से मरीज विजया अब हाथ-पैरों से भी लाचार हो गई। कितने ही आॅपरेशन हुए, पर उसकी आगे की जिंदगी पहिए वाली कुर्सी से बंधकर रह गई। सारे सपने धरे रह गए। जिंदगी में उदासी छा गई।
लेकिन एक दिन उसने सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिन्स के बारे में पढ़ा, भारतीय शास्त्रीय गायक कुमार गंधर्व के बारे में जाना, जिन्होंने 1948 में लाइलाज टी.बी. रोग हो जाने के बावजूद साधना के बल पर न केवल रोग को भगाया बल्कि गायकी में हिन्दुस्थान का नाम रौशन किया। विजया का चेहरा जाने क्यों, खिल उठा। जैसे उसने मन में कुछ ठान लिया था। और 2010 की 10 जनवरी को रंग और कूची लेकर उसने कैनवस पर चित्र उकेरने शुरू कर दिए। चित्रकला का बचपन से शौक रहा ही था। पहिए वाली कुर्सी पर बैठे-बैठे उसने एक के बाद एक नायाब और अनूठे चित्र बनाए। पहचान बनते-बनते ऐसी बनी कि कोलकाता की सुप्रसिद्ध चित्रकूट आर्ट गैलरी में सुविख्यात चित्रकारों की कृतियों के साथ विजया के चित्र भी प्रदर्शित हुए। 2011 में प. बंगाल का नामी ‘बेस्ट क्रिएटिव आर्टिस्ट’ का पुरस्कार तत्कालीन राज्यपाल एम. के. नारायणन के हाथों मिला। जून, 2012 में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को उनकी माताजी का चित्र बनाकर भेंट किया। कोलकाता की एकेडमी आॅफ फाइन आर्ट की गगनेन्द्र दीर्घा में उसके चित्रों की प्रदर्शनी लगी। स्थानीय अखबारों, टीवी चैनलों और दूरदर्शन पर विजया के साक्षात्कार लिए गए। देखते ही देखते उसकी प्रतिभा बंगाल के पार पहुंच गई।
विजया की कहानी से साहस पाकर उसके जैसे शरीर से लाचार पर प्रतिभा के धनी कई लड़के-लड़कियों ने उसी से रास्ता दिखाने को कहा। उन सबके साथ मिलकर विजया ने 14 नवम्बर, 2012 को ‘स्वाभिमान’ नाम से एक गैर सरकारी संगठन की नींव रखी। काम सिर्फ एक। ऐसे ‘विशेष रूप से सक्षम’ बालकों को हर तरह की सहायता पहुंचाना। साथ-साथ चित्र बनाना भी जारी रहा। विजया 27 अगस्त, 2013 का दिन भुलाए नहीं भूलती जब उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री और आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विजया को अपने पिता के साथ गांधीनगर (गुजरात) आकर उनसे मिलने को कहा। विजया ने जब श्री मोदी की बनाई तस्वीर उनको भेंट की तो उस चित्र की जीवंतता देखकर मोदी अभिभूत हो गए। उन्होंने जी भरकर विजया की सराहना की, आशीर्वाद दिया। सितम्बर, 2013 में एक दिन सुबह-सुबह फोन आया कि राष्टÑपति जी चाहते हैं विजया उनके लिए चार चित्र बनाए, जिन्हें वे कीमत चुकाकर लेना चाहते हैं, भेंट के तौर पर नहीं।
लेकिन उत्साह और उमंग के इस माहौल के बीच किस्मत ने एक बाधा और सामने रख दी। जिस ट्यूमर की वजह से कई दिन से पेट दर्द की शिकायत थी उसे आॅपरेशन से निकालने के बाद जांच की तो पता चला कैंसर तीसरे चरण तक जा पहुंचा था। वह तेजी से फैलने लगा। तमाम इलाज, लंबी भाग-दौड़ शुरू हो गई। साल भर के इलाज के बाद टाटा मेडिकल ने कहा, कैंसर के लक्षण अब नहीं रहे। जिंदगी बच गई। विजया की जिजीविषा फिर जीती। रोग से उबरने पर 25 मई 2015 को हरिद्वार जाकर विजया ने बाबा रामदेव से आशीर्वाद लिया और उनको एक चित्र भेंट किया। 30 मई को शांतिकुंज, हरिद्वार के प्रमुख डॉ. प्रणव पण्ड्या और शैलजा दीदी ने विजया को आशीर्वाद दिया और उसके चित्रों की भेंट स्वीकार की। विजया अब सिर्फ प. बंगाल तक सीमित नहीं रही है। उसे राष्टÑीय स्तर पर पहचान मिली है। और यह पहचान उसकी कला साधना के बूते तो बनी ही है, पर उससे ज्यादा इसमें हाथ है उसकी गजब की अंदरूनी ताकत और जज्बे का, जिसके सहारे उसने हर बाधा को हंसते-हंसते पार किया है। आलोक गोस्वामी
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