कृषि-विशेष -ऋषि संस्कृति की अनुपम देनअग्निहोत्र कृषि
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कृषि-विशेष -ऋषि संस्कृति की अनुपम देनअग्निहोत्र कृषि

by
Sep 21, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 21 Sep 2015 15:02:27

पर्यावरण शुद्धि व जलवायु नियंत्रण के सिद्धांतों पर आधारित वैदिक कृषि पद्धति हमारी देव संस्कृति के क्रांतिदर्शी ऋषियों के ऐसे उत्कृष्ट चिंतन का परिणाम है जिसका आज भी कोई सानी नहीं है। खेती की वैदिक पद्धति भारत की ऋषि संस्कृति का मानव समुदाय को दिया गया ऐसा अनूठा उपहार है जिसकी उपयोगिता उस युग की तुलना में आज कई गुना अधिक है। प्रयोगों व प्रमाणों की कसौटी पर कस कर इस विधा को आधुनिक कृषि विज्ञानी  भी स्वीकार कर चुके हैं। वैदिकयुगीनँ८ यज्ञ पद्धति पर आधारित अग्निहोत्र कृषि का पूर्ण प्रकट विज्ञान आज हमारे सामने उपलब्ध है।
  अग्निहोत्र कृषि की वैदिक पद्धति को  वर्तमान युग में प्रकाश में लाने का श्रेय जाता है महाराष्ट्र के विख्यात संत स्व. गजानन महाराज को जिन्होंने वेदों का गहन अध्ययन कर मानव समाज के समग्र हित में इस पद्धति को न सिर्फ खोज निकाला वरन् इसका प्रयोग कर अपने क्षेत्र के कृषकों को बड़े पैमाने पर उत्तम कृषि के लिए प्रेरित किया। उनके पश्चात भारत की इस वैदिक विधा का देश-विदेश में सफल प्रचार-प्रसार का श्रेय अन्तरराष्ट्रीय कृषि विज्ञानी वसंत परांजपे को जाता है। रासायनिक उर्वरकों के दुष्प्रभावों को देखते हुए देश के प्रगतिशील कृषकों का रुझान पुन: तेजी से कृषि की इस पद्धति की ओर बढ़ रहा है। कारण कि इस पद्धति से उत्पादित फसल गुणवत्ता की दृष्टि से तो बेहतर होती ही है, भूमि की उर्वरा शक्ति भी इससे बरकरार रहती है। साथ ही पर्यावरण को संरक्षित करके इसके द्वारा ईको सिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) का संतुलन भी बरकरार रखा जा सकता है। जैविक कृषि के इन बहुआयामी लाभों को देखते हुए आधुनिक कृषि विज्ञानी इसके प्रचार-प्रसार की ओर विशेष ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। यदि भारत सरकार जैविक कृषि उत्पादों के विपणन की उचित व्यवस्था कर दे तो मेहनत से जी न चुराने वाले कृषि स्नातकों के लिए इसमें उज्ज्वल भविष्य की कई संभावनाएं निहित दिखायी देती हैं।
जैविक कृषि में परम्परागत फसलों जैसे रबी, खरीफ और दलहन की पैदावार के साथ-साथ फलों, साग-सब्जियों, औषधीय पौधों व फूलों की खेती आदि में बेहतर परिणाम सामने आये हैं। कृषि क्षेत्र में नियमित अग्निहोत्र के साथ नेडप कम्पोस्ट (गोबर व जैविक कचरे से बनी खाद) व वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद) के प्रयोग से फसल की गुणवत्ता तो बढ़ती ही है, पैदावार भी अच्छी होती है। हां यह जरूर है कि यह काम श्रम व नियमितता की दरकार रखता है।
देश के विख्यात उद्यान एवं कृषि वैज्ञानिक डा. आरके पाठक के अनुसार नियमित अग्निहोत्र (यज्ञ की विशिष्ट प्रक्रिया) करने से कृषि प्रक्षेत्र व यज्ञ करने वाले व्यक्ति के चारों ओर एक विशिष्ट वातावरण 'औरा' का निर्माण होता है जिसके प्रभाव से आस-पास की नकारात्मक शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। इससे मनुष्य व पशुओं दोनों के स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और कृषि उर्वरता का अद्भुत विकास होता है। कृषि भूमि में नियमित अग्निहोत्र करने व यज्ञ भस्म का छिड़काव करने से भूमि की उर्वरा शक्ति में गुणात्मक सुधार देखा गया है।
जैविक कृषि और अग्निहोत्र से कृषि व बागवानी की गुणवत्ता बढ़ाने के कई प्रयोग उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, उन्नाव, आजमगढ़, जौनपुर, प्रतापगढ़ जिलों के किसानों ने किये और आशातीत लाभ अर्जित किया। इसके अलावा मध्य प्रदेश के खरगौन जिले के बखारा, भागफल, नंदिया, घोनाथ, घोसली, बेगान, गजवादन और महाराष्ट्र में थाणे के शाहपुर, भिवण्डी, वाडा, तालुका के साथ तपोवन (मानस फार्म) के अलावा कर्नाटक के बेलगाम क्षेत्र में भी जैविक कृषि के नतीजे खासे उत्साहवर्धक हैं।
 भारत में जैविक कृषि के सफल प्रयोगों से प्रेरित होकर आस्ट्रेलिया, कनाडा, अस्ट्रिया, पोलैण्ड, जर्मनी, रूस, अमरीका, कम्बोडिया, पेरू, चिली अर्जेन्टीना आदि देशों में भी जैविक कृषि व अग्निहोत्र के द्वारा भूमि व मनुष्य दोनों की सेहत को सुधारने के प्रयास युद्धस्तर पर  शुरू हो चुके हैं।
अग्निहोत्र कृषि का मूल सिद्धांत
अग्निहोत्र कृषि का अभिप्राय अग्नि द्वारा व्यक्ति, कृषि प्रक्षेत्र व वायुमंडल को पवित्र करने की प्रक्रिया से है। इस प्रक्रिया द्वारा वायुमंडल एवं वातावरण में प्रकृति की स्वाभाविक शक्तियों, ज्योतिषीय संयोजनों एवं मंत्र शक्ति से ऐसे परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है जिससे सूर्य और चन्द्रमा से प्राप्त होने वाली उच्च शक्ति युक्त ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को और अच्छे ढंग से ग्रहण किया जा सके। यह प्रक्रिया पृथ्वी के ऊर्जा चक्र को इस प्रकार नियंत्रित करती है, जिससे यह ऊर्जा प्रकृति के अनुरूप प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सकारात्मक दिशा में प्रवाहित होती रहे।
यज्ञाहुति देने की विधि  
एक ताम्र पात्र में से अक्षत के कुछ दाने  बायीं हथेली में लेकर गाय के घी की कुछ बूंदें उस पर छिड़ककर अच्छी प्रकार मिलाकर ठीक सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय निर्धारित मंत्रों का उच्चारण करते हुए प्रज्ज्वलित अग्नि में श्रद्धाभाव के साथ दो-दो आहुतियां अर्पित की जाती हैं।
सूर्योदय का मंत्र  

र्योदय का मंत्र  
ॐ सूर्याय स्वाहा इदम् सूर्याय इदम् न मम्
(पहली आहुति अर्पित करें)।
ॐ प्रजापतये स्वाहा
इदम् प्रजापतये इदम् न मम्
(दूसरी आहुति अर्पित करें)।
सूर्यास्त का मंत्र
ॐ अग्नये स्वाहा
इदम् अग्नये इदम् न मम्
(पहली आहुति अर्पित करें)।
ॐ प्रजापतये स्वाहा
इदम् प्रजापतये इदम् न मम्
(दूसरी आहुति अर्पित करें)।
अग्निहोत्र के समय बरती जाने वाली सावधानी
इस अग्निहोत्र  में समय की पाबंदी (स्थान विशेष का सूर्योदय तथा सूर्यास्त समय) का विशेष महत्व है।  आहुति देने के बाद लौ बुझने तक शांत चित्त भाव से बैठे रहना चाहिए तथा अग्निहोत्र भस्म को अगले दिन एकत्रित कर मिट्टी के पात्र में एकत्र कर लेना चाहिए।
अग्निहोत्र कृषि के विविध प्रकार
व्याहृति यज्ञ  
यह अग्निहोत्र की तरह नित्य नहीं बल्कि नैमित्तिक यज्ञ है। हर कृषि सम्बन्धी कार्य के पूर्व व पश्चात इसे करना चाहिए।  अग्निहोत्र पात्र के निकट उसी प्रकार के दूसरे पात्र में व्याहृति होम करने के लिए गाय के गोबर के कण्डे जलाएं। इस हवन के लिए निर्धारित चार वेद मंत्र इस प्रकार है-
ॐ भू: स्वाहा, अग्नये इदम न मम।
ॐ भुव: स्वाहा, वायवे इदम न मम
ॐस्व: स्वाहा, सूर्याय इदम् न मम्।
ॐ भू भुव: स्व: स्वाहा,
प्रजापतये इदम् न मम।
प्रत्येक मन्त्र बोलते समय स्वाहा के उच्चारण पर सिर्फ एक बूंद गाय का घी अग्नि में अर्पित किया जाय। इस यज्ञ में चार बूंद गाय के घी के अलावा अन्य किसी भी पदार्थ की आहुति नहीं दी जाती। भू:, भुव:, स्व: इन तीनों शब्दों का आशय क्रमश: भूमण्डल, वायुमण्डल और आकाश हैं। अन्त में चौथी आहुति इन तीनों व्याहृतियों का उच्चारण एक साथ करके जो अग्नि, वायु और सूर्य के जनक हैं, उन प्रजापति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने को दी जाती है।  होम किये गये घी के जलकर वायुरूप होने तक यथास्थान बैठे रहना चाहिये। यज्ञ पात्र शीतल होने के पश्चात अग्निहोत्र के पात्र को उठाकर उचित स्थान पर रख देना चाहिए।
त्र्यम्बकम् यज्ञ
अग्निहोत्र कृषि में संधिकालों का अत्यधिक महत्व है। जिस तरह सूर्योदय-सूर्यास्त के संधिकालों में नियमित अग्निहोत्र किया जाता है, उसी तरह पाक्षिक संधिकालों अर्थात् अमावस्या-पूर्णिमा को भी विशिष्ट यज्ञ किया जाता है। इसे  त्र्यम्बकमयज्ञ कहते हैं। इसका मंत्र इस प्रकार है-
ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्द्धनम्।
उर्वाकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् स्वाहा।
इस मंत्र के उच्चारण के साथ स्वाहा बोलने के साथ प्रज्वलित अग्नि में सिर्फ एक बूंद गाय का घी अर्पित किया जाता है। चार लोग एक घण्टा देकर यह यज्ञ कर सकते हैं। चार लोगों के एक घण्टे के यज्ञ के लिए 200 ग्राम घी पर्याप्त है।  यह यज्ञ खेत में ही करना चाहिए। इस यज्ञ के लिए ईंटों से जमीन में चौकोर पात्र भी बनाया जा सकता है। पात्र में राख अधिक होने पर उसे निकालते रहना चाहिये और नये कण्डे लगाकर अग्नि लगातार इतनी प्रज्ज्वलित रखनी चाहिये कि एक बूंद घृत की आहुति से लौ निकलती रहे।
यह यज्ञ कृषि भूमि से प्रदूषण कारक हानिकारक तत्वों व रोगाणुओं को प्रतिबंधित करता है। त्र्यम्बकम् यज्ञ की शुरुआत व समापन व्याहृति होम से ही किया जाना चाहिए। यदि अमावस्या-पूर्णिमा को यज्ञ न कर सकें तो खेती में बोनी, कटनी आदि कृषि कार्यों  के दौरान इसे करना फसल के लिए काफी लाभदायी होता है। नित्य अग्निहोत्र और समय-समय पर ये दो नैमित्तिक यज्ञ और इनकी भस्म का उपयोग, यह देश की प्राचीन कृषि पद्धति का मूल आधार है।
सुविख्यात कृषि विज्ञानी श्री वसंत परांजपे ने जर्मनी तथा पोलैण्ड के कुछ वैज्ञानिकों के साथ कृषि प्रक्षेत्र पर प्रतिध्वनि ऊर्जा से अतिसूक्ष्म (विलक्षण ऊर्जा) के उत्सर्जन एवं उपयोग का मानकीकरण किया है।   
इस प्रयोग में कृषि प्रक्षेत्र के मघ्य अग्निहोत्र के लिए  फूस की कुटी बनाकर प्रतिध्वनि स्थल की स्थापना को नियत संख्या में ताम्रपात्रों को विशेष मंत्रोचरण द्वारा ऊर्जावान कर उपयोग किया जाता है। इस झोपड़ीनुमा छतरी के मध्य निर्धारित गहराई का गड्ढा खोदकर उसमें एक ताम्रपात्र को स्थापित कर, ठीक उसके ऊपर अग्निहोत्र करने वाले व्यक्ति के हृदय चक्र तक की निर्धारित ऊंचाई तक इंर्ट की चिनाई कर उस पर एक ताम्रपात्र रखा जाता है। इसके सामने ठीक पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण दिशा में प्रतिध्वनि स्थल स्थापित किये जाते हैं। प्रक्षेत्र छोटा होने पर बाहरी किनारे पर इनका स्थापन किया जा सकता है। सूर्योदय व सूर्यास्त के अग्निहोत्र विशेष रूप से स्थापित किये गये इन केन्द्रों में करने पर विशेषरूप से फलदायी देखे गये हैं। प्रयोगों में पाया गया है कि  नियमित अग्निहोत्र से कृषि प्रक्षेत्र पर उगायी जा रही फसलें, पशु तथा निवास कर रहे व्यक्ति के स्वास्थ्य में सुधार, स्थान विशेष में प्रदूषण की कमी, फसल उत्पादन में आशातीत बढ़ोत्तरी तथा खरपतवार तथा हानिकारक कीटों एवं व्याधियों का संक्रमण  कम होता जाता है। साथ ही अग्निहोत्र के ताम्रपात्र में जलती हुई अग्नि एवं मंत्रोच्चारण से उत्पन्न प्रतिध्वनि से वातावरण पर ऐसा प्रभाव पड़ता है जिससे कि पौधों की कोशिकाओं, मानव एवं प्राणिमात्र को नयी जीवनीशक्ति मिलती है। साथ ही अग्निहोत्र की भस्म (राख) का प्रयोग कीटनाशक व फसल के ऊतक संकुचन प्रभावों को उत्पन्न करने में कारगर होता है। फार्म प्रक्षेत्र पर यदि किसी कारणवश नियमित रूप से अग्निहोत्र न हो सके तो एक किग्रा यज्ञ भस्म का छिड़काव प्रति एकड़़ भूमि पर किया जा सकता है। भस्म का प्रयोग अनाज तथा दलहनों के भण्डारण हेतु भी किया जा सकता है।
कीटनाशकों का निर्माण व उपयोग विधि
यज्ञ भस्म व गोमूत्र को निर्धारित अनुपात में मिलाकर 25 दिनों तक फर्मन्टेशन (खमीर उठने) के लिए रखें। तत्पश्चात इस मिश्रण को पानी में (1:4 के अनुपात में) मिलाकर बीज/पौध उपचार या रोग/कीट प्रबंधन के लिए  तीन दिनों तक प्रात: एवं सायंकाल अच्छी प्रकार मिलाते हुए निथार कर फसल में छिड़काव करें। उपरोक्त घोल को छिड़काव पूर्व दस मिनट तक घड़ी की सुई की दिशा तथा विपरीत दिशा में भंवर बनाकर मिलाने से प्रभाव में गुणात्मक असर पड़ता है। जैविक कीटनाशक (होमा बायोसोल) का अनुभूत प्रयोग 200 लीटर क्षमता वाले टैंक भर जैविक कीटनाशक होमा बायोसोल  बनाने के लिए  आवश्यक सामग्री -2 किग्रा. यज्ञ भस्म,  20 किग्रा गाय का ताजा गोबर, 10 किग्रा. केंचुए की खाद, 130 किग्रा.  कार्बनिक अवशेष, 80 लीटर अग्निहोत्र भस्म मिश्रित जल व श्री यंत्र ।
विधि : 200 लीटर क्षमता वाले टैंक में श्री यंत्र स्थापित कर उसमें ऊपर से ताजे गोबर को डाल दें, अग्निहोत्र की राख ऊपर से छिड़क दें, तत्पश्चात केंचुआ खाद व कार्बनिक अवशेष डाल दें। उपरोक्त प्रक्रिया दो या तीन बार अपनाएं एवं गाय के ताजे गोबर की ऊपरी परत पर बिछायें। इस घोल में से सात दिन के बाद टेैंक से गैस निकलनी शुरु हो जाती है, जिसको पात्र में एकत्रित करके गोबर गैस ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। साथ ही दो सप्ताह बाद गाढ़े तरल खाद को प्राप्त किया जा सकता है। इस होम बायोसाल का प्रयोग प्राय: सूर्यास्त के पश्चात त्र्यम्बकम् मन्त्र के साथ करना विशेष रूप से लाभदायी होता है। अपनी जमीन, सेहत और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति विशेष रूप से फिक्रमंद व जागरूक लोग जैविक कृषि व होमा फार्मिंग को बतौर करियर अपनाकर उज्ज्वल भविष्य की राह प्रशस्त कर सकते हैं।
 (आलेख केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान में
कृषि वैज्ञानिक डा. रामकृपाल पाठक के नेतृत्व
में हुए शोध-अध्ययन   आधारित)

1़    विशिष्ट आकार(पिरामिड) का ताम्र अथवा मिट्टी का पात्र।
2़    गाय के गोबर से बनाये गये पतले उपले।
3़    देशी गाय का घी।
4    ज़ैविक पद्घति द्वारा उत्पादित बिना पॉलिश का अक्षत (बिना टूटा चावल)।
ताम्र पिरामिड
अपनी विशिष्ट आकृति के कारण ताम्र पिरामिड विभिन्न प्रकार की ऊर्जा को ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता रखता है। यह पिरामिड टरबाइन का कार्य करता है। सूयार्ेदय के समय जो विशिष्ट ऊर्जाएं प्रज्ज्वलित ताम्रपात्र में एकत्रित होती हैं वे आहुति तथा मन्त्रोच्चारण के साथ प्रबलतम होकर आकाश में 12 किमी. ऊंचाई तक फैल जाती हैं। सूर्यास्त के समय ये ऊर्जाएं इस विशिष्ट आकृति से विलग होकर आकाश में समाहित हो जाती हैं।
अक्षत (बिना टूटे चावल)  
पालिश करने से चावल के पोषकीय गुणों का हृास होता है। अत: चावल के वही दाने प्रयोग करने चाहिए जो कि टूटे न हों।  यदि जैविक विधा द्वारा उत्पादित तथा गांव में मूसल उर्वारुक द्वारा निकाला गया चावल उपलब्ध हो सके तो उत्तम रहेगा।
गाय का घी  
अग्निहोत्र में प्रयोग के समय देशी गाय का घी अदृश्य ऊर्जाओं के वाहक के रूप में काम करता है एवं शक्तिशाली ऊर्जा इसमें बंध जाती है। चावल के साथ दहन के समय इससे आक्सीजन, इथोलीन आक्साइड, प्रोपाइलीन आक्साइड एवं फार्मेल्डिहाइड गैसें उत्पन्न होती हैं। फार्मेल्डिहाइड जीवाणुओं के खिलाफ प्रतिरोधी शक्ति प्रदान करती है व प्रोपाइलीन आक्साइड वर्षा का कारण बनती है।
गाय के गोबर से बने शुष्क उपले (कण्डे)  
गाय के ताजे गोबर से पतले उपले बनाकर धूप में सुखा लिए जाए। अग्निहोत्र की आग इन्हीं सूखे उपलों से तैयार की जाए। गाय के गोबर में एक्टिनोमाइसिटीज नामक सूक्ष्म जीव काफी मात्रा में पाये जाते हैं। भारत एवं अन्य देशों जैसे अमरीका, यूरोप एवं एशिया के विभिन्न देशों में गाय के गोबर लेपन से रेडियोधर्मिता कम करने के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं।
अग्निहोत्र की अग्नि प्रज्ज्वलित करने की विधि
ताम्र पिरामिड में सर्वप्रथम एक चपटे आकार के उपले का टुकड़ा केन्द्र में रखते हैं। उसके ऊपर उपलों के टुकड़ों को इस प्रकार रखा जाता है जिससे पात्र के मध्य वायु का आवागमन सुचारु रूप से हो सके। उपले के एक टुकड़े में गाय का थोड़ा घी लगाकर अथवा घी चुपड़ी रुई की बत्ती की सहायता से अग्नि को प्रज्ज्वलित किया जाता है। शीघ्र ही रखे हुए अन्य उपले भी आग पकड़ लंेगे। आवश्यकता पड़ने पर हस्तचालित पंखे का प्रयोग अग्निदाह करने के लिए किया जा सकता है।
 घी के स्थान पर अन्य किसी भी प्रकार के तेल का प्रयोग करने व मुंह से फूंककर अग्नि प्रज्ज्वलित करने की मनाही है।

पूनम नेगी
 

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