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दुनिया के बड़े-बड़े वनों, विशाल अभ्यारण्यों को कभी आप पानी देने गए? नहीं, वे खुद उगे खुद बढ़े। दरअसल ऋषि खेती का पुनर्जन्म फिर से भारत में हो चुका है, देश में ऋषि खेती करने वाले किसानों ने बीते 30 वर्षों में एक बार भी, हल या ट्रैक्टर का इस्तेमाल अपने खेतों में नहीं किया है। जो बोया, उसकेे फल, फली और दाने को अलग किया, बाकी को छोड़ दिया उसी खेत में, न जुताई, न गुड़ाई और न खाद और न ही किसी तरह का कोई कीटनाशक। जी हां कुछ ऐसी ही है, षि खेती!
दरअसल पहली फसल के आखिरी पानी के वक्त दूसरी फसल के बीजों को जमीन पर छिड़क दिया जाता है, पहली फसल को काटकर उसके 'वेस्ट' को उसी जमीन पर बिछा दिया जाता है, देखते-देखते अगली फसल के पौधे पुआल के बीच से नई दुल्हन की तरह से झांकने लगते हैं। दक्षिण जापान के शीकोकू द्वीप के एक छोटे से गांव में मासानोबू फुकूओका प्राकृतिक खेती का बेहतरीन प्रयोग कर चुके हैंं। इस खेती में स्वस्थ बीजों को गीली मिट्टी में लपेटकर सुखा दिया जाता है, और फिर समय आने पर उनका प्रयोग किया जाता है।
होशंगाबाद: एक प्रयोग
होशंगाबाद की ऋषि खेती ने अब दुनिया भर में अपनी पहचान बना ली है। इसीलिए न केवल भारत के अनेकों प्रान्तों से वरन् विदेशों से भी लोग इसे सीखने ऋषि खेती फार्म खोजनपुर में पधार रहे हैं। ऋषि खेती रासायनिक जहरों और आयातित तेल के बिना की जाने वाली कुदरती खेती है। यह खेती जुताई-निराई के बिना की जाती है। इसको करने से एक ओर जहां अस्सी प्रतिशत खर्च में कमी आती है वहीं खाद्यों के स्वाद और रोग निवारण की क्षमता में अत्यधिक विकास होता है जिसको खाने मात्र से कैंसर जैसे असाध्य रोग ठीक हो जाते हैं। आज कल ट्रेक्टरों की गहरी जुताई और रसायनों से की जाने वाली खेती से एक ओर जहां खेत उतरते जा रहे वहीं खाद्यान्नो में जहर घुल रहा है जिससे महिलाओं और बच्चों में कुपोषण की समस्या पनप रही है। कैंसर की बीमारी आम होने लगी है। ऋषि खेती उत्पादों से इसके विपरीत परिणाम आ रहे हैं। ऋषि खेती पेडों के साथ की जाने वाली खेती है। इस में पेड़ और अनाज एक दूसरे के पूरक रहते हैं। ऋषि पंचमी के पर्व में जुताई के बिना उपजे अनाज खाने की परंपरा है। होशंगाबाद के रामजी बाबा किसान थे। हल चलने से होने वाली हिंसा ने उन्हें झकझोर दिया था, इसीलिए वे ऋषि बन गए थे। उनकी याद में हर साल यहां मेला लगता है। जबसे ऋषि खेती के बारे में लोगोें को इंटरनेट से पता चला तो दुनिया भर से वे इसे सीखने यहां आने लगे। इसे सीखकर वे अपने देश में इसके सहारे अच्छी नौकरी पा सकते हैं और खुद की खेती भी कर सकते हैं। पिछले तीस साल से बिना जुताई की कुदरती खेती की जा रही है जिसे हम ऋषि खेती कहते हैं। इस खेती में जमीन की जुताई नहीं की जाती है इस कारण बरसात का पूरा पानी जमीन के द्वारा सोख लिए जाता है पानी के बहकर बाहर नहीं जाने के कारण खेतों की खाद का बहना रुक जाता है। इससे अपने आप खेत और पानीदार हो गए हैं। खेतों में अब साल भर हरियाली रहती है जिसके कारण खेत जैवविविधताओं से भर गए हैं जो खेतों में पोषक तत्वों की आपूर्ति कर देते हैं। हमारे खेतों की मिट्टी में असंख्य नाइट्रोजन और अन्य पोषक तत्वों को प्रदान करने वाले सूक्ष्म जीवाणु हैं जो लगातार खेतों को ताकत दे रहे हैंं। इस खेती में खरपतवारों को नष्ट नहीं किया जाता बल्कि सबको जीने का हक दिया जाता है, इतना ही नहीं पुआल को भी जहां का तहाँ पड़ा रहने देते हैं जिससे खेतों को अतिरिक्त खाद मिल जाती है। नतीजा बेहतर उत्पादन मिलता है। चारे के पेड़ों की हरियाली और पशुपालन इसमें चार चाँद लगा रहे हैं। ऋषि खेती करने से पहले यहां भी लोग वैज्ञानिक खेती करते थे, नतीजा खेत मरुस्थल में तब्दील होने लगे, लेकिन अब इनमें भारी बदलाव आया है। खेती किसानी में घट रही आमदनी का मूल कारण जमीन की जुताई भी है, लेकिन ऋषि खेती को इसकी कतई ज़रूरत नहीं होती, नतीजा इसे बंद कर खेतों की खोयी ताकत बिना लागत के वापस लाई जा सकती है।
ऐसे करें ऋषिख़ेती
इस खेती में जमीन में अपने आप पैदा होने वाली वनस्पतियों जिन्हें सामान्य खेती में खरपतवार या नींदा कहा जाता है का बहुत महत्व रहता है, जैसे गाजर घास, सामान्य घास आदि। जब हम जमीन की जुताई बंद कर देते हैं तब हमारे खेत इन वनस्पतियों से ढक जाते हैं, और तब शुरू होता है असंख्य जीवजंतुओं कीड़े मकोड़ों और केंचुओं का काम जिनसे जमीन छिद्रित हो जाती है, उसमें उर्वरता और जल ग्रहण करने की शक्ति आ जाती है, खेत पानीदार हो जाते हैं, मूल फसलों के बीजों को सीधा छिड़क दिया जाता है। जब ये अंकुरित होने लगते हैं, भूमिधकाव की फसल को जहां का तहां सुला देने से या काट कर वहीं बिछा देने से मूल फसल उगकर ऊपर आ जाती है।
घास जाति के भूमिधकाव में गैर घास जाति की फसल अच्छी जमती है, दोनों में मित्रता रहती है, गैर घास जाति में घास जाति की फसलें अच्छी जमती हैं, उदाहरण के लिए सामान्य घास में मूंग सोयाबीन और गाजर घास में गेहूं, चावल आदि की फसल अच्छी होती हैं। इस खेती में तमाम खेती के अवशेषों को जहां का तहां वापस बिछा दिया जाता है जिससे यह खरपतवारों का नियंत्रण और जैव़विवधताओं का संरक्षण और फसलों की बीमारियों की रोकथाम में सहयोग करते हुए खुद को अगली फसल के लिए जैविक खाद में रूपांतरित कर लेती है।
रामवीर श्रेष्ठ
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