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दुनिया भर में जीन संवर्धित फसलें सदैव से विवाद का विषय रही हैं। इन फसलों को पर्यावरण तथा सेहत की दृष्टि से हानिकारक समझा जाता हैं। इसी के चलते ज्यादातर देशों में जीन संवर्धित खेती और उस फसल से बने हुए उत्पादों पर पूरी तरह से रोक है। हालांकि जीएम फसलों के पैरोकार भी कम नहीं हैं। जब हम जीएम फसलों के संबंध में कृषि वैज्ञानिकों से बात करते हैं तो वे इसकी पैरोकारी करते हैं। वहीं कृषि को लेकर काम कर रहे लोग और बहुत से कृषि विशेषज्ञों और विद्वतजनों की राय बिल्कुल वैज्ञानिकों के उलट होती है। अभी तक हमारे देश में एकमात्र जीन संवर्धित फसल बी.टी. कॉटन को ही उगाने की अनुमति मिली है। बी.टी. कॉटन को उगाए जाने के बाद ऐसे कोई बेहतर परिणाम निकल कर सामने नहीं आए हैं जिनसे इस बात की पुष्टि हो कि जीएम फसलें उत्पादकता बढ़ाने में सहायक हैं। बी.टी. बैंगन को भी हमारे यहां उगाने की अनुमति नहीं दी गई है। बहरहाल जब हमने जीएम फसलों को लेकर किसानों से बातचीत की तो पता चला कि शुरुआती दौर में जीएम फसलें भले ही फायदे का सौदा नजर आती हों लेकिन इसके दूरगामी परिणाम ठीक नहीं निकले।
यदि हम पूरे विश्व में कुल जीन संवर्धित खेती को देखें तो 70-75 फीसद फसल दुनिया के चार देशों अमरीका, कनाडा, ब्राजील और अर्जेन्टीना में होती है। यहां भी सिर्फ चार फसलों में-कॉटन (कपास), सोयाबीन, मक्का और कैनौला (राई की ही एक तरह की किस्म)- में ही जीन सवंर्धन की छूट है। गौर करने वाली बात यह है कि इनका इस्तेमाल यहां खाने के लिए नहीं होता है। इनमें से अधिकांश का प्रयोग बायोईंधन बनाने के लिए किया जा रहा है
दरअसल जीएम फसलें प्रौद्योगिकी के माध्यम से प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से तैयार की गई फसलें हैं। जीएम फसलों को लेकर विभिन्न अध्ययनों में यह दावा किया गया है कि जीएम फसलें पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं। यदि इन्हें व्यावसायिक तौर पर उगाने की अनुमति दे दी गई तो इनसे मानव स्वास्थ्य के लिए संकट की आशंका है। जीएम फसलों के विरोध में काम कर रहे विशेषज्ञों का कहना है कि जीएम फसलें जिन चीजों का प्रतिनिधित्व करती हैं वे हमारी खेती के लिए बेकार हैं। बी.टी. बैंगन को सर्वप्रथम मूलत: महिको (महाराष्ट्र हाई कॉरपोरेशन ब्रिड) ने भारत में खेती करने के लिए विकसित किया था। यह कंपनी जीन संवर्धन के क्षेत्र में काम करने वाली मोनसेंटो की भारतीय सहायक कंपनी है। बी.टी. बैंगन को उगाये को लेकर खूब विवाद हुआ। इसकी गुणवत्ता को लेकर सवाल खड़े किए गए। परिणाम यह निकला कि व्यावसायिक तौर पर बी.टी. बैंगन उगाये जाने पर तब तक रोक लगा दी गई जब तक कि तमाम विवाद न सुलझ जाएं। वहीं बंगलादेश में वर्ष 2013 में बी.टी. बैंगन उगाने की अनुमति दे दी गई। वर्ष 2014 में वहां किसानों ने बी.टी. बैंगन उगाया लेकिन जिस तरह के दावे इसके उगाने से पहले किए गए थे वैसा कोई परिणाम वहां भी सामने नहीं आया। फिलिपीन्स में भी वर्ष 2011 में खेतों में परीक्षण इसलिए रोक दिया गया क्योंकि शोधकर्ताअरं ने इसको उगाने के लिए पूरी तरह से जरूरी सार्वजनिक विचार विमर्श नहीं किया था। हमारे यहां बी.टी. बैंगन के संबंध में सुरक्षा परीक्षण मात्र 3 माह की अवधि के लिए किए गए, जिससे स्पष्ट तौर पर दीर्घावधि में होने वाले दुष्परिणामों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है। जानकारों का कहना है कि बी.टी. फसलों पर हुए स्वतंत्र अध्ययन पहले ही इनमें व्याप्त जहरीलापन, प्रतिरोधक शक्ति में कमी, आंतरिक अंगों को नुकसान एवं सांस संबंधी समस्याओं के बारे में बता चुके हैं। 17 अक्तूबर 2012 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित तकनीकी विशेषज्ञ समिति ने अपनी अंतरिम रपट में यह संस्तुति दी थी कि जीएम फसलों को लेकर कम से कम दस वर्ष की अवधि के लिए प्रयोग किये जाएं। इसके बाद ही उन्हें व्यावसायिक तौर पर उगाने की अनुमति दी जाए।
अगर ऐसा था तो फिर से जीएम ट्रायल की बात क्यों की जा रही है? ज्यादातर प्रस्तावित फसलों का भारत एक विविधतापूर्ण उत्पादक देश है। यह ठीक है कि पारिस्थितिकीय, आर्थिक, स्वास्थ्य और बीज संबंधित मामलों को नकारा नहीं जाना चाहिए लेकिन इनको लेकर पूरी सावधानी बरती जानी चाहिए। यदि इस बारे में बात की जाए कि यदि भारत जीएम फसलों को स्वीकार नहीं करेगा तो क्या उत्पादकता के मामले में पीछे रह जाएगा तो ध्यान देने वाली बात है कि जीएम फसलों के इस अभियान को शुरू हुए 17 वर्षों से ज्यादा समय हो गया है। अभी तक विश्व की केवल 3.4 प्रतिशत कृषि भूमि ही जीएम बीजों के अनुसार उत्पादन कर रही है और इसमें 62 प्रतिशत अमरीका और ब्राजील की कृषि का योगदान है। केवल इन्हीं चार फसलों का सोयाबीन, मक्का, कपास और राई में 99 प्रतिशत जीएम बीजों के माध्यम से उत्पादन हो रहा है। भारत में वर्तमान में 17 जीएम फसलें प्रस्तावित हैं। भारत समेत केवल पांच देश हैं जिनकी कृषि भूमि का 3.4 प्रतिशत हिस्सा जीएम के तहत आता है। जैसे-जैसे जीएम फसलों का उत्पादन बढ़ेगा वैसे-वैसे उपभोक्ताओं और किसानों को विश्वभर में चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि ज्यादातर देशों ने जीएम फसलों को अस्वीकृत कर दिया है।
चीन ने 2012 में जनहित में स्वास्थ्य प्रभावों के चलते जीएम चावलों पर प्रतिबंध लगा दिया था। कई देशों ने जीएम फसलों के प्रयोग में अच्छे अनुभव न मिलने के कारण इसे अस्वीकार कर अपने यहां विशेष कानून बना लिए। यही नहीं बल्कि इनके अनुसंधान और खेती पर प्रयोगों और व्यावसायिकरण पर रोक लगा दी। जीएम फसलों की पैरोकारी करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि जीएम फसलों से उत्पादकता बढ़ती है लेकिन बिहार के दरवेशपुरा के रहने वाले एक किसान ने वैज्ञानिकों के इस तथ्य को झुठला दिया। सुमंत कुमार नाम के इस किसान ने पारंपरिक तरीकों से खेती कर एक हैक्टेयर जमीन पर विशेष प्रयोग के द्वारा 22.4 टन चावलों का उत्पादन कर नया विश्व रिकॉर्ड बना डाला। यह रिकॉर्ड प्रमाणित करता है कि बिना जीएम फसलों के भी उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। 'सेंटर फॉर सन्सटेनेबल एग्रीकल्चर' 2013 की रपट के मुताबिक फसल उत्पादकता कई कारकों पर निर्भर करती है। इसमें बीज, मिट्टी, पानी, जलवायु और फसल प्रबंधन जैसी चीजें आती हैं। इनमें से किसी के भी अभाव में किसी चमत्कार से बीज में अंकुर नहीं फूटता। अमरीकी वैज्ञानिकों ने ऐसे सभी मुद्दों पर अपनी एक रपट प्रस्तुत की है जिसमें उन्होंने फसलों की असफलता के बारे में बताया है। वैज्ञानिकों ने 13 वर्षों तक फसल उत्पादकता पर शोध किया जिसका परिणाम जीएम फसलों के रूप में आज सामने हैं। यदि बी.टी. कॉटन से उत्पादकता बढ़ने की बात करें तो आंकड़ों के लिहाज से यह भी खरी नहीं उतरती।
कपास के उत्पादन में वृद्धि हुई?
भारत में मुख्य रूप से कपास में वृद्धि होने का प्राथमिक कारण यह बताया जाता है कि यह उत्पादक बी.टी. कॉटन के चलते हुआ है। कॉटन एडवाजरी बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार 2000 से 2005 के बीच जब बीटी कॉटन चलन में आया तो कृषि भूमि का क्षेत्र 0 से 6 प्रतिशत था। जबकि इसमें उत्पादकता 69 प्रतिशत थी। 2011-12 में बी.टी. कॉटन के कृषि क्षेत्र को बढ़ाकर 6 से 90 प्रतिशत किया गया तो फसल का उत्पादन केवल 18 प्रतिशत तक बढ़ा। 'सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर कॉटन के रिसर्च' के निदेशक के.आर. क्रांति के अनुसार 2004 में जो उत्पादन वृद्धि हुई वह मुख्य रूप से उत्पादकता के लिए एक विशेष तंत्र, प्रबंधन व्यूह रचना और नए हाइब्रिड बीजों के कारण हुई जो कि गुजरात में सर्वाधिक थी। इसमें मात्र 5.4 प्रतिशत क्षेत्र ही बी.टी. कॉटन के तहत आता था। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी जीएम फसलों को स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा नहीं मानता है। विश्व स्तर पर यह प्रचार किया जा रहा है कि जीएम फसलें पर्यावरण के अनुकूल हैं जबकि इनमें विद्यमान तत्व पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले हैं। इनके कारण सूखा पड़ने के और खेती की उत्पादकता नष्ट होने की संभावना रहती है। जहां तक स्वास्थ्य का प्रश्न है जीएम फसलें क्योंकि 'जैनेटिकली मोडिफॉइड' की जाती हैं इसलिए स्वाभाविक है कि भारत के संदर्भ में ये वनस्पतियों और औषधियों को नष्ट करने वाली हैं। कई बार इनके द्वारा उत्पादित फसलों से जो वनस्पति एवं खाद्य तेल बनाये जाते हैं वे भी मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हुए हैं। भारत में जीएम राइस (चावल) जैसी फसलों पर प्रयोग किए जा चुके हैं जिनमें प्रोटीन की अधिक मात्रा मौजूद रहती है।
इससे पूर्व देश में फसलों के 'हाइब्रिडाइजेशन' भारतीय परिवेश के लिहाज से सही साबित नहीं हुए थे। जिस कारण महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कई अन्य हिस्सों में फसलों को नुकसान पहुंचा था। 2002 में देश में 55 हजार किसानों ने देश के चार मध्य और दक्षिणी राज्यों में कपास की फसल उगाई थी। फसल रोपने के चार महीने बाद कपास के ऊपर उगने वाली रुई ने बढ़ना बंद कर दिया था। इसके बाद उसकी पत्तियां गिरने लगीं। आंध्र प्रदेश में ही कपास की तकरीबन 79 प्रतिशत फसल को नुकसान पहुंचा था। महाराष्ट्र के विदर्भ में किसानों ने अधिक उत्पादन करने के लालच में भारी ब्याज पर कर्ज लेकर खेती की लेकिन फसल वैसी नहीं हुई जैसी किसानों ने सोची थी। कर्ज के तनाव में किसान आत्महत्या करने लगे।
आदित्य भारद्वाज
'जीएम फसलें हमारे देश में पूरी तरह असफल रही हैं। जब बी.टी कॉटन का हमारे यहां जोर-शोर से प्रचार किया गया तो कहा गया था कि इसमें कपास में लगने वाला कीड़ा नहीं लगेगा, लिहाजा कपास में कीटनाशकों का छिड़काव करने की बहुत कम जरूरत होगी। जबकि हुआ बिल्कुल इसके उलट। आज पंजाब सरकार बी.टी कॉटन को बचाने के लिए कीटनाशक बनाने वाली कंपनियों को 50 प्रतिशत सब्सिडी दे रही है ताकि किसानों को कम कीमतों पर कीटनाशक मिले और उसका छिड़काव कर इस फसल को बचाया जा सके। बहुत से ऐसे किसान हैं जिन्होंने बी.टी कॉटन को छोड़कर फिर से पारंपरिक तरीके से जैविक खाद द्वारा खेती करनी शुरू कर दी है। इससे उनकी फसल में बढ़ोतरी हुई है।' —उमेंद्रदत्त, निदेशक खेती विरासत मिशन
हमारे गांव में कुछ किसानों ने बी.टी. कपास उगाया तो उन्हें पहले एक वर्ष में अच्छा फायदा हुआ लेकिन उनकी जमीन की उर्वरता कम हो गई। मैंने वर्ष 2004 में जैविक खेती अपनाई। पूरी खेती मैं इसी तकनीक से करता हूं। कपास भी देसी ही उगाता हूं। लागत भी कम आती है और फायदा भी ज्यादा होता है। —हरतेज सिंह मेहता, महता गांव, जिला बठिंडा
मैंने 2004 और 05 में एक किल्ले (पांच बीघा) जमीन में बी.टी. कपास बोया। उस वर्ष फसल अच्छी हुई। अगले वर्ष तीन किल्ले जमीन में और कपास बोया तो फसल खराब हो गई। उसमें कीड़े लगने लगे, पानी भी कई बार लगाना पड़ा, कई बार खाद भी लगानी पड़ी। फिर इसके बाद 2006 में मैंने जैविक खेती शुरू कर दी। आज देसी बीज से मुझे ज्यादा फायदा हो रहा है। कपास में वर्ष में दो बार बारिश हो जाए तो पानी देने की जरूरत ही नहीं पड़ती। —स्वर्ण सिंह, कर्मगढ़सतरां गांव, किसान, जिला बठिंडा
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