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सर्वविदित है कि अरब देशों में इस्लाम से पहले के सभी ज्ञान और परंपराएं पूरी तरह मिटा दी गईं, लेकिन गैर-अरब मुस्लिम देशों में यह पूरी तरह नहीं हो सका है। इस अंतर और विषय पर प्रसिद्ध सीरियाई लेखिका डॉ. वफा सुल्तान की पुस्तक 'ए गॉड हू हेट्स' (2009) रोचक और विचारणीय है।
एशियाई देशों में मुसलमानों के बीच कुछ न कुछ पारंपरिक ज्ञान, मान्यतास प्रभाव में कई पुराने रीति-रिवाज जारी हैं। जैसे, इंडोनेशिया में मुसलमानों के बीच राम-कथा को आदर मिला हुआ है। भारत-पाकिस्तान-बंगलादेश में गीत-संगीत से मुसलमानों का लगाव है। पीरों की मजारों पर मुसलमान जाकर मेले लगाते हैं। यह सब इस्लामी नजर से 'कुफ्र' यानी नाजायज है, क्योंकि ये सब हिन्दू-परंपरा प्रभाव की चीजें हैं। इस्लाम में कब्र पर इबादत, उसे महत्व देना, मकबरा आदि बनाना मना है। इसीलिए अरब देशों में किसी पीर, सुल्तान की छोडि़ए, खुद पैगंबर की भी कोई मजार, स्मारक नहीं है।
इस अंतर को वफा ने एशियाई देशों के मुसलमानों का 'लेस डैमेज्ड' (कम बर्बाद) होना बताया है। जबकि अरब देशों में इस्लाम से अलग कोई परंपरा, नीति नियम नहीं बचने दिया गया, इसलिए वे पूरी तरह चौपट हैं। यानी, नैतिकता की दृष्टि से अरब समाज में इस्लामी कानून के सिवा और कोई मानदंड नहीं है। महान रूसी लेखक सोल्झेनित्सन के अनुसार, ऐसा समाज मनुष्य के रहने योग्य नहीं होता, जहां कानून के सिवा और कोई मानदंड न हो।
वस्तुत: अरब देशों में नैतिकता का संकट भारी समस्या है। यह इस्लाम के सिवा किसी अन्य मानदंड को ठुकराने से बनी है। जिस हद तक गैर-अरब देशों में भी मुसलमानों के बीच शरीयत को कठोरतापूर्वक लागू किया जा सका, उस हद तक वहां भी मुसलमानों के बीच नैतिकता का संकट है।
जैसे, भारत जैसे देश में शाहबानो, गुडि़या, इमराना, जैसे करुण मामले, 'वन्देमातरम्' गाने, न गाने, गीत-संगीत सीखने, लड़कियों के पढ़ने, नौकरी करने, बिना पर्दा घूमने, होली-दीवाली मनाने न मनाने, दूसरे देशों के इमाम, अयातुल्ला के राजनीतिक आह्वान को मानने या न मानने, आदि प्रसंगों में वही संकट दिखते हैं। ऐसे बिन्दुओं पर भारतीय मुसलमानों में एक राय नहीं। क्योंकि मानवीय भावना तथा नैतिकता उन्हें एक रुख लेने को प्रेरित करती है। जबकि इस्लामी कानून के आधार पर उलेमा उन्हें दूसरा रुख लेने को मजबूर करते हैं। इस प्रकार, गैर-अरब देशों में भी मुसलमानों के बीच नैतिकता का संकट कायम है।
अरब देशों में तो यह भयावह रूप में है। सीधा कारण यही है कि केवल कानून ही किसी समाज को स्वस्थ नहीं रख सकता! सोल्झेनित्सन का संकेत यही था। कानून भी मर्यादित हो, इसके लिए समाज में नैतिकता की नींव जरूरी है। बल्कि नैतिक मूल्य ही कानूनों का सहज पालन सुनिश्चित करते हैं। केवल दंड-भय से कानूनों का भी पूर्ण पालन होना असंभव ही है।
फिर, मनुष्यों के बीच आपसी संबंधों के असंख्य रूप होते हैं। सब बातों के लिए कानून नहीं बन सकता। तब कानूनों का अंत ही नहीं रहेगा! मानव जीवन विविध, विराट और परिवर्तनशील है। उसका सहज संयोजन केवल नैतिकता कर सकती है। यह नैतिकता स्वभाव से ही किसी कानून, मजहब, राष्ट्रीयता आदि से परे होती है। नैतिकता को महत्व देने वाला समाज ही सभ्य कहलाता है। जहां लोग विनम्रता, सत्य-निष्ठा, वचनबद्धता, अपना व दूसरों का सम्मान, भिन्न विचार वालों का आदर आदि स्वभावत: करें। इसके लिए कोई कानूनी बंदिश या भय नहीं रहता, लेकिन नैतिकता के विपरीत कार्य को बुरा समझा जाता है। ऐसा ही समाज मनुष्य के रहने योग्य है।
इसी दृष्टि से मुस्लिम देशों, विशेषकर अरब देशों में नैतिकता का घोर संकट है। यह शासन, संसाधन की कमी या विदेश-संबंधों की समस्या नहीं है, बल्कि मजहब की सर्वाधिकारी सत्ता से बनी समस्या है। मजहबी कानून स्वयं को बलपूर्वक लागू करता है, और भय के सिवा लोगों द्वारा अनुपालन का कोई कारक नहीं जानता। यह इस्लाम तथा मुस्लिम समाज, दोनों के लिए ऐसा संकट है, जिसे पूरी तरह समझना भी गैर-मुस्लिम समाजों के लिए कठिन है।
जब कोई मजहब मानव जीवन पर संपूर्ण अधिकार कर ले, और करने की प्रवृत्ति रखे, तो उसमें कोई आध्यात्मिकता नहीं रहती। वह पूर्णत: एक तानाशाही, राजनीतिक सत्ता मात्र हो जाता है। जो समय और लोगों की बदलती जरूरतों के साथ सामंजस्य भी रखने में असमर्थ हो जाता है। उसकी पूरी चिन्ता और ताकत अपनी सर्वाधिकारी सत्ता बनाए रखने में लगी रहती है। कम्युनिस्ट देशों की मुख्य विडंबना यही थी। जिससे वे अटपटे होते और पिछड़ते चले गए। अंतत: समाप्त हुए। वही विडंबना कुछ ही भिन्न रूप में मुस्लिम देशों में है। जिस हद तक वे इस्लाम को जीवन के हर क्षेत्र में अपना एक मात्र दिशा-निर्देशक बनाते हैं, उस हद तक लोगों का जीवन संकुचित, विकृत होता जाता है। वह दुनिया के बदलावों के समक्ष निरुपाय, हास्यास्पद और क्षुब्ध होता रहता है। यही सब जिद, शिकायत और क्रोध आदि रूपों में व्यक्त होता है। टेलीविजन पर इस्लामी मार्गदर्शकों को सुनकर भी यह महसूस कर सकते हैं। उनमें कोई यह कहते शायद ही मिले कि उसे कोई बात नहीं मालूम है। या, इस्लामी किताबों में हर चीज का उत्तर नहीं हो सकता। सभी मौलाना खान-पान, साहित्य, कला, पुरातत्व, आनुवांशिकी, बैंकिग, परमाणु बम आदि से लेकर पोलियो के टीके, स्त्रियों के रजस्राव, जानवरों के वर्गीकरण तक हर चीज पर जायज-नाजायज, हलाल-हराम के निर्णय देते नजर आते हैं। उनमें अधिकांश ऐसे होते हैं, जिन्होंने मदरसों में कुछ इस्लामी किताबों के सिवा आजीवन कभी कुछ नहीं पढ़ा, लेकिन मुसलमानों के मार्गदर्शक वही हैं। उनकी बातें मानना मुसलमानों के लिए बाध्यकारी भी है!
यह इस्लाम द्वारा मुस्लिम जनता में नैतिकता को हानि पहुंचाने का एक उदाहरण है। यदि भारत जैसे देशों में कोई कहे कि 'मौलानाओं की मानता कौन है', तो दो बातें ध्यातव्य हैं। एक तो यह कि कुरान, हदीस के अरबी में होने के कारण इस्लामी सिद्धांतों को गैर-अरब मुस्लिम ठीक-ठीक बहुत कम जानते हैं। दूसरे, गैर-मुस्लिमों के साथ रहते वे अनेक पारंपरिक, गैर-इस्लामी रीति-नीति को मानते रहे हैं। इसीलिए, यानी उलेमा की शक्ति वैचारिक और राजनीतिक, दोनों रूप से सीमित होने के कारण ही वे उनकी उपेक्षा कर पाते हैं। लेकिन, जैसे-जैसे पूर्ण इस्लाम का दबाव उन पर पड़ता है ('तब्लीगी आंदोलन') या उलेमा की राजनीतिक बढ़त होती है (अफगानिस्तान, पाकिस्तान), वैसे-वैसे मुसलमानों के लिए यह बाध्यकारी होता है कि वे किसी इमाम, अमीर, शेख या अयातुल्ला की बातें मानते चलें या कड़ी सजा भुगतने को तैयार रहें।
इसीलिए अरब देशों में जो बहुत पहले हो चुका, वही पाकिस्तान, अफगानिस्तान में इधर हो रहा है। इस्लाम से पहले के सारे नियमों, रिवाजों, आदि समेत पूरी नैतिकता को खत्म कर देने का प्रयास। विशुद्ध इस्लाम की यही मांग है। भारत में तबलीगी आंदोलन, अफगानिस्तान-पाकिस्तान में तालिबान तथा विश्व स्तर पर अल कायदा से लेकर इस्लामी स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईिसस) तक यही करते रहे हैं। येल विश्वविद्यालय के प्रो. ग्रेइम वुड के चर्चित लेख 'ह्वाट आईिसस रियली वान्ट्स' (द आटलांटिक, मार्च 2015) से इसका प्रामाणिक विवरण मिलता है।
इस प्रकार, गैर-अरब मुस्लिमों का सौभाग्य रहा कि उन्हें वास्तविक, अरबी इस्लामी सिद्धांत-व्यवहार से पूर्ण परिचय नहीं था। इसीलिए वे अपने-अपने समाजों की प्राचीन ज्ञान-परंपरा, नैतिकता, संस्कृति, भाषा और मानवीय मूल्यों से जुड़े रह सके थे। यह सचाई स्वयं इस्लामी विद्वानों के मुंह से सुनी जा सकती है। भारत में बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक तक मुस्लिम उन्हीं सामाजिक, कानूनी, पारिवारिक रीतियों का पालन करते थे, जो हिन्दू मानते थे। यह तो अरब जाकर इस्लाम की पक्की पढ़ाई करने वाले मौलाना थे, जिन्होंने वापस आकर यहां के मुसलमानों को 'पक्का मुसलमान' बनाने का अभियान छेड़ा। यही तबलीग था, जो मुसलमानों को संपूर्ण जीवन-पद्धति: भाषा, शिक्षा, संस्कृति, त्योहार, पोशाक, बाल-दाढ़ी, टीका-बिंदी, खान-पान, आदि हर चीज में हिन्दुओं से अलग करने का सचेत, इस्लामी आंदोलन था।
यह सब अरब से असली इस्लाम सीख आने का नतीजा था! उसी से देवबंदी आंदोलन उभरा, जिसने समय के साथ अफगानिस्तान में तालिबान को मजबूत किया और सभी गैर-इस्लामी नियमों, रीतियों, चिह्नों तक को नष्ट करने का सिद्धांत-व्यवहार अपनाया। बामियान-विध्वंस तो उसका एक बाहरी उदाहरण मात्र था। वस्तुत: वह पूरे अफगान समाज के सांस्कृतिक, नैतिक विध्वंस का लक्षण था।
निस्संदेह, यह सब पिछले चालीस-पैंतालीस वर्ष में तीव्र हुआ। इस का स्रोत अरब में तेल की आमद से मिली नई ताकत है। उसकी बदौलत सऊदी अरब के बहावियों ने पूरी दुनिया में 'सच्चे इस्लाम' का प्रसार करने की नीति अपनाई। गैर-अरब मुसलमानों के बीच नैतिक ध्वंस शुरू होने में इसकी केंद्रीय भूमिका है। अल-कायदा ने बहावी इस्लाम का ही अंतरराष्ट्रीय प्रसार किया, जिसने अफ्रीका से लेकर दक्षिण एशिया तक के मुस्लिमों में उथल-पुथल पैदा कर दी। उसमें बेहिसाब आतंक, सामाजिक विध्वंस और हिंसा ही वह सूत्र है, जो हर जगह एक समान है। सभी जगह उसके वैचारिक, वित्तीय, सांगठनिक स्रोत अरब से जुड़े मिलते हैं।
इस प्रकार, मानवीय नैतिकता से इस्लाम का विपरीत संबंध या बेपरवाही एक गंभीर विषय है। अपने जन्म से ही इस्लाम मुख्यत: दूसरों पर हमले, उनकी लूट, उन्हें मुसलमान बनने का 'निमंत्रण' देना और न मानने पर खत्म कर देना तथा मुसलमानों में उस लूट के बंटवारे से जुड़ा है। सरसरी नजर से भी इस्लामी मूल किताबों के पन्ने उलटें, या मुहम्मद की जीवनियां पढ़ें, तो उनमें सबसे अधिक स्थान इसी हमले-लूट-बांट को दिया गया है। पूरी प्रक्रिया में किसी नैतिकता का कोई स्थान नहीं मिलता। न इसकी कहीं चिंता की गई मिलती है। यहां तक कि अपनी स्त्रियों, परिवार और बच्चों के लिए भी किसी सम्मानजनक अर्थ या स्थान की कोई फिक्र उसमें नहीं मिलेगी। सब कुछ मूलत: और अंतत: अल्लाह, और उससे भी अधिक पैगंबर की ताकत, इज्जत तथा उसके राज्य-विस्तार को समर्पित है। शेष सभी बातें इसके अधीन हैं। सुन्ना यानी पैगंबर के व्यवहार से उलेमा जो खोज निकाल कर दे सकें, वही नियम या नैतिकता है। उससे भिन्न किसी मानवीय नैतिकता, मानदंड या आध्यात्मिक, चारित्रिक उत्थान आदि की कोई फिक्र इस्लाम में सिरे से ही नहीं है।
इसीलिए, मुस्लिम देशों, समाजों में अंतहीन विवाद, उत्तेजना, आक्रोश, कटु-हिंसक शब्दावली और मुख्यत: मार-काट की पद्धति का प्रचलन कोई अनायास नहीं। न केवल गैर-मुस्लिमों से ,बल्कि आपसी बर्ताव में भी वही चलन है। यह इस्लामी सिद्धांत-व्यवहार की मूल विशेषताओं से जुड़ा है। उसमें किसी नैतिक मानदंड की कभी चिंता ही नहीं रही। सब कुछ बल-प्रयोग, दबाव और भय से जुड़ा माना गया है। लोग कुछ बातें स्वभावत: स्वीकार करें, या कर सकते हैं, इस विचार का इस्लाम में पूर्ण अभाव है। यह नैतिकता का अभाव है।
खुद उसके अल्लाह और पैगंबर को कदम-कदम पर मात्र यही शंका सताती मिलती है कि लोग उसे नहीं मानेंगे, या मानना बंद कर देंगे, या उसके निर्देशों से अलग कुछ करने लगेंगे आदि। ऐसा कदापि न हो, इसके लिए केवल एक से बढ़कर एक विकराल दंड, भयानक त्रास और हिंसक धमकियों का ही अंबार इस्लामी किताबों में भरा है। उसमें कहीं, किसी नैतिक सत्ता या भावना की लेश मात्र चिंता नहीं है। जो बुद्धिजीवी कुरान, हदीस की किन्हीं पंक्तियों, जैसे 'मजहब में कोई जबर्दस्ती नहीं' के सुदंर अर्थ निकाल कर पेश करते हैं, वे छिपाते हैं कि (1) उन अर्थों पर उलेमा में कभी एक राय नहीं होती, (2) मुस्लिम इतिहास का वास्तविक व्यवहार उन कथित अथोंर् के ठीक विपरीत रहा है, और इसीलिए (3) उन अथार्ें को कोई जिहादी संगठन या इस्लामी अदालतें भी नहीं मानतीं।
अत: मुस्लिम समाज में नैतिकता का घोर संकट उसकी सबसे बुनियादी समस्या है। यह समस्या इस्लाम की उत्पत्ति से ही जुड़ी हुई है। इसलिए लाइलाज भी है। मुसलमान जब तक इस्लाम की सत्ता को सवार्ेच्च मूल्य मानते रहेंगे, उनके साथ यह संकट बना रहेगा। जब वे इस्लाम से ऊपर मानवीयता को रखना आरंभ करेंगे (या जो, जहां, अभी भी ऐसा रखते हैं), तभी उनके बीच नैतिक मूल्य प्रतिष्ठित होंगे (या प्रतिष्ठित मिलते हैं)। यानी ऐसे मूल्य, जिन का पालन लोग बिना भय के दबाव से और प्रसन्नतापूर्वक करें।
इसे इस्लाम से पहले के अरब समाज की तुलना से भी समझा जा सकता है। चूंकि उसके विवरण प्राय: पूर्णत: नष्ट कर दिए गए, इसलिए अपवाद-स्वरूप ही कहीं कुछ जानकारी मिलती है। अफगानिस्तान में भी सौ साल पहले के समाज से हाल की तुलना से दिख जाता है कि इस्लामी सत्ता का आम नैतिक, सांस्कृतिक विध्वंस से सीधा संबंध है। खालिद हुसैनी के विश्व-विख्यात उपन्यास 'काइट रनर' से इसकी झलक मिल सकती है। उसमें एक स्वाभिमानी, निर्भीक और बुजुर्ग पात्र बाबा कहता भी है कि 'यदि कभी मौलाना लोग सत्ताधारी हो गए, वह अफगानिस्तान के लिए भयंकर दुर्भाग्य होगा'। तालिबानी शासन में वही हुआ।
किसी भय या धमकी के बिना किन्हीं आम नियमों का सम्मान करना ही किसी समाज में नैतिकता का आधार है। जिसे लोग सहजता से स्वीकार करें, तथा जिसके उल्लंघन पर किसी को दंड नहीं दिया जाता। बल्कि उसे अज्ञानी, पोच या क्षुद्र समझा जाता है। इस तरह, नजरों की ताकत और सामाजिक सद्भाव से नैतिकता चलती है। जिससे लोग क्या उचित है, क्या अनुचित, यह तय करते हैं। ऐसी मान्यताएं ही नैतिकता है, जिसका किसी मत-मजहब, राज्य-व्यवस्था या दंड-भय आदि से कोई संबंध नहीं होता। तभी वह मानवीय, टिकाऊ और इसीलिए सार्वभौमिक भी होता है।
यह नैतिक सत्ता सौ साल पहले पेशावर और काबुल में काफी हद तक मौजूद थी। यही इस्लाम से पहले के मक्का और मदीना में भी थी। इस्लाम ने इसे बदल कर सब कुछ को अपने मुहम्मदी नियमों और तलवार-भय के अधीन कर दिया। यही नहीं, तलवार की सत्ता को दैवी-अनुशंसा जैसा स्थापित किया। इस्लाम को मानने और न मानने को ही समाज का एक मात्र विभाजक आधार घोषित किया। न मानने वालों को मार डालने का सिद्धांत दिया। इसने मुसलमानों में जो नैतिक विध्वंस किया है, वह ठीक से समझने, परखने की चीज है।
तलवार को समाज में हर चीज तय करने का औजार बनाकर इस्लाम ने मनुष्यों को बर्बर, जंगल युग में वापस पहुंचा दिया। अपने विवेक-बुद्धि से कुछ भी उचित-अनुचित तय करने की स्वतंत्रता उनसे छीन ली गई। यह मानवता के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ है।
अरब के विद्यालयों में प्राथमिक कक्षा के बच्चे मुहम्मद की जीवनी पढ़ते हैं और शिक्षक उन्हें पढ़ाते हैं। बड़ी सहजता से, पैगंबर मुहम्मद ने यहूदी स्त्री साफिया से उसी दिन शादी कर ली जिस दिन उसका पति, भाई और पिता मार डाले गए। बिना रंच मात्र सोचे कि ऐसी शादी में कैसी नैतिकता है! मगर मुस्लिमों में यह विश्वास कूट-कूट कर और तलवार की नोक पर भरा गया है कि मुहम्मद ने जो भी किया, वह अल्लाह के कहने से किया। उन्हीं का व्यवहार मुसलमानों का आदर्श और कानून है। वही आज भी अनुकरणीय है।
मुहम्मद के वैसे कामों, लड़ाइयों, कबीलों, समुदायों को खत्म कर डालने, शंका करने वालों की गर्दन उड़ाने, आदि विवरणों को फख्र से पढ़ाते हुए कभी विचार नहीं किया जाता कि उसमें कौन सा उच्च लक्ष्य है? अल्लाह ने मुहम्मद को कौन सा दायित्व सौंपा? लोगों को अल्लाह व मुहम्मद का अनुयायी बनाना तो एक बात हुई। मगर उससे मनुष्यता को कौन सी उपलब्धि मिली या मिलेगी? इस्लाम के लिए यह सवाल ही अनर्गल है। वह मानता है कि अल्लाह और मुहम्मद की सत्ता कायम करना अपने आप में अंतिम लक्ष्य है। बस, इस पूरे कथानक और विचारधारा में नैतिकता का, किसी मानवीय उपलब्धि का कोई स्थान ही नहीं है!
इसीलिए इस्लामी स्टेट, अल कायदा, तालिबान आदि के कायार्ें में गैर-इस्लामी कुछ नहीं है। कुछ विद्वान सपाट कहते हैं कि इन संगठनों ने इस्लाम की सीख नहीं समझी। मगर क्या इन संगठनों ने मुहम्मद की जीवनी को भी गलत समझा, जिसमें लिखा है कि मुहम्मद के साथियों ने काब बिन अल-अशरफ की गर्दन काट कर मुहम्मद को भेंट की? क्या उन्होंने उस कारनामे को नहीं समझा जिसमें मुहम्मद के अनुयायियों ने सौ वर्षीया कवयित्री उम्म किरफा की दोनों टांगों को दो ऊंटों से बांध कर, उन्हें विपरीत दिशाओं में हांक कर, कवयित्री के टुकड़े-टुकड़े कर डाले? अरब में मुसलमानों को ऐसी हत्याओं पर गर्व करना सिखाया जाता है। वे हत्याएं मुहम्मद के प्रति वफादारी का उदाहरण मानी जाती हैं। तब अल बगदादी, बिन लादेन या किसी भी मुसलमान के लिए इन विवरणों में नहीं समझने के लिए क्या है?
एक अरबी कहावत है- तुम किसी आदमी को कीचड़ से निकाल सकते हो, मगर जिस आदमी के अंदर कीचड़ भर गई हो उसे निकालना नामुमकिन है। मुस्लिम विश्व, खासकर अरब में लोगों में इसी तरह का वैचारिक कचरा भरा हुआ है। यह उनका नैतिक संकट है। वे अपनी गलती, मूढ़ता समझने तक की स्थिति में नहीं हैं। यह सब इसलिए क्योंकि वे बचपन से ही इस्लामी किताबों से ही मुख्य शिक्षा पाते हैं। और लोग जो भी बनते हैं, वह अपनी शिक्षा से ही।
यही कारण है कि आतंकवाद के विरुद्ध अमरीकी लड़ाई विफल होती रही है। वे इराक, ईरान या सीरिया में जन-संहारक हथियार खोजने, नष्ट करने जाते हैं। उन्हें वह नहीं मिलता, तो इसलिए नहीं कि वे मौजूद नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि वे कहां छिपे हुए हैं। यदि वे अरब देशों में स्कूली किताबें खोल कर पन्ने-दर-पन्ने, किताब-दर-किताब, ध्यान से पढ़ना शुरू करें, तब उन्हें समझ में आएगा कि मानवता का संहार करने की सामर्थ्य रखने वाले हथियारों का विशाल जखीरा वही किताबें हैं! वफा सुलतान के अनुसार, मुसलमानों में आतंकी मानसिकता पैदा करने वाले स्कूल पूरी पृथ्वी पर मौजूद किसी भी हथियार फैक्ट्री से अधिक खतरनाक हैं।
वफा यह भी कहती हैं कि कोई अमरीकी, यूरोपीय नागरिक उस सचाई को पूरी तरह नहीं समझ सकता, जिसे वह बयान कर रही हैं। जो मुस्लिम दुनिया में नहीं रहते, उन्हें उस नैतिक विघटन का कोई अंदाजा नहीं है जो इन समाजों के जीवन को प्रभावित करता रहता है। इन समाजों में लोग अपनी किसी गलती को महसूस करने में भी असमर्थ हैं। वे इसे अंतिम सत्य मानकर चलते हैं कि नमाज पढ़ने, रोजा रखने और कुरान पढ़ने के सिवा उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं। उन्हें इस्लाम ने यही सिखाया है। उसी इस्लाम ने, जिसमें एक मात्र इनाम केवल जन्नत है। उसके सिवा अपने लिए कोई लक्ष्य खोजना वृथा है।
ठीक इसीलिए, कोई भी मुस्लिम शासक यदि वे तीन काम (नमाज-रोजा-कुरान पढ़ना) करता है, तो वह अपने दूसरे कार्यों (लूट, भ्रष्टाचार, हिंसा, बलात्कार, जन-संहार, क्रूरतम तानाशाही, आदि) के लिए जवाबदेह नहीं माना जाता। वह सब होना तो अल्लाह की मर्जी है, या दुश्मनों की बदमाशी या दुष्प्रचार है। मुस्लिम जनता और शासक प्राय: यही मानते हैं। यह विचित्र, पर नैतिक रूप से भयावह सचाई पूरे अरब और मुस्लिम समाजों में बारहा देखी जा सकती है। सद्दाम हो या खुमैनी, बिन लादेन या बगदादी, उनमें किसी की निंदा यदि कोई मुसलमान करता है, तो बस दूसरे फिरके का। अपने फिरके वाले उसे 'महान' या 'शहीद' मानते हैं। इसके सिवा कुछ नहीं। मुस्लिम समाज में व्याप्त इस घोर नैतिक संकट को पहचानना जरूरी है। मुसलमान अपनी कोई गलती नहीं मानते। यदि कुछ मानते हैं तो यही कि इस्लाम के उसूल, मुहम्मद के आदेश आदि को ठीक से लागू नहीं कर रहे। तलवार चला कर पूरी धरती को मुहम्मदी मतवाद के तले नहीं ला रहे। अल्लामा इकबाल की मशहूर किताब 'शिकवा' और 'जबावे शिकवा' (1909) से भी इसकी पुष्टि होती है। यह तो एक गैर-अरब मुस्लिम विचारक की रचना है। फिर भी, संक्षेप में उस नैतिक खालीपन को पूरी तरह दिखाती है, जिससे संपूर्ण मुस्लिम जगत हमेशा से ग्रस्त है।
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