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बात हो भारत की, भारतीयता की

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Sep 4, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Sep 2015 11:36:42

अंक संदर्भ : 16 अगस्त, 2015
आवरण कथा 'इंडिया बनाम भारत' से स्पष्ट हो गया है कि भारत और इंडिया के बीच एक गहरी खाई है। जहां भारत वैश्विकता, परंपरा व संस्कृति की बात करता है तो वहीं इंडिया एक गुलामी एवं संकुचित मानसिकता से प्रेरित है। भारत के नाम से वास्तविक भारत की पहचान होती है और अपनेपन का एहसास होता है। अब भारत और इंडिया के अंतर को समाप्त करने की जरूरत है।
—जसवंत सिंह जनमेजय
 कटवारिया सराय (नई दिल्ली)
ङ्म स्वतंत्रता दिवस विशेषांक आकर्षक और नए स्वरूप में दिखा। साथ ही 'इंडिया बनाम भारत' विषय पर पाञ्चजन्य ने आज के समय में शंखनाद किया है। ऐसे समय जब लोग भारत और इंडिया के मध्य पिस रहे हैं, यह अपने आप में महत्वपूर्ण है। वैसे स्वतंत्रता के बाद से इंडिया बनाम भारत के मामले को उलझाए रखा गया  या यूं कहें कि जानबूझकर भारत की अस्मिता को धूमिल करने का प्रयास किया गया। कुछ पाश्चात्य जगत की ओर झुकाव रखने वाले लोगों ने भारत की पहचान और यहां की परंपरा को मिटाकर इसे इंडिया बनाने की कोशिश की और इसमें वे लगभग सफल भी हुए। स्वतंत्रता दिवस विशेषांक में लेख-सर्वेक्षण रपट भारत और इंडिया के मध्य की स्थिति को स्पष्ट करती है। लेख यह भी बताते हैं कि मैकाले के मानसपुत्रों ने शिक्षानीति, स्वदेशी विचारधारा व स्वदेशी चिंतन को तोड़कर अंग्रेजियत का ऐसा जाल बुना जिसमें हम सभी लोग फंस कर रह गए। ऐसे में भारत कहां रह गया? जिधर देखो इंडिया-इंडिया ही दिखाई देता है। आशा है कि देश की जनता भारत और इंडिया के मध्य के अंतर को समझेगी और उसको समाप्त करने के लिए आगे आएगी।
—धर्मेन्द्र धर्मराज
 कारवान (हैदराबाद)
ङ्म इंडिया बनाम भारत विषय पर केन्द्रित स्वतंत्रता विशेषांक मन के द्वंद को शान्त करता है। जो विषय पाञ्चजन्य ने उठाया है वह बड़ा ही महत्वपूर्ण है और वास्तव में इसके पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। आजादी के बाद आशा थी  भारत अपनी परंपराओं को आधार बनाकर आगे बढ़ेगा। लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। भारत को कुछ तथाकथित और स्वार्थलोभियों ने पाश्चात्य के दलदल में घसीट लिया और उसे भारत के बजाय इंडिया का रूप दे दिया। धीरे-धीरे वे अपनी मंशा में कामयाब होते गए और आज भारत-इंडिया  की पहचान के साथ विश्व में खड़ा है। भारत की जो पहचान होनी चाहिए थी वह इसमें कहीं नजर नहीं आती। जबकि किसी भी देश का उज्ज्वल भविष्य उसकी पहचान से जुड़ा होता है और उसी पर ही उसकी नींव खड़ी होती है।
—छैल बिहारी
 छाता,मथुरा (उ.प्र.)
ङ्म एक बड़े विचार को लेकर पाञ्चजन्य ने देश में चर्चा छेड़ी है और सिर्फ चर्चा ही नहीं छेड़ी बल्कि जागृत किया है। भारतवर्ष का नाम राजा भरत के नाम पर पड़ा था। परन्तु अंग्रेजों को यह नाम चुभता था, क्योंकि इस नाम में भारत का भाव, परंपरा, संस्कृति, सभ्यता झलकती थी। भारत का भाव मिटे इसलिए उन्होंने इसे इंडिया का नाम दे दिया। विशेषांक में संपादकीय से लेकर प्रबुद्धजनों के लेखों में भारत की जो महानता है, उसे बताने का प्रयास किया है। ये सभी लेख समाज और सरकार के लिए मार्गदर्शन का काम करेंगे। भारत का स्वरूप पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के विचारों में बसता है इसलिए आज उनके विचारों पर आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
—लक्ष्मी चन्द
बांध कसौली, सोलन (हि.प्र.)
ङ्म देश को बड़ा सुअवसर प्राप्त हुआ है, जब हम भारत को उसकी पहचान ही नहीं दिला सकते हैं बल्कि विश्व में उसे स्थापित कर सकते हैं। भारत की पहचान गांव, कृषि, पशुपालन, देशी सोच, स्वदेशी विचार, भारतीय शिक्षा पद्धति, पारंपरिक संस्कृति है।   
                    —होरीलाल कनौजिया
 इंदिरा नगर, नासिक (महा.)
ङ्म सेकुलरिज्म के नाम पर जो पाखंड या दोहरे मापदंड देश में चलाए गए, उससे लोकतंत्र, सामाजिक समरसता और समन्वय कमजोर ही हुआ है। अल्पसंख्यकवाद के विष ने जो असमानता का वातावरण बनाया उसने समाज को हानि पहुंचाई। इसलिए आज के समय सभी विषयों को ध्यान में रखते हुए जो अनर्थकारी नीतियां हैं, उनको समाप्त कर भारत की प्रकृति और संस्कृति के अनुरूप नीतियों को बनाया जाए।  ऐसे कार्य करने से ही हम भारत को उसकी खोई हुई पहचान वापस दिला सकते हैं।
—मनोहर मंजुल
 पिपल्या-बुजुर्ग, प.निमाड (म.प्र.)
ङ्म लेख 'लोकतंत्र को बौना बनाता सेकुलरिज्म' अच्छा लगा। आज जब भी हम देखते हैं तब सेकुलरिज्म की आड़ में कुछ तथाकथित लोग पता-नहीं क्या कर जाते हैं। वहीं अल्पसंख्यकों की रक्षा के नाम पर उनको देश में विशेषाधिकार दे दिए गए हैं। जिसकी आड़ में वे अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं और कानून उनके सामने बौना साबित हो जाता है। क्या यही सेकुलरिज्म की परिभाषा रह गई है? लेकिन देश में जब कहीं भी हिन्दुओं के दुख-दर्द की बात आती है तो ये तथाकथित सेकुलर पता नहीं कहां गायब हो जाते हैं।          
—राकेश कुमार
 रोहिणी ( नई दिल्ली)
ङ्म स्वतंत्रता दिवस विशेषांक सही मायने में प्रभावशाली है। इंडिया बनाम भारत के विषय को लेते हुए लेखों के माध्यम से जो तथ्य रखे गए हैं वे संपूर्ण भारत की आंखें खोलते हैं। देश के लोग जो वास्तव में भारत को भारत देखना पसंद करते हैं उन्हें अब जागना होगा।  क्यांेकि भारत की पहचान इंडिया से नहीं है, भारत से है।
—बी.आर.ठाकुर
 संगम नगर, इन्दौर (म.प्र.)
ङ्म इंडिया और भारत के गंभीर विषय पर देश के पढ़े-लिखे नौजवान केवल इतना ही कहते हैं-क्या फर्क पड़ता है चाहे इंडिया कहो या भारत। लेकिन उन्हें नहीं पता कि यह कितना गंभीर विषय है। जबकि नाम के साथ यहां पूरे स्वरूप को ही बदल के रख दिया गया है। स्वतंत्रता के बाद से अब तक केन्द्र व राज्यों में इंडिया की सोच रखने वाली सरकारों ने पश्चिमी भाषा, खानपान, रहन-सहन, वेश-भूषा, शिक्षा व्यवस्था सब कुछ पश्चिमी देशों की तर्ज पर कर दिया। यहां तक कि भारत के इतिहास को भी तोड़-मरोड़ कर या कुछ लोगों द्वारा गढ़े गए झूठे इतिहास को पढ़ाया गया। इसका परिणाम हुआ कि युवा पीढ़ी स्वाभिमान शून्य हो गई। अब समय आ गया है कि हम भारतीय संस्कृति, भारतीय विचार को अपनाएं। इससे प्रत्येक नागरिक के ह्दय में राष्ट्रभक्ति के संस्कार जन्म लेंगे।
—कृष्ण वोहरा
जेल मैदान, सिरसा (हरियाणा)

ङ्म स्वतंत्रता दिवस विशेषांक में सभी लेखों ने भारत के चिंतन को बड़े ही अच्छे तरीके से स्पष्ट किया है। सभी लेख ऊर्जादायक हैं। डॉ. बजरंग लाल गुप्त का लेख भारत के अर्थ चितन को स्पष्ट करते हुए एक दिशा भी देता है तो वहीं वामदेव शास्त्री का लेख विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए एक प्रेरणा स्रोत से कम नहीं है। भारत बनाम इंडिया विषय ने देश के सामने आईना रखा और स्पष्ट किया है कि भारत और इंडिया के मध्य क्या अन्तर है।
—रामदास गुप्ता
जनता मिल (जम्मू-कश्मीर)
ङ्म लेख 'भटकाव के 68 वर्ष' उन लोगों की  आंखों को खोलता है, जो अभी तक कांग्रेस और उसके सहयोगी सेकुलर दलों को अच्छा समझने की बड़ी भूल कर रहे थे। लेकिन ऐसे लोगों को यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए क्योंकि यह उन दलों की पूरी पोल-पट्टी खोलता है और उनकी कारगुजारियों को देश के सामने रखता है। नेहरू परिवार ने सत्ता में बने रहने के लिए हिन्दुस्थान का बंटवारा कराया। साथ ही भारत को इंडिया बनाने का भी कार्य उन्होंने किया। लेकिन फिर भी देश की जनता अंधेरे में रही और आज तक कांग्रेस को वोट करती रही। पर अब जागने का समय है।
—प्रमोद प्रभाकर वालसंगकर
 दिलसुखनगर (हैदराबाद)
हिन्दुओं पर होता जुल्म
बंगाल में हिन्दू बहन-बेटियों के साथ अत्याचार की घटनाएं दिल दहलाती हैं।  ममता सरकार वोट के लालच में कुछ भी कर गुजरने का तैयार है। ऐसी घटनाएं बंगाल में ही नहीं बल्कि देश के अन्य प्रदेशों में भी जिहादियों द्वारा की जाती है। अपने आप को सेकुलर कहने वाले नेता व सेकुलर मीडिया इन विषयों पर  एक भी शब्द बोलने को तैयार नहीं है। देश को इन जिहादियों के विरुद्ध एकजुट होकर आर-पार की लड़ाई लड़ने की आवश्यकता है।
—इन्दुमोहन शर्मा
राजसमंद (छ.ग.)
ङ्म टुकटुकी मंडल की दास्तान हिन्दू लड़कियों पर बंगाल में अत्याचार और दुराचार की सचाई व्यक्त करती है। वोटों के लालच में प्रदेश की ममता सरकार कार्रवाई करने के नाम पर ऐसे लोगों को संरक्षण प्रदान करती है। बड़ा आश्चर्य है कि देश की मीडिया ऐसी घटनाओं पर चुप्पी साध लेती है। क्या उसे ऐसी घटनाएं दिखाई नहीं देती या जानबूझकर वह देखना नहीं चाहता? बंगाल राष्ट्रभक्ति और वीर भक्तों की भूमि रही है। आज यहां पर ऐसे कृत्य होना देश को शर्मिंदा करता है। प्रदेश सरकार इस प्रकार के कृत्यों को तत्काल रोके और हिन्दुओं पर होते जुल्म पर अंकुश लगाए।    
— हरिओम जोशी
 चतुर्वेदी नगर, भिण्ड (म.प्र.)

अपने देश में पराई हिन्दी
किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्रता तब तक पूर्णता: को प्राप्त नहीं हो सकती है, जब तक राजनीतिक और अर्थनीतिक स्वतंत्रता के साथ भाषायी और सांस्कृतिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो जाती। इसके लिए जरूरी है कि राष्ट्र के नागरिक ह्दय से अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति आन्तरिक प्रेम  करते हों। लेकिन दिन-प्रतिदिन इस प्रेम में गिरावट होती रही और देश पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगने लगा। उसका परिणाम आज हम सभी के सामने है। हम अपने ही देश में पराए से हैं। या फिर यूं कहें हमारा देश अंग्रेजी और अंग्रेजियत के कब्जे में है। आज अंग्रेजी भाषा के बिना सरकारी-गैर सरकारी किसी भी प्रकार का काम नहीं होता है। अच्छी हिन्दी या मातृभाषा जानने वाले एक तरह से राह में भटक रहे  हैं तो वहीं अंग्रेजी जानने वालों को तरजीह दी जा रही है। युवा मन-मस्तिष्क पर अंग्रेजियत का ऐसा प्रभाव हुआ है कि पाश्चात्य परिधान के बिना तो आज का युवा घर से बाहर ही नहीं निकलता। यह तो रही मात्र रहन-सहन की बात है। जबकि गौर से देखें तो भारत के लोग अपनी परंपरा लगभग भूल चुके हैं या फिर भूलने के कगार पर हैं, जिसके कारण हमारी भाषा और संस्कृति की स्थिति लगभग ध्वस्त होने के पथ पर अग्रसर होती जा रही है और कुछ दिन ऐसा ही रहा तो भारतीय भाषाएं और संस्कृति लगभग समाप्त हो जाएगी।  ऐसा नहीं है कि जो लोग मातृभाषा और हिन्दी का समर्थन करते हैं वे अंग्रेजी के विरोधी हैं। बल्कि वे अपनी भाषा को मानने वाले लोग हैं और उसे ऊपर उठते हुए देखना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि व्यक्ति को अंग्रेजी सहित अन्य विदेशी भाषाओं को पढ़ना और सीखना चाहिए, परन्तु अपनी मातृभाषा को नहीं भूलना चाहिए। वर्तमान में शिक्षा प्रणाली में बढ़ते अंग्रेजी के दवाब के कारण हमारी मातृभाषा दिन-प्रतिदिन संकुचित होती जा रही है। हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं का हाल खराब है। इसलिए केन्द्र सरकार को चाहिए कि भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दें और सिर्फ बढ़ावा ही नहीं बल्कि नियम-कानून के साथ उसे लागू भी करंे। भारतीय भाषाओं को बचाना आज की महती आवश्यकता है।
—डॉ. देवेनचन्द्र दास 'सुदामा'
ब्रह्मसत्र, तेतेलिया, गुवाहाटी (असम)

सुलग रहा गुजरात
आरक्षण के नाम पर, सुलग रहा गुजरात
नहीं नौकरी है कहीं, पर तूफानी बात।
पर तूफानी बात, नये नेता हैं आये
आग उगल कर लोगों के सीने भड़काये।
हैं 'प्रशांत' जो हीरे-मोती के व्यापारी
तुच्छ नौकरी से करना चाहें वे यारी॥  
-प्रशांत
 

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