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महत्वाकांक्षी होना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन कोई चुहिया हल्दी की डली लाकर पंसारी बन बैठे तो यह उसका पागलपन भी हो सकता है और आत्महत्या करने का दुस्साहस भी। इन दिनों हैदराबाद के नेता असदुद्दीन ओवैसी कुछ ऐसा ही दुस्साहस करते दिखाई पड़ रहे हैं। समय-समय पर ओवैसी की रोमांचकारी गाथाएं, जिन्हें वे अपने बढ़ते कदम की संज्ञा देते हैं, उस पर नजर दौड़ा लेना दिलचस्प भी होगा और रोमांचकारी भी। देश की वर्तमान पीढ़ी भारत में हैदराबाद के विलय की संगीन कहानी से बहुत कम परिचित है। सरदार पटेल के लोहखंडी हाथों ने किस साहस और चतुराई से भारत में तत्कालीन निजाम हैदराबाद के साम्राज्य का विलय कर जिन्ना के सपनों को चकनाचूर किया, इसके परिप्रेक्ष्य में हैदराबाद की कहानी इसलिए जानना आवश्यक है ताकि भारत की वर्तमान पीढ़ी उस साम्प्रदायिक राजनीति को समझ सके जिसमें आज भी वहां के वर्तमान सांसद उसे झुलसा देने के लिए कटिबद्ध हैं। ओवैसी को समझने के लिए हैदराबाद में जन्मा और पला संगठन मजलिसे इत्तिहादुल मुसलिमीन को समझना बहुत आवश्यक है। जिन्ना की मुस्लिम लीग की तरह इसका भी आधार केवल और केवल मुसलमान मतदाता ही हैं। समय-समय पर भारत में अनेक मुसलमानों के राजनीतिक और सामाजिक संगठन और राजनीतिक दल बनते चले गए। लेकिन इनमें आज भी मुस्लिम लीग और मजलिसे इत्तिहादुल मुसलमीन जीवित हैं। उसका दायरा भले ही छोटा हो लेकिन उसके कीटाणु समय आते ही फिर से जीवित होकर सक्रिय हो जाते हैं। दक्षिण भारत में ओवैसी ने फिर वही साम्प्रदायिकता और अलगाव की पुरानी कहानी को दोहराना प्रारम्भ किया है। इसका परिणाम लोकसभा और अब विधानसभाओं के साथ-साथ नगरपालिकाओं में भी देखने को मिल रहा है। राजनीति के मैदान में इस बार ओवैसी मुस्लिम मतदाताओं के कंधों पर चढ़कर अलगाव की राजनीति से देश में नई लहर और उनके मन-मस्तिष्क में नई चेतना के संचार का भरसक प्रयास कर रहे हैं।
असदुद्दीन ओवैसी ने अपनी पारी उस समय प्रारम्भ की है, जब देश में कांग्रेस कमजोर हो गई है। केरल में जो खेल कोया ने खेला उसी का अनुसरण करके ओवैसी अपना पांव आंध्र और उसके निकट के प्रदेशों में जमाना चाहते हैं। हैदराबाद और आंध्र के अन्य भागों में तो उनकी पहुंच हो जाएगी लेकिन पड़ोसी कर्नाटक और महाराष्ट्र में भी वे अपना पांव जमाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। पिछले कुछ चुनावों में मिली थोड़ी बहुत सफलता ने उनके हौसले बुलंद किए हैं। हम यदि उनकी इन छोटी सफलताओं का विश्लेषण एक बार कर सकने में सफल हो गए तो उनके भविष्य की लिखी इबारत को अधिक सफलता और सरलता से पढ़ सकेंगे। 'बिल्ली के भाग का छींका टूटा' उसी प्रकार असदुद्दीन ओवैसी के लिए कांग्रेस का कमजोर होना वरदान साबित हुआ। इन प्रदेशों में कांग्रेस से मुसलमान वोटर अलग हुआ तो उसका कहीं न कहीं तो जाना तय था। संयोग ऐसा हुआ कि इसका लाभ ओवैसी के दल को मिल गया। आजादी के पश्चात कांग्रेस का सत्ता में आना मुसलमानों के लिए वरदान साबित हुआ। क्योंकि पाकिस्तान बन जाने के बाद मुसलमानों के पास कांग्रेस को समर्थन देने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं था। कांग्रेस ने मुसलमानों को अपना वोट बैंक बनाकर पूरा-पूरा लाभ उठाया। इसी प्रकार मुसलमानों ने भी मतदाता बैंक बनकर कांग्रेस का लाभ लेने में कोई कसर शेष नहीं रखी। दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता थी, इसलिए जुड़े रहे और दोनों ही अपने ढंग से एक-दूसरे का लाभ ही नहीं उठाते रहे बल्कि समय-समय पर 'ब्लैकमेल' भी करते रहे। इसके साथ ही मुसलमानों में अपनी साम्प्रदायिकता और अलगाव दल बनते चले गए। केरल में मुस्लिम लीग विभाजन के समय की आखिरी पहचान थी लेकिन बाद में प्रादेशिक स्तर पर जहां मुसलमान बड़ी संख्या में थे वहां अपनी छोटी-छोटी पार्टियां बनाते रहे। कर्नाटक में यह मजलिसे इत्तिहादुल मुसलमीन को मिल गया जिसके नेता इन दिनों असदुद्दीन ओवैसी हैं। भारत में जब कभी कांग्रेस पर संकट आया तो मुसलमान मतदाताओं ने ही उसे संभाला है। इसलिए उसके नेताओं को यह विश्वास है कि समय आने पर यदि किसी मुस्लिम पार्टी को सरकार बनाने की आवश्यकता पड़ी तो केवल कांग्रेस ही उसे समर्थन दे सकती है। इसलिए भारत में सत्ता का समीकरण बनाए रखने में कांग्रेस और मुस्लिम पार्टियों में निकटता पैदा हो जाए तो आश्चर्य की बात नहीं। केरल में मुस्लिम लीग कांग्रेस की सहयोगी रही है तो कर्नाटक और महाराष्ट्र में उसे यह विश्वास प्राप्त है। मुस्लिम मतदाता का समर्थन लेकर कांग्रेस आज तक तो केरल में साम्यवादियों को ललकारती रही है, इसी शैली के आधार पर आने वाले दिनों में कांग्रेस ओवैसी को समर्थन देकर कर्नाटक में अपने सुनहरे भविष्य की कल्पना क्यों नहीं कर सकती? इसलिए अब सत्ता में अपना स्थान बनाए रखने के लिए कांग्रेस ओवैसी की मजलिस का लाभ लेने में हिचकिचाएगी नहीं। यही स्थिति आने वाले दिनों में महाराष्ट्र में भी देखी जा सकती है। भूतकाल में सरदार पटेल ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को पटखनी दी थी वैसी ही भूमिका अब ओवैसी निभाने को आतुर हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सफलता से कांग्रेस और मुसलमान दोनों चिंतित हैं इसलिए ऐसा गठबंधन अस्तित्व में आए तो नकारा नहीं जा सकता। इसकी पड़ताल के लिए ओवैसी के बढ़ते कदमों पर विचार करना हर राष्ट्रवादी के लिए अनिवार्य है। ओवैसी ने महाराष्ट्र में एक कदम आगे बढ़कर अपने साथ वंचितों को भी जोड़ने की रणनीति को क्रियान्वित किया है।
महाराष्ट्र के औरंगाबाद के नगर निगम चुनाव में ओवैसी ने 'जय मीम, जय भीम' का नारा लगाकर वंचित समाज को भी हिन्दू समाज से अलग बतलाने की चाल चली। इसका परिणाम भी दिखलाई पड़ रहा है। यह पहला अवसर था, जब उन्होंने महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में अपनी सफलता का झंडा लहराया। पिछले सम्पन्न विधानसभा चुनाव में उन्होंने एक सीट औरंगाबाद में और दूसरी नई मुम्बई में जीतकर अपने प्रभाव से परिचित करवा दिया। महाराष्ट्र में शिवसेना से लोहा लेना आसान बात नहीं है, लेकिन अपनी इस विजय से उन्होंने यह बतला दिया कि मजलिस का एजेंडा कर्नाटक के बाहर भी फहराए तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। महाराष्ट्र में ओवैसी की सफलता चिंता उपजाने का प्रयास है। विधानसभा की तरह नगरपालिका चुनाव में भी ओवैसी ने अपने तेवर बतलाने में कीर्तिमान रचा है। औरंगाबाद नगर निगम की 113 सीटों में मजलिस ने 26 सीटों पर कब्जा कर लिया। यहां भाजपा को 23 और शिवसेना को 28 सीटें मिली हैं।
ओवैसी महाराष्ट्र को लेकर बड़े आशावादी हैं। भविष्य में मुंबई, पुणे और ठाणे की नगरपालिका चुनाव केवल दो वर्ष बाद होने जा रहे हैं। इसलिए ओवैसी इन दिनों महाराष्ट्र की परिक्रमा लगाने में व्यस्त हैं। वे अब हैदराबादी कम और मुम्बइय्या अधिक हो रहे हैं। मुसलमानों को आकर्षित करने के लिए यह एक सोचा-समझा ड्रामा है। उनके भाषणों में मजहब की बात कम होती है और सियासत की बांग अधिक सुनाई देती है। उनका यह चिंतन है कि मुसलमान बंधु इससे ही प्रसन्न होंगे। लेकिन सच्चे और अच्छे मुसलमान इसकी तीव्र निंदा करते हैं।
भविष्य की नगरपालिकाओं में चुनाव के लिए ओवैसी ने अपना कार्यक्रम तैयार कर लिया है। भारत के राजनीतिक दल इस साम्प्रदायिक दल की नाक में नकेल नहीं डाल सके तो भारत में अलगाव और साम्प्रदायिकता की राजनीति को निश्चित ही गति मिलने वाली है। –मुजफ्फर हुसैन
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