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युक्त राज्य अमरीका में स्टीफन नैप नाम के एक विदेशी लेखक की बहुत शोध की हुई पुस्तक 'भारत के खिलाफ अपराधों और प्राचीन वैदिक परंपरा की रक्षा की आवश्यकता' प्रकाशित हुई है। ये पुस्तक विदेशों में चर्चित हुई है मगर भारत में उपेक्षित, अवहेलित है। इस पुस्तक का विषय भारत में हिन्दुओं के मंदिरों की सम्पत्ति, चढ़ावे, व्यवस्था की बंदरबांट है। इस पुस्तक में दिए गए आंखें खोल देने वाले तथ्यों पर विचार करने से पहले, आइये कुछ काल्पनिक प्रश्नों पर विचार करें।
बड़े उदार मन, बिल्कुल सेकुलर हो कर परायी बछिया का दान करने की मानसिकता से ही बताइये कि क्या हाजियों से मिलने वाली राशि का सऊदी अरब सरकार गैर-मुस्लिमों के लिये प्रयोग कर सकती है? प्रयोग करना तो दूर वह क्या ऐसा करने का सोच भी सकती है? केवल एक पल के लिये कल्पना कीजिये कि आज तक वहाबियत के प्रचार-प्रसार में लगे, कठमुल्लावाद को पोषण दे रहे, परिणामत: इस्लामी आतंकवाद की जड़ों को खाद-पानी देते आ रहे सऊदी अरब के राजतंत्र का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और वह विश्व-बंधुत्व में विश्वास करने लगता है। सऊदी अरब की विश्वभर में वहाबियत के प्रचार-प्रसार के लिये खरबों डलर फेंकने वाली सरकार हज के बाद लौटते हुए भारतीय हाजियों के साथ भारत के मंदिरों के लिये 100 करोड़ रुपया भिजवाती है। कृपया हंसियेगा नहीं, यह बहुत गंभीर प्रश्न है।
क्या वेटिकन आने वाले श्रद्धालुओं से प्राप्त राशि गैर-ईसाई व्यवस्था में खर्च की जा सकती है? कल्पना कीजिये कि पोप भारत आते हैं। दिल्ली हवाई अड्डे पर विमान से उतरते ही भारत भूमि को दंडवत कर चूमते हैं। उठने के साथ घोषणा करते हैं कि वे भारत में हिन्दू धर्म के विकास के लिये 100 करोड़ रुपए विभिन्न प्रदेशों के देव-स्थानों को दे रहे हैं। तय है आप इन चुटकुलों पर हंसने लगेंगे और आपका उत्तर निश्चित रूप से 'नहीं' होगा। प्रत्येक पंथ के स्थलों पर आने वाले धन का उपयोग उस पंथ के हित के लिए किया जाता है। तो इसी तरह स्वाभाविक ही होना चाहिए कि मंदिरों में आने वाले श्रद्धालुओं के चढ़ावे को मंदिरों की व्यवस्था, मरम्मत, मंदिरों के आसपास के बुनियादी ढांचे और सुविधाओं के प्रशासन, अन्य कम ज्ञात मंदिरों के रख-रखाव, पुजारियों, उनके परिवारों की देख-रेख, श्रद्धालुओं की सुविधा के लिये उपयोग किया जाये। अब यहां एक बड़ा प्रश्न फन काढ़े खड़ा है। क्या मंदिरों का धन मंदिर की व्यवस्था, उससे जुड़े लोगों के भरण-पोषण, आने वाले श्रद्धालुओं की व्यवस्था से इतर कामों के लिये प्रयोग किया जा सकता है?
अब आइये इस पुस्तक में दिए कुछ तथ्यों पर दृष्टिपात करें। आंध्र प्रदेश सरकार ने मंदिर अधिकारिता अधिनियम के तहत 43,000 मंदिरों को अपने नियंत्रण में ले लिया है और इन मंदिरों में आये चढ़ावे और राजस्व का केवल 18 प्रतिशत मंदिर के प्रयोजनों के लिए वापस लौटाया जाता है। तिरुमला तिरुपति मंदिर से 3,100 करोड़ रुपये हर साल राज्य सरकार लेती है और उसका केवल 15 प्रतिशत मंदिर से जुड़े कायोंर् में प्रयोग होता है। 85 प्रतिशत राज्य के कोष में डाल दिया जाता है और उसका प्रयोग सरकार स्वेच्छा से करती है। क्या ये भगवान के धन का गबन नहीं है? इस धन को आप और मैं मंदिरों में चढ़ाते हैं और इसका उपयोग प्रदेश सरकार हिंदू धर्म से जुड़े कायोंर् की जगह मनमाने तरीके से करती है। ओडिशा में राज्य सरकार जगन्नाथ मंदिर की बंदोबस्ती की भूमि के ऊपर की 70,000 एकड़ जमीन को बेचने का इरादा रखती है।
केरल की कम्युनिस्ट और कांग्रेसी सरकारें गुरुवायुर मंदिर से प्राप्त धन अन्य संबंधित 45 हिंदू मंदिरों के आवश्यक सुधारों को नकार कर सरकारी परियोजनाओं के लिए भेज देती हैं। अयप्पा मंदिर से संबंधित भूमि घोटाला पकड़ा गया है। शबरीमला के पास मंदिर की हजारों एकड़ भूमि पर कब्जा कर चर्च चल रहे हैं। केरल की राज्य सरकार त्रावणकोर, कोच्चि के स्वायत्त देवस्थानम् बोर्ड को भंग कर 1,800 हिंदू मंदिरों को अधिकार पर लेने के लिए एक अध्यादेश पारित करना चाहती है।
कर्नाटक की भी ऐसी स्थिति है। यहां देवस्थान विभाग ने 79 करोड़ रुपए एकत्र किए थे और उसने उन 79 करोड़ रुपयों में से दो लाख मंदिरों को उनके रख-रखाव के लिए सात करोड़ रुपये आबंटित किये। मदरसों और हज सब्सिडी के लिये 59 करोड़ दिए और लगभग 13 करोड़ रुपये चचोंर् को गए। कर्नाटक में दो लाख मंदिरों में से 25 प्रतिशत या लगभग 50,000 मंदिरों को संसाधनों की कमी के कारण बंद कर दिया जायेगा। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि महमूद गजनी तो 1030 ईसवीं में मर गया, मगर उसकी आत्मा अभी भी हजारों टुकड़ों में बंट कर भारत के मंदिरों की लूट में लगी हुई है? यहां यह प्रश्न उठाना समीचीन है कि आखिर मंदिर किसने बनाये हैं? हिंदू समाज के अतिरिक्त क्या इनमें मुस्लिम, ईसाई समाज का कोई योगदान है? बरेली के चुन्ना मियां के मंदिर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में किसी को केवल दस और मंदिर ध्यान हैं जिनमें गैर हिंदू समाज का योगदान हो? मुस्लिम और ईसाई समाज कोई हिन्दू समाज की तरह थोड़े ही है जिसने 1857 के बाद अंग्रेजी फौजों के घोड़े बांधने के अस्तबल में बदली जा चुकी दिल्ली की जामा-मस्जिद अंग्रेजों से खरीद कर मुसलमानों को सौंप दी हो।
यहां ये बात ध्यान में लानी उपयुक्त होंगी कि दक्षिण के बड़े मंदिरों के कोष सामान्यत: संबंधित राज्यों के राजकोष हैं। एक उदाहरण से बात अधिक स्पष्ट होगी। कुछ साल पहले पद्मनाभ मंदिर बहुत चर्चा में आया था। मंदिर में लाखों करोड़ का सोना, कीमती हीरे-जवाहरात की चर्चा थी। टीवी पर बाकायदा बहसें हुई थीं कि मंदिर का धन समाज के काम में लिया जाना चाहिये। यहां इस बात को सिरे से गोल कर दिया गया कि वह धन केवल हिन्दू समाज का है, भारत के निवासी हिन्दुओं के अतिरिक्त अन्य मतावलम्बियों का नहीं है। उसका कोई सम्बन्ध मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी समाज से नहीं है। वैसे वह मंदिर प्राचीन त्रावणकोर राज्य, जो वर्तमान में केरल राज्य है, के अधिपति का है। मंदिर में विराजे हुए भगवान विष्णु महाराजाधिराज हैं और व्यवस्था करने वाले त्रावणकोर के महाराजा उनके दीवान हैं। नैतिक और कानूनी दोनों तरह से पद्मनाभ मंदिर का कोष वस्तुत: भगवान विष्णु, उनके दीवान प्राचीन त्रावणकोर राजपरिवार का, अर्थात तत्कालीन राज्य का निजी कोष है। उस धन पर क्रमश: महाराजाधिराज भगवान विष्णु, त्रावणकोर राजपरिवार और उनकी स्वीकृति से हिन्दू समाज का ही अधिकार है। केवल हिन्दू समाज के उस धन पर अब वामपंथी, कांग्रेसी गिद्ध जीभ लपलपा रहे हैं। यहां एक ही जगह की यात्रा के दो अनुभवों के बारे में बात करना चाहूंगा। वषोंर् पहले वैष्णव देवी के दर्शन करने जाना हुआ। कटरा से मंदिर तक भयानक गंदगी का बोलबाला था। घोड़ों की लीद, मनुष्य के मल-मूत्र से सारा रास्ता गंधा रहा था। लोग नाक पर कपड़ा रख कर चल रहे थे। हवा चलती थी तो कपड़ा दोहरा-तिहरा कर लेते थे। काफी समय बाद 1991 में फिर वैष्णव देवी के दर्शन करने जाना हुआ। तब तक जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल पद को श्री जगमोहन सुशोभित कर चुके थे। आश्चर्यजनक रूप से कटरा से मंदिर तक की यात्रा स्वच्छ और सुविधाजनक हो चुकी थी। कुछ वषोंर् में ये बदलाव क्यों और कैसे आया? पूछताछ करने पर पता चला कि वैष्णव देवी मंदिर को महामहिम राज्यपाल ने अधिगृहीत कर लिया है और इसकी व्यवस्था के लिये अब बोर्ड बना दिया गया है। अब मंदिर में आने वाले चढ़ावे को बोर्ड लेता है। उसी चढ़ावे से पुजारियों को वेतन मिलता है और उसी धन से मंदिर और श्रद्धालुओं से सम्बंधित व्यवस्थायें की जाती हैं।
यहां स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ गया कि मंदिर, जो समाज के आस्था केंद्र हैं, वे पुजारी की निजी वृत्ति का ही केंद्र बन गए हैं और समाज के एकत्रीकरण, हित-चिंतन के केंद्र नहीं रहे हैं। अब समाज की निजी आस्था अर्थात् हित-अहित की कामना और ईश्वर प्रतिमा पर आये चढ़ावे का व्यक्तिगत प्रयोग का केंद्र ही मंदिर बचा है। मंदिर के लोग न तो समाज के लिए चिंतित हैं, न मंदिर आने वालों की सुविधा-असुविधा उनके ध्यान में आती है। क्या यह उचित और आवश्यक नहीं है कि मंदिर के पुजारीगण, मंदिर की व्यवस्था के लोग अपने साथ-साथ समाज के हित की चिंता भी करें? यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो मंदिरों को अधर्मियों के हाथ में जाते देखकर हिंदू समाज भी मौन नहीं रहेगा?
मंदिरों के चढ़ावे का उपयोग मंदिर की व्यवस्था, उससे जुड़े लोगों के भरण-पोषण, आने वाले श्रद्धालुओं की व्यवस्था के लिये होना स्वाभाविक है। यह त्वदीय वस्तु गोविन्दं जैसा ही व्यवहार है। साथ ही हमारे मंदिर, हमारी व्यवस्था, हमारे द्वारा दिए गये चढ़ावे का उपयोग अहिन्दुओं के लिये न हो, यह आवश्यक रूप से करवाये जाने वाले विषय हैं। संबंधित सरकारें इसका ध्यान करें, इसके लिये हिंदू समाज का चतुर्दिक दबाव आवश्यक है अन्यथा लुटेरे भेडि़ये हमारी शक्ति से ही हमारे संस्थानों को नष्ट कर देंगे।
तुफैल चतुर्वेदी
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