23 अगस्त/तुलसी जयंती पर विशेषलोक जगत के प्रखर व्याख्याता - तुलसी
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23 अगस्त/तुलसी जयंती पर विशेषलोक जगत के प्रखर व्याख्याता – तुलसी

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Aug 14, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 14 Aug 2015 13:43:24

भारतीय इतिहास में मुगल काल अपनी परस्पर विरोधी भूमिका के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। ऐसे समय में जबकि संपूर्ण भारतवर्ष मुगलों के अत्याचारों व शोषण से व्यथित हो त्राहि-त्राहि कर रहा था हिन्दी समाज में सर्जना की मूर्तित्रयी-कबीर, सूर व तुलसी का आविर्भाव एक दैवीय संयोग ही था। भक्तिकालीन साहित्य की इस त्रिमूर्ति ने  पीडि़त जाति के मर्म को स्पर्श कर हतप्रभ मानव मन की वेदना को पूर्णरूपेण अनुभूत कर अपने लोकचेत्ता व्यक्तित्वों को और अधिक प्रगाढ़ व प्रगल्भ बना दिया। कबीर व सूर की अपेक्षा गोस्वामी तुलसीदास लोकजीवन के निकटस्थ प्रत्यक्षद्रष्टा माने जाते हैं क्योंकि जीवन के विविध क्षेत्रों में ऐसा कोई भी पक्ष नहीं है जो उनकी अमर कृतियों से अछूता रह गया हो। तुलसीदास उन महाकवियों की परम्परा में आते हैं जिन्होंने कि अपने  कविकर्म व लोकरंजक कर्त्तव्याचरण को ही महत्व प्रदान किया,अपनी कृतियों में किञ्चिन्मात्र भी आत्मपरिचय की चेष्टा नहीं की। इसलिए इतिहासकारों व बुद्धिजीवियों में तुलसी के जन्म स्थान व समय विषयक विवाद आज भी विद्यमान है। जनश्रुति के अनुसार सं. 1599 के अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण बाल्यकाल से ही तुलसी माता-पिता द्वारा परित्यक्त कर दिए गए, गुरु नरहर्यानन्द प्रभृति साधु-सन्तों के सान्निध्य प्रश्रय में ही वे पोषित व दीक्षित हुए। बचपन में माता-पिता से उचित संरक्षण न मिलने का विषाद उनके मन को मर्माहत करता रहा-
माता-पिता जग जाय तज्यो,
विधि हूं न लिखी कछु भाल भलाई।।
  सभवत: वात्सल्य व प्रेम से वंचित तुलसी पत्नी के प्रति ज्यादा आकृष्ट हुए होंगे। तुलसी को प्रेरणादायी सहधर्मिणी रत्नावली हाड़-मांस के शरीर की क्षणिकता का बोध कराते हुए उन्हें भगवान श्रीराम की भक्ति करने का सदुपदेश देती है-
'लाज न आवत आपको दौरे आयहु साथ।'
धिक-धिक ऐसे प्रेम को कहा कहूं मैं नाथ।।
अस्थि चर्ममय देह मम तामैं ऐसी प्रीति।
ऐसी जो श्रीराम में होत न सब भय भीति।।
इस कान्तासम्मित सदुपदेश को आत्मसात कर तुलसी भौतिक जगत से विमुख होकर अपने ध्येय की प्राप्ति में प्रवृत्त हुए परिणामस्वरूप इनकी कर्मप्रवणता व इष्ट साधना के लाघव ने इन्हें साहित्याकाश के दिव्य पटल पर एक देदीप्यमान धूमकेतु के रूप में प्रतिष्ठापित कर लिया।
गोस्वामी तुलसीदास ने अपने भक्ति व कर्म समन्वित जीवन में नानाविध साहित्यिक कृतियों की रचना की। इनके उपलब्ध व प्रामाणिक ग्रन्थों में कालजयी रचना रामचरितमानस के अतिरिक्त कवितावली, गीतावली, दोहावली, विनयपत्रिका, जानकीमंगल, रामललानहछू, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपनी तथा हनुमान चालीसा आदि प्रमुख हैं। उत्कृष्ट कोटि के कलाकार, प्रकाण्ड पण्डित, धर्म व दर्शन के सम्यक व्याख्याता तुलसी ने अपनी अमर कृति रामचरितमानस के माध्यम से न केवल भारतवर्ष अपितु सम्पूर्ण विश्व की संस्कृतियों के सम्मुख भी लोकाचार व जीवन व्यवहार के आदर्शों एवं मूल्यों के सम्यक निर्वहन हेतु समुचित व सर्वजनीन मार्ग निर्दिष्ट किया है जिसे अनुसरित कर सम्पूर्ण मानव जाति परस्पर सौहार्द व सामरस्यपूर्ण शान्तिमय जीवनयापन करने में समर्थ सिद्ध हो सकती है। यद्यपि तुलसी से पूर्व ही मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्श चरित्र का चित्रण आदिकवि वाल्मीकि के साथ-साथ विविध भाषाओं के अनेकानेक कृतिकारों ने जगत के समक्ष प्रस्तुत करने का यत्न किया किन्तु रामकथा को व्यापक रूप से सार्वभौम स्वीकृति तुलसी के माध्यम से ही प्राप्त हुई।
तुलसी की रचनाओं में मात्र भक्त मन के उद्गार ही व्यक्त नहीं हुए हैं अपितु उनका चिन्तन प्रतिनिधि रूप में जनसामान्य नागरिकों के भावावबोध की अभिव्यक्ति करता है। समाज व राष्ट्र में व्याप्त सम-सामयिक विसंगतियों, रूढि़यों, दुराग्रहों, भ्रष्टाचार, व्यभिचार तथा जीवन मूल्यों के विखण्डन व राष्ट्र चरित्र के अवसान से तुलसी मर्माहत दृष्टिगत होते हैं। तुलसी ने समाज की प्रत्येक समस्या का प्रत्यक्ष अवलोकन कर उसे अपनी रचनाओं में तटस्थरूपेण अभिवर्णित करने का यथासम्भव प्रयत्न किया है। तुलसी ने तत्कालीन समाज में ही वर्ग वैषम्य, नारी शोषण, सत्ता लोलुपता, स्वार्थपरायणता, प्रवंचना, परस्वापहरण की प्रवृत्ति, अलगाववाद, परावन्नति की भावना, पारिवारिक सम्बंधों में बिखराव,आदि दुष्प्रवृत्तियों का प्रत्यक्षावलोकन कर लिया था। अपनी लोकरंजक भावना के अनुरूप तुलसी ने इन विकृतियों के शमनार्थ पर्याप्त उपाय खोजे व राष्ट्रकल्याण व लोकहित में सामाजिक व वैचारिक जागरण को प्राथमिकता दी। तुलसी की कविता स्वान्त: सुखाय न होकर सर्वजनहिताय व सर्वजनसुखाय का स्पष्ट उद्घोष करती है, बेशक तथाकथित प्रगतिवादी-बुद्धि के धनी विद्वानों के लिए यह अतीत का क्रन्दन मात्र है।
तुलसी का सम्पूर्ण साहित्य समन्वय का अद्भुत व अपूर्व प्रयत्न है, सगुण व निर्गुण भक्ति का चरमोत्कर्ष, नैतिकता, धर्म, दर्शन व षोडश कलाओं का व्यापक व विशद् परिपाक इनमें सन्निवेष्टित हैं। तुलसी मात्र खण्डन के ही कवि नहीं हैं अपितु ये मण्डन व मंगलभाव के रचनाकार हैं। तुलसी का कृतित्व सर्वसाधारण के लिए ग्राह्य व उपादेयतापूर्ण है। साहित्य शिरोमणियों के पुरोधा तुलसी साहित्य-सर्जना की प्रत्येक विधा व अंग-उपांग से पूणरूपेण परिचित होकर भी उदारमना प्रकृति के हैं, वे अपने पूर्ववर्ती ऋषि-महर्षियों, दार्शनिकों व बुद्धिजीवियों से भी यथोपयुक्त तत्व ग्रहण करने में दुराव नहीं रखते। वाल्मीकि, जयदेव, चन्दवरदाई व विद्यापति के अतिरिक्त अपने समकालीन रचनाकारों- कबीर, सूर, रहीम व जायसी आदि की काव्य पद्धति को उन्होंने अपनी रचनाओं में सायास प्रयुक्त किया है। परिणामस्वरूप अपने समय तक प्रचलित प्रत्येक काव्यशैली का निरूपण व निदर्शन उनकी रचनाओं में दृष्टिगत होता है। तुलसी की दृष्टि व्यापक है वे किसी वाद विशेष से आबद्ध नहीं हैं न ही उन्होंने किसी मत-मतान्तर अथवा मान्यता का ही विरोध किया है, तुलसी ने अज्ञान व अस्तित्वविहीन विश्व में भक्ति व ज्ञान की अजस्र गंगा प्रवाहित की, उन्होंने मानव कल्याणार्थ ज्ञान, कर्म व भक्ति की त्रिवेणी का संगम कर समाज में स्वाभिमान, सामरस्य, राष्ट्रबोध व कर्मपरायणता के सिद्धान्त को समावेष्टित कर एक आदर्श मानववाद के सर्वमान्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। तुलसी के इस मानववाद के समक्ष विश्व के सम्पूर्ण 'वाद' चाहे मार्क्सवाद हो अथवा प्रगतिवाद या समाजवाद सम्पूर्ण 'वाद' बौने सिद्ध होते हैं। तुलसी लोकवाद के श्रेष्ठत्व के प्रणेता हैं, आदर्श जीवन की अमर बेल तुलसी के कृतित्व से ही पल्लवित व पुष्पित हुई है। इसलिए तुलसी कल भी श्रेष्ठ थे आज भी वरेण्य हैं और भविष्य में भी प्रासंगिक रहेंगे।    

सूर्य प्रकाश सेमवाल

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