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प्रत्येक शब्द का एक मूल अर्थ होता है और फिर विभिन्न प्रकार के प्रयोग उसे कुछ नए अर्थ दे देते हैं। कई बार शब्दों को अपने किसी स्वार्थ अथवा लाभ के कारण नए अर्थ दिए जाते हैं। कई बार उसकी आवश्यकता भी होती है। उसमें अर्थ-विस्तार भी होता है और अनेक बार चतुराई से वास्तविक अर्थ छुपा भी दिया जाता है।
सेकुलरिज्म शब्द का अर्थ शब्दकोश में 'लौकिक', 'ऐहिक' अथवा 'सांसारिक' है। उसका धर्म, अध्यात्म अथवा पंथ से कुछ लेना-देना नहीं है। वस्तुत: 'धर्म' शब्द का अर्थ भी पूजा-उपासना, कर्म-कांड, किसी एक मत का प्रचार अथवा किसी पंथ विशेष का अनुसरण नहीं है। किसी मठ, किसी व्यक्ति और किसी ग्रंथ विशेष के महत्व को स्थापित करना भी धर्म नहीं है। गीता के अनुसार धर्म, कर्तव्य कर्म का करना ही है। मनुष्य का धर्म उसका सदाचार है। किंतु इस शब्द का भी व्यवहार में अर्थ बदल दिया गया और यह रिलीजन अथवा मजहब के समकक्ष मान लिया गया है।
मनुष्य ने इस संसार में प्रत्येक मानव को समान रूप से सांसारिक और सामाजिक सुविधाएं देने के लिए 'शासन' का आविष्कार किया और अपना अलौकिक सुख खोजने के लिए, उसे व्यक्तिगत रूप से स्वतंत्र छोड़ दिया क्योंकि अध्यात्म को संगठित और अनुशासित नहीं किया जा सकता। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार अपना इष्टदेव और उपासना-पद्घति चुनता है। यही कारण है कि किसी नए पंथ अथवा संप्रदाय के जन्म के साथ ही उसका विभाजन भी आरंभ हो जाता है। मतभेद उठ खड़े होते हैं और उसके नए-नए नेता जन्म ले लेते हैं।
शासन का दायित्व नागरिकों की रक्षा, उनका पालन-पोषण, उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य रक्षा इत्यादि है। देश में अनुशासन बनाए रखने के लिए ही शासन होता है। दुष्ट-दलन, सबकी रक्षा और सबको न्याय देना उसका दायित्व है। न्याय समान स्वतंत्रता में ही हो सकता है। किसी एक के अधिकारों को सीमित कर दूसरे को विशेषाधिकार देना न कभी समानता ला सकता है, न न्याय। शासन का अपना संविधान होता है और वह देश को उसी संविधान के अनुसार चलाता है। उसमें कहीं भी तथाकथित धर्म का हस्तक्षेप नहीं है और न ही धर्म में शासन का हस्तक्षेप है। धर्म का यह वह रूप है, जो व्यक्तिगत है और उसमें किसी प्रकार का कोई संगठन नहीं है। संगठित धर्म आध्यात्मिक न रहकर सांसारिक हो जाता है। वह एक राजनीतिक दर्शन होता है, जिसे धर्म का जामा पहना दिया जाता है।
सन् 1947 ई़ में जब हमारे देश में सत्ता का हस्तांतरण हुआ तो देश दो भागों में बांट दिया गया और महत्वपूर्ण बात यह है कि वह विभाजन धर्म के आधार पर ही हुआ, सेकुलरिज्म के आधार पर नहीं। वहां धर्म राजनीति के रूप में ही आया था या कहें कि राजनीति धर्म की आड़ ले कर आई थी। हमारे तथाकथित सेकुलर नेताओं ने द्विराष्ट्रवाद के सिद्घांत के सामने घुटने टेके। पता नहीं वे धर्म की राजनीति को समझ नहीं रहे थे या समझना चाहते नहीं थे। या उससे डर गए थे। यहां यह स्वीकार किया गया कि राष्ट्र का आधार देश नहीं, धर्म होता है। यह अद्भुत है कि धर्म के आधार पर देश का बंटवारा कर हमारे नेताओं ने स्वतंत्र भारत को सेकुलर देश घोषित किया। यह सुखद तथ्य था कि धर्म के नाम पर इतना रक्तपात होने के पश्चात् भी, देश के एक भाग के अलग हो जाने पर भी, भारत को सेकुलर घोषित किया गया। सेकुलर होने के नाते इस देश के प्रत्येक नागरिक को अपनी आस्था के आधार पर उपासना करने का अधिकार था। किसी का किसी पर दबाव न था, न होना चाहिए था। किसी अन्य क्षेत्र में भी धर्म के आधार पर किसी को वरीयता नहीं दी जा सकती थी। देश धर्म-निरपेक्ष था, इसलिए किसी को कोई विशेषाधिकार नहीं था। किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं था। सारे धर्म स्वतंत्र थे और सरकार की दृष्टि में एक समान थे।
और फिर हमारी सरकार ने भारतीय समाज को (सेकुलर होते हुए भी) धर्म के आधार पर बांटा। धर्म-निरपेक्ष देश होते हुए भी धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक वर्गों में विभाजित किया। जिस देश में सारे नागरिक समान थे, वहां अल्पसंख्यक के नाम पर उन्हें विशेषाधिकार दिए गए। उनके लिए अलग मंत्रालय और अलग मंत्री बनाए गए। विश्वविद्यालय और कॉलेज बनाए गए। उन्हें सरकारी धन से अपने मत-पंथ का प्रचार करने और अपने मतावलंबियों को लाभ पहुंचाने का अधिकार दिया गया। महाराष्ट्र में मदरसे सरकारी धन से केवल कुरान की शिक्षा देते रहे।
दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में 90 प्रतिशत अंकों वाले हिंदू छात्र को प्रवेश न देकर 50 प्रतिशत वाले ईसाई छात्र को प्रवेश देने का नियम है। दिल्ली के एक अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की एक घटना मेरे ध्यान में आती है, जहां प्रवेश परीक्षा में दो हिंदू छात्राओं को असफल घोषित किया गया और बाद में उनसे फोन पर कहा गया कि मुस्लिम कोटे की दो सीटें खाली हैं। यदि वे उनमें प्रवेश लेना चाहें तो इस्लाम कबूल कर लें और प्रवेश ले लें।
मैं जानता हूं कि इन तथ्योंं को प्रमाणित करना बहुत कठिन है, क्योंंकि उनके प्रमाण नहीं जुटाए जा सकते। किंतु जो घटनाएं समाचारपत्रों में भी आ चुकी हैं, हम उन पर भी दृष्टिपात कर लें। एक व्यक्ति एक मकान किराए पर लेना चाहता है, गृहस्वामी उसे वह नहीं देना चाहता, तो वह संचार माध्यमों तक में शोर मचा देता है कि उसे मकान इसलिए नहीं दिया जा रहा, क्योंकि वह मुसलमान है और लोग उसके पक्ष में होकर गृहस्वामी को बुरा भला कहते हैं। इसका अर्थ है कि अल्पसंख्यक के नाम पर उसे यह अधिकार दे दिया गया है कि वह कोई भी मकान पसंद कर ले और उसके स्वामी की इच्छा के विरुद्घ भी उसे किराए पर माइनॉरिटी कार्ड पर बलात् प्राप्त कर ले। गृहस्वामी को यह अधिकार ही नहीं है कि वह अपने घर में अपनी पसंद से किराएदार रखे। पिछले दिनों समाचारपत्र में समाचार आया था, जहां एक युवक ने यह शिकायत की थी कि उसे नौकरी इसलिए नहीं दी गई, क्योंकि वह मुसलमान है। इसका अर्थ यह हुआ कि आवेदक यदि अल्पसंख्यक है तो नौकरी पर उसका अधिकार बन जाता है। इसी संदर्भ में मुझे अपने एक पड़ोसी स्मरण हो आते हैं, जो हंस कर कहा करते थे कि सीधे-सीधे काम हो जाए तो ठीक, नहीं तो हम अपना 'माइनॉरिटी' कार्ड खेलेंगे। अल्पसंख्यक कर्मचारी नौकरी पाने के पश्चात् अपने कार्यस्थल पर अपने मजहबी नियमों का पालन करने का भी अधिकार चाहता है।
हमारे देश में अपने मत-पंथ और अपनी आस्था के नाम पर अनेक प्रकार की सुविधाएं पाने के लिए आंदोलन किए जाते हैं, जबकि हमारा संविधान कहता है कि हम सेकुलर हैं। सेकुलर होने के नाम पर हमारी सरकारों ने राष्ट्र के लोगों को समान बनाने के स्थान पर वैषम्य का ऐसा अनन्त जाल फैला दिया है कि जिसको काटना उसके अपने वश में ही नहीं रहा है। किसी भी राजनीतिक दल का कोई मुसलमान नेता मुंह खोलता है तो यही कहता है कि वह मुसलमानों का विकास करेगा।
वस्तुत: इस सेकुलर देश में देश का संविधान और धर्म का संविधान आमने-सामने है। सरकारी आदेश और धार्मिक आदेश एक-दूसरे को काटते हैं फिर भी कोई यह पूछ नहीं सकता कि किसी धर्म-गुरु के आदेश का संवैधानिक अधिकार क्या है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सेकुलरिज्म के नाम पर इस देश को उसकी ठीक विपरीत दिशा में मोड़ दिया गया है। अल्पसंख्यकों की रक्षा के नाम पर उनको इस प्रकार के विशेषाधिकार दे दिए गए हैं कि समाज में वे प्रत्येक स्थान पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं और कानून उनके सामने बौना हो जाता है। मैं समझता हूं कि इस प्रकार उन्हें कितनी भी सुविधाएं और सहायता दी जाए, उससे उनकी तृप्ति होने के स्थान पर उनकी तृष्णा बढ़ जाती है। कश्मीर उसका एक बड़ा उदाहरण है। भारत का जितना धन सहायता के नाम पर कश्मीर में खर्च होता है, शायद ही कहीं अन्यत्र होता हो, किंतु भारत का सबसे अधिक विरोध भी कश्मीर में ही होता है, और उनकी मांगें भी बढ़ती जाती हैं। भारत में सेकुलरिज्म नहीं, उसका बहुसंख्यक-विरोधी एक विकृत ही नहीं भयावना रूप प्रचलित है। इससे देश का कोई हित होने की संभावना नहीं है। ल्ल (2़ 8़ 2015)
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