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डॉ़ सुब्रह्मण्यम स्वामी
भी हाल में हुई दो घटनाओं ने राष्ट्र का ध्यान आकर्षित किया है। पहली घटना है पंजाब के गुरदासपुर में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवादी हमला। इससे वहां 1984 के विक्षिप्त दिनों जैसा माहौल बनने का खतरा है। दूसरी है कुछ कांग्रेसी, वामपंथी तथा मुस्लिम नेताओं द्वारा उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय पर प्रहार जिसमें आतंकवादी याकूब मेमन को फांसी की सजा दी गई है। इस सजा पर मजहबी रंग चढ़़ाया जा रहा है। इन दोनों घटनाओं ने हिन्दू-मुसलमान के बीच की खाई बढ़ाकर 900 वर्ष पुराने वैमनस्य के घाव को गहरा दिया है।
इस घाव को हरा करने में दो ऐतिहासिक तथ्यों की भूमिका है। पहला तो यह कि भारत पर इस्लामी आक्रमण अनेक वषोंर् की सल्तनत के बाद भी अपने मूल उद्देश्य में विफल रहा। यह उद्देश्य था भारत की हिन्दू आबादी को जबरन मुसलमान बनने पर मजबूर करना। मुगल शासकों की यह पराजय मुसलमानों के लिए इसलिए और भी असहनीय थी क्योंकि वे जहां भी गए, वहां जुल्म ढा कर पारसियों, यहूदियों और मिस्र के मूल निवासियों को इस्लाम कबूल करने पर मजबूर कर दिया, किंतु भारत में यह संभव न हो पाया। यहां तक कि मेसोपोटामिया और बेबलोन (अब इराक) के मूल निवासियों को भी मुगलों ने कन्वर्जन पर विवश कर दिया। दूसरा तथ्य है कि अब हिन्दू अपने दम पर सत्ता में वापस आ गए हैं और अब इस दौर में अपनी विरासत व सभ्यता को पुनर्प्रतिष्ठित करने में लगे हैं। उदाहरण के लिए 'सर्वधर्म समभाव' की परम्परा को 'पंथनिरपेक्षता' का नाम दे दिया गया था। इसे नेहरू ने अपनी अलग व्याख्या देकर तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया, जो आज के व्यावहारिक अथोंर् में मुस्लिम तुष्टीकरण ही है।
एक तरफ आतंकवाद के सहारे हम पर युद्ध जैसे हालात थोपे जा रहे हैं, दूसरी तरफ मुस्लिम घुसपैठियों के रूप में भारत के जनसांख्यिक अनुपात को बिगाड़ा जा रहा है। दु:ख तो इस बात का है कि देश के सेकुलर राजनीतिक दल और मीडिया यह सब देखकर भी या तो चुप है या जानबूझ कर इसे नजरअंदाज किया जा रहा है। यह जानते हुए भी कि यह देश की एकता व अखंडता के लिए खतरनाक है। एक ओर आतंकवाद व दूसरी ओर मुस्लिम घुसपैठियों के बीच में भारत फंसता जा रहा है। पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित आतंकवादी अपनी मर्जी से जब चाहे देश में घुस आते हैं। वे यहां आकर अपने गुर्गे बनाते हैं और इसके सहारे देश के महत्वपूर्ण ठिकानों पर हमले की योजनाओं को अंजाम देते हैं।
भारतीय मुस्लिम मतदाताओं का तुष्टीकरण आज की राजनीति का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू बनता जा रहा है। यह हमारे राष्ट्र के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। अर्वाचीन हिन्दुस्थान का नक्शा आज के भारत, ईरान, पाकिस्तान, बंगलादेश, म्यांमार, नेपाल और अफगानिस्तान से मिलकर बना था। इतिहास में देखें तो हम पाते हैं कैकेयी का मूल स्थान ईरान था, जबकि गांधारी अफगानिस्तान से आयी थींप। जब तक सन् 711 ई़ में मुहम्मद बिन-कासिम की सेना ने सिंध पर हमला नहीं किया था, यह पूरा क्षेत्र शत-प्रतिशत हिन्दू था। यहीं से ईरान व अफगानिस्तान पर कब्जे की नींव पड़ी।
अपने धर्म व मातृभूमि की रक्षा के लिए हिन्दुओं ने बहादुरी से सैकड़ों वषोंर् तक मुस्लिम आक्रांताओं का सामना किया, किंतु सन् 987 में अफगानिस्तान, 1011 में ईरान, 1947 में पाकिस्तान व बंगलादेश के रूप में हिन्दुओं को हार का सामना करना पड़ा। 1947 के बाद बचे-खुचे भारत में मुस्लिम-बहुल कश्मीर में हिन्दुओं को जनसंहार का सामना करना पड़ा। कमोबेश यही हालत मुस्लिम बहुल जगहों पर है। जैसे केरल में मल्लपपुरम, जहां हिन्दुओं को हिंसा व दमन का शिकार होना पड़ता है।
बंगलादेश से मुस्लिम घुसपैठ तथा देश में मुस्लिम परिवारों की तेजी से बढ़ती जनसंख्या दर से सजग हिन्दू अब इस डर के शिकार होते जा रहे हैं कि आने वाले कुछ दशकों में हिन्दुओं का अनुपात घटता जाएगा। फिर उन्हें वही स्थिति देखनी होगी जो आज के हिन्दुओं को पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान आदि मे झेलनी पड़ रही है। एक अपुष्ट आकलन के अनुसार केरल में हिन्दू अल्पसंख्यक बन चुके हैं, हालांकि मुस्लिम अभी बहुसंख्यक नहीं बन पाए हैं, क्योंकि ईसाइयों की संख्या इसमें बाधक है।
बंगलादेश से होने वाली घुसपैठ के कारण देश की सीमा से लगने वाले कई जिलों में मुसलमानों की संख्या में असाधारण वृद्धि देखी जा रही है। यहां यह उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय ने 12 जुलाई, 2005 के अपने निर्णय में 'अवैध प्रवासी ( डीटी) अधिनियम 1983 'को अमान्य घोषित करके कहा था कि बंगलादेश से होने वाली घुसपैठ 'बाहरी आक्रमण' जैसी ही है। इस निर्णय में कहा गया था कि उन सभी बंगलादेशी नागरिकों को, जो असम में रह रहे हैं या देश के दूसरे भागों में बस गए हैं, भारत में बने रहने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है और उन्हें देश से निकाल बाहर करना चाहिए।
माननीय न्यायालय के निर्णय पर अमल करने के बजाय संप्रग सरकार 10 फरवरी, 2006 को एक नया कानून 'विदेशी असम अधिकरण आदेश' लेकर आई और उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवमानना की। किंतु उसी वर्ष 5 दिसम्बर को उच्चतम न्यायालय ने यह नया कानून भी रद्द कर दिया और आदेश दिया कि 12 जुलाई, 2005 के निर्णय पर अमल किया जाए व अवैध घुसपैठियों को वापस भेजा जाए।
इन सभी आदेशों के बावजूद अभी तक नाम मात्र के घुसपैठियों को वापस भेजा गया है। कहा जा रहा है कि जो भेजे भी गए हैं वे चुपचाप फिर घुस आए हैं। घुसपैठियों ने यहां मतदान सहित अनेक अधिकार प्राप्त कर लिए हैं। पाकिस्तान और बंगलादेश के बीच जारी रेल और बस सेवाओं के कारण घुसपैठियों का भारत आना और आसान हो गया है।
1200 वर्ष तक हम अपने धर्म की रक्षा के लिए बहादुरी से लड़ते रहे और विदेशी आक्रमणकारियों के सामने घुटने नहीं टेके। बार-बार उन्हें पराजित किया, उनके मंसूबों पर पानी फेरा। मगर अब कुछ हिन्दू ही ऐसा कर रहे हैं जिससे कि कन्वर्जन में लगे ईसाइयों और जिहादियों का मनोबल बढ़ता जा रहा है।
इस्लामी आतंकवाद
26 नवम्बर, 2008 को पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा मुम्बई में किया गया सुनियोजित हमला भी हमें जगाने के लिए काफी नहीं रहा। पाकिस्तान एक मुस्लिम-बहुल देश है। इसे दारुल-इस्लाम कहना ही उचित होगा, जहां अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं है। इस्लाम के अनुसार दारुल-इस्लाम के सभी बाशिन्दों को उन देशों के साथ जिहाद छेड़ देना चाहिए जो दारुल-हरब हैं। इसका मतलब साफ है कि भारत सदैव ही पाकिस्तान के आतंकियों और बंगलादेश के घुसपैठियों का शिकार होता रहेगा। दारुल-हरब में बहुसंख्यक हमेशा नरम स्वभाव वाले होते हैं। जैसे भारत में हिन्दू। जिन जगहों में बहुसंख्यक एकजुट हों और उन्हें बांटना मुश्किल हो तो वह दारुल-अहद कहलाता है और ऐसी जगहों पर मुस्लिम अल्पसंख्यक समझौते करके और झुक कर रहते हैं। इसे अल-तक्किया कहते हैं।
वर्तमान परिस्थिति में एक राष्ट्रवादी सरकार को चाहिए कि 'मुस्लिम समुदाय को मनाकर उसके साथ एक अल-तक्किया समझौता करे। इसके लिए भारतीयों को चाहिए कि कोई भी क्षेत्र-राज्य, जिला या पंचायत ऐसा न हो जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हों़, क्योंकि यदि ऐसा होगा तो वह क्षेत्र एक लघु-दारुल-इस्लाम बन जाएगा। इसलिए एक राष्ट्रवादी सरकार को चाहिए कि सभी इलाकों में जनसंख्या का पुनर्वितरण किया जाए। कश्मीर में भारतीय सेना के 10 लाख पूर्व सैनिकों को इस तरह बसाया जाए कि हिन्दुओं की जनसंख्या का अनुपात उसी प्रकार हो जैसा कि पहले था।'
सेकुलर बुद्धिजीवी टेलीविजन की बहसों में इस्लाम की कितनी भी तारीफ करें और इसे मानवीय व शांतिपूर्ण मजहब बताएं सच्चाई तो यह है कि इन लोगों ने कुरान, सीरा व हदीस का प्रामाणिक अनुवाद पढ़ा ही नहीं है। इन्हीं तीनों ग्रंथों से इस्लाम का सही ज्ञान हो सकता है। ये ग्रंथ बताते हैं कि गैर-मुस्लिमों के साथ, जिन्हें काफिर व धिम्मी कहा जाता है, किस तरह असहिष्णुता बरतनी चाहिए। इसी तरह मुस्लिम समुदाय के वे लोग, जो अपने आपको नरमपंथी बताते हैं, इस्लाम की 'सही' व्याख्या की बात छोड़ दें। वे मजहबी ग्रंथों को अधिकाधिक लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप बनाने की वकालत करें।
अमरीका में 9/11 के हमले के बाद सऊदी अरब के दूतावास के इस्लामी मामलों के विभाग की वेबसाइट पर 'एक अच्छे मुसलमान से क्या अपेक्षित है' को परिभाषित करते हुए लिखा गया था, 'मुसलमानों को अपनी रक्षा के लिए, दुनियाभर से जुल्म व अन्याय के खात्मे के लिए तथा दुनियाभर में अल्लाह की महानता के लिए, जिहाद छेड़ देना चाहिए। यदि मुस्लिम अपनी तलवार नहीं उठाएंगे तो इस धरती पर जुल्मी लोग कमजोर व असहाय लोगों को जीने नहीं देंगे।'
कमोबेश यही सब तो देशभर के मदरसों में पढ़ाया जाता है और इसे ही पैगम्बर मुहम्मद साहेब की शिक्षा बताया जाता है। यहां मैं पवित्र कुरान की कुछ आयतों का सऊदी अरब में किए गए अनुवाद का उल्लेख करना चाहूंगा। उदाहरण के लिए 8:12, 8:60 व 33:26, जो गैर-मुस्लिम के खिलाफ हिंसा का समर्थन करती हैं। यदि मैं सिरा व हदीश के अन्य उदाहरण दूं तो शायद कुछ लोगों को सहन नहीं होगा। इतना कहना काफी होगा कि कुरान मात्र एक मजहबी ग्रंथ ही नहीं, बल्कि एक राजनीति शास्त्र की तरह है, जो दारुल-इस्लाम में अल्पसंख्यक के साथ अहिंसा का पाठ नहीं सिखाता। हमें इस्लामी विद्वानों से विचारों के आधार पर तर्क करना ही होगा। हो सकता है कि कल कोई मेरे तर्क को काटने के लिए मनुस्मृति के कुछ श्लोकों का हवाला देकर कहे कि इनमें तो दलित व महिला के विरुद्ध हिंसा व प्रताड़ना की बात है, किंतु एक हिन्दू होने के नाते मैं स्वतंत्र हूं कि इन श्लोकों को मानूं या न मानूं, क्योंकि यह तो स्मृति के आधार पर कहा गया है। मैं इनका पुनर्लेखन भी कर सकता हूं जैसा कि याज्ञवल्क्य व मितक्षरा ने किया भी है। सुधार व पुनर्जागरण हिन्दू धर्म में समाहित हैं, किंतु इस्लाम में पैगम्बर द्वारा कहे गए शब्द पत्थर की लकीर हैं। कोई सच्चा मुस्लिम इन्हंे अमान्य नहीं कर सकता या इनके पुनर्लेखन की बात नहीं कर सकता। ऐसा करने में खतरा है। यहां तक कि कार्टून बनाना भी असहनीय है। इस पर दंगे भी हो सकते हैं, लेकिन हिन्दू ऐसा नहीं करते हैं।
हम हिन्दू पारम्परिक रूप से ही उदार हैं। हमने यह अनेक बार सिद्ध भी किया है। बाहर से भारत में आए पारसी, यहूदी, सीरियाई ईसाई, व मोप्लह अरबी मुस्लिम। इन सबको अन्य देशों में प्रताडि़त किया गया, किंतु हमने उन सभी का स्वागत किया। एक हजार वर्ष तक इस्लामी शासकों के जुल्म झेलने और अंग्रेजों से प्रताडि़त होने के बावजूद, 1947 में हिन्दुओं ने पंथनिरपेक्षता को स्वीकार किया। हमारा हश्र क्या हुआ? अपनी ही मातृभूमि मंे अनेक स्थानों पर हम अल्पसंख्यक हो गए। इन सभी स्थानों पर हम दमन भी सह रहे हैं और हमें जुल्म का शिकार भी बनाया जा रहा है। केरल जैसी जगह पर 52 प्रतिशत होने पर भी हिन्दुओं के पास मात्र 25 प्रतिशत नौकरियां हैं। 48 प्रतिशत का राज चल रहा है, क्योंकि वे इकट्ठा होकर वोट देते हैं। इसी वजह से अब हमें जनसंख्या के आंकड़े गंभीर सोच पर मजबूर कर रहे हैं। यदि अब हम इस स्थिति कि विरुद्ध खडे़ नहीं हुए तो धीरे-धीरे हम बेरुत जैसे बन जएंगे, जहां अंतरराष्ट्रीय आतंकी, लुटेरे, अपराधियों का बोलबाला है और जो स्थायी रूप से आंतरिक युद्ध की भूमि बन चुका है। इसका आखिरी परिणाम होगा इस्लामी बहुमत और दारुल-इस्लाम। हमें अब चेतना होगा और इस्लामिक आतंक के जन्मदाता पाकिस्तान पर प्रहार करना होगा।
संभावित हल
21वीं शताब्दी में हिन्दू द्वारा वर्तमान स्थिति के प्रतिवाद के क्या अर्थ हैं? मेरी राय में इसका मतलब बिल्कुल साफ है। सबसे पहले मानसिकता स्पष्ट होनी चाहिए कि हमें निडर होकर विपरीत शक्तियों का मुकाबला करना है साथ ही साथ अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए अपनी संस्कृति के अनुरूप अन्य पांथिक समूहों का सहयोग भी लेने के लिए तैयार रहना है।
स्पष्ट मानसिकता तभी हो सकती है जब हमें अपनी पहचान के बारे मे कोई संशय न हो। भारत आखिर है क्या? एक प्राचीन व सनातन सभ्यता या 1947 में अंग्रेजों द्वारा कुछ राज्यों को इकट्ठा करके बनाया गया भौगोलिक क्षेत्र? 'मैं भारतीय हूं' का वास्तव में क्या अर्थ है? केवल भारतीय गणराज्य का एक पासपोर्ट-धारक नागरिक अथवा दस हजार वषोंर् की संतों व विद्वानों द्वारा पोषित सभ्यता का एक नया वाहक? स्पष्ट है कि हम एक प्राचीन राष्ट्र व हिन्दू सभ्यता के वारिस हैं जिसे ऋषियों व मुनियों ने अपने विशाल ज्ञान से सींचा एवं सनातन दर्शन स्थापित किया। यदि हमारी पहचान हिन्दू संस्कृति है तो फिर हम गैर-हिन्दुओं, विशेषकर मुसलमान व ईसाई को कैसे मना सकते हैं? उन्हें यह बात समझा कर कि वे यह स्वीकार करें कि उनके पूर्वज भी हिन्दू थे। यदि कभी किसी हिन्दू ने धर्म परिवर्तन करके इस्लाम या ईसाइयत अपना लिया तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह हिन्दू संस्कृति से विमुख हो गया। हमें ऐसे सभी मुस्लिम व ईसाइयों का समर्थन करना चाहिए, उन्हंे वृहद हिन्दू समाज का अंग मानना चाहिए तथा यदि वे वापसी चाहें तो इसका स्वागत करना चाहिए।
लेखक, पत्रकार एवं सांसद एम. जे़ अकबर इस पहचान को 'रक्त-सम्बन्ध' का नाम देते हैं और इसे भाईचारा मानते हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत के ईसाई व मुसलमान आखिरकार हिन्दुओं के ही वंशज हैं। शोध पत्र 'अमेरिकन जर्नल ऑफ फिजिकल एंथ्रोपोलोजी' के हालिया लेख में किए गए विश्लेषण के अनुसार उत्तर भारत के मुसलमानों व हिन्दुओं के डी एन ए मंे आश्चर्यजनक समानताएं पाई गई हैं। स्पष्ट है कि ये उन हिन्दुओं के वंशज हैं, जिन्होंने इस्लाम को स्वीकर कर लिया था। दक्षिण भारत के मुसलमानों के लिए किसी डी एन ए परीक्षण की भी आवश्यकता नहीं है।
एम. जे़ अकबर पूछते हैं कि भारतीय मुसलमानों से कहां चूक हुई? फिर इसके उत्तर में कहते हैं जब वे अपनी भारतीयता की जड़ों को भूल गए। कितना सही है। अकबर जैसे शिक्षित मुसलमानों को आगे आना चाहिए और कट्टरवादियों के सामने चुनौती पेश करनी चाहिए। वे भारत को दारुल-हरब समझने की भूल न करें। यह उनके अपने हित में है कि वे वास्तविकता को पहचानें। आज इसकी बहुत आवश्यकता है कि हम भारतीयता की पहचान के संकट से उबरें। हम कौन हैं, बगैर इसे जाने भारत के बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में संवाद स्थापित नहीं हो सकता। जब तक साम्प्रदायिक तनाव तथा आपसी अविश्वास की भावना रहेगी तब तक हम अपने असली दुश्मन पाकिस्तान से मुकाबला करने में असमर्थ रहेंगे।
स्पष्ट है कि इस्लामिक आतंकवाद के प्रतिवाद के लिए हिन्दू पुनर्जागरण की आवश्यकता है। ऐसा पुनर्जागरण जिसमें आधुनिक सोच का समावेश हो, जन्म के आधार पर विभाजन या वर्गीकरण न हो। सम्पूर्ण भारतीय समाज को एकसूत्र में पिरोने के लिए सबको समान नियम-कानून भी मानने होंगे। जैसे समान नागरिक संहिता। (लेखक:पूर्व केद्रीय मंत्री)
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