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आखिर आतंकवादी याकूब मेमन को फांसी दे दी गई। वह 1993 के मुम्बई बम विस्फोट, जिसमें 257 लोग मारे गए थे, के मुख्य साजिशकर्ता टाइगर मेमन का छोटा भाई था। याकूब को बम विस्फोट के लिए धन का प्रबंध करने का दोषी पाया गया था। इस बम विस्फोट की जांच कर रहे जांचकर्ताओं को याकूब ने बताया था कि उसने आतंकवादी प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए पाकिस्तान जा रहे युवकों के लिए टिकट, ठहरने और खाने का इंतजाम भी किया था। वह उस गाड़ी को खरीदने में भी शामिल था, जिसका इस्तेमाल जगह-जगह बम लगाने में किया गया था।
याकूब को फांसी की सजा देते समय अदालत ने स्पष्ट कहा कि याकूब मेमन के दुष्कृत्य टाइगर मेमन के कुकर्मांे से किसी भी मायने में कम नहीं हैं। धमाकों के लिए याकूब और टाइगर दोनों बराबर रूप से जिम्मेदार हैं।
अदालत ने यह भी पाया कि जहां तक अलग-अलग क्षेत्रों की पार्िंकग में विस्फोटक से भरे वाहनों की बात है तो उनमें याकूब मेमन का सीधा हाथ नहीं था। यह एक प्रमाणित सत्य है कि याकूब मेमन समेत पूरे मेमन परिवार के सदस्य अपने कुकर्मों के चलते देश से बाहर गए और बाद में गिरफ्तार किए गए। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि याकूब मेमन की इस षड्यंत्र में प्रमुख भूमिका थी और यही कारण है कि उसे इस कुकर्म के लिए सीधे उत्तरदायित्व ठहराया गया है और याकूब मेमन की प्रभावी भूमिका और जघन्य अपराध के कारण ही उतनी ही बड़ी सजा का प्रावधान बनता है।
एक ऐसा व्यक्ति, जो पाकिस्तान की आई.एस.आई. की शैतानी चाल का हिस्सा बनकर भारत को दहलाने का षड्यंत्र रचते हुए सैकड़ों निरपराधियों की हत्या का दोषी सिद्ध हुआ है, की सजा उसके मजहब से तय होगी अथवा उसके कृत्य से? यह मूर्खतापूर्ण तर्क है कि उस व्यक्ति के कृत्यों का दण्ड देने से मुसलमान समाज में गलत संदेश जाएगा।
ऐसे लोग जो सजा का विरोध कर रहे थे वे भारत में मुस्लिम समाज के शुभचिन्तक नहीं कहे जा सकते हैं। क्या भारत के लोग एक व्यक्ति की सजा का पैमाना उसके मजहब या धर्म से लगाएंगे या अपराध से?
मुसलमान हितों की राजनीतिक शतरंज खेलने वाले हमेशा से मजहब के आधार पर अपने विशेष अधिकरों को भुनाने के चक्कर में रहते हैं। याकूब मेमन एक खतरनाक आतंकवादी था, जिसे एक जघन्य अपराध के लिए दण्डित किया गया है। उसने इतना बड़ा अपराध किया था जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। जब कोई आतंकवादी घटना होती है तो सेकुलरवामी गिरोह कहते हैं कि आतंकवादियों का कोई मजहब नहीं होता है, लेकिन आज वही लोग चिल्ला रहे हैं कि याकूब को मुसलमान होने के कारण फांसी दी गई। क्या ये दोनों चीजें परस्पर अन्तर्व्िारोधी नहीं हैं? सर्वोच्च न्यायालय की दलील थी कि न्यायालय लोगों के बीच जाति और मजहब के आधार पर अन्तर नहीं करता है। यहां साक्ष्यों, प्रमाणों और तर्कों के सहारे व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में निर्णय होता है। राष्ट्रपति द्वारा भी अभियुक्त की दया याचिका अस्वीकार कर दी गई थी। जो पैमाने अन्य अपराधियों के लिए लागू होते हैं वही याकूब पर भी लागू हुए। इसलिए सर्वोच्च अदालत के निर्णय पर प्रश्न उठाना पूरी तरह आधारहीन है और अदालत की अवमानना के अलावा कुछ नहीं। निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि देश के लिए कानून क्या हो? नागरिकों के लिए इसका पैमाना क्या हो, या अलग-अलग? याकूब मेमन को फांसी होने की वजह उसका मुसलमान होनाa जो लोग बता बता रहे हैं उन वामपंथी सेकुलरों ने जाने-अनजाने सभी के लिए समान कानून की जरूरत याद दिला दी है। यकीनन लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरा याकूब उसी का हकदार था जो उसे सजा मिली … लेकिन यह भी सच है कि आपराधिक मामलों में सामान्य और विवाह आदि मामलों में 'मुस्लिम पर्सनल लॉ' की ओट लेने वालों को अब एक मन बनाना होगा। या तो सभी मामलों में मुसलमानों के लिए इस्लाम के अनुरूप सजा हो या फिर समान नागरिक संहिता।
मोनिका अरोड़ा
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