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बात उस सवाल के बारे में है, जो जम्मू-कश्मीर में रह रहे भारत के लाखों नागरिकों के मौलिक अधिकारों से सीधे जुड़ी हुई है। बात भारत के संविधान से नत्थी किए उस संदिग्ध प्रावधान की है, जो अपने ही नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन की मंजूरी देता नजर आ रहा है।
बात है भारत के संविधान के अनुच्छेद 35 ए की। 11जुलाई, 2015 को नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र (जेकेएससी) ने घोषणा की कि उनके अधिवक्ता संविधान में निहित अनुच्छेद 35 ए को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। इस संदिग्ध प्रावधान ने जम्मू-कश्मीर में रह रहे लगभग 20 लाख लोगों को पिछले छह दशकों से उनके मौलिक अधिकारों से वंचित रखा है। ये लोग जम्मू-कश्मीर में रहते हैं, रहते रहे हैं, लेकिन न वे वहां जमीन खरीद सकते हैं, न सरकारी नौकरी कर सकते हैं, न कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, न उन्हें छात्रवृत्ति मिल सकती है और न ही उन्हें पंचायत चुनावों में वोट डालने का अधिकार है। न वे पंचायत, नगर निगम या विधानसभा का चुनाव लड़ सकते हैं।
दरअसल भारत का विभाजन होने पर असंख्य लोग जान बचाकर भारत आ गए थे, और ये 20 लाख वे दुर्भाग्यशाली लोग हैं, जो भारत आकर जम्मू-कश्मीर में पहुंच गए थे। जैसे पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थी, वाल्मीकि, गोरखा इत्यादि। इन्हें भारत की नागरिकता प्राप्त है, लेकिन भारत के संविधान के अनुच्छेद 35 ए ने उन्हें जम्मू-कश्मीर राज्य का नागरिक बनने से रोक रखा है। उन्हें जम्मू-कश्मीर में 'स्थायी नागरिक' प्रमाण पत्र नहीं दिए गए। इस प्रावधान के कारण वाल्मीकि समाज को सिर्फ सफाई कर्मचारी की नौकरी मिल सकती है और कोई नहीं। अनुच्छेद 35 ए के कारण अगर जम्मू-कश्मीर की कोई लड़की किसी ऐसे लड़के से शादी कर लेती है जिसे 'स्थायी नागरिक' नहीं माना जाता तो उसके परिवार और आने वाली पीढि़यों को भी 'स्थायी नागरिक' के अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। चाहे उस लड़के का परिवार कई पीढि़यों से जम्मू-कश्मीर का निवासी क्यों न रहा हो।
बात आगे बढ़ाएं, इसके पहले देखते हैं कि क्या है अनुच्छेद 35 ए। अनुच्छेद 35 ए सिर्फ इस कारण चुनौती देने योग्य नहीं है कि वह भारत के नागरिकों के मूल मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है, उनके बीच भेदभाव, बल्कि छुआछूत बरतता है। इन सारी बातों के अलावा, अनुच्छेद 35 ए को जिस ढंग से संविधान में शामिल किया गया है, वही संदिग्ध, शर्मनाक और संविधान की मूल भावना, उसके बुनियादी ढांचे के विपरीत है। देखिए, संविधान में कोई भी फेरबदल करने और खासतौर पर किसी नए प्रावधान को शामिल करने की शक्ति सिर्फ और सिर्फ संसद के पास है। आखिर संसद देश की जनता की प्रतिनिधि होती है, जिसमें जम्मू-कश्मीर की जनता भी शामिल है। संविधान में फेरबदल करने के किसी भी प्रावधान पर संसद में खुली बहस होती है, उसके गुण-दोषों पर चर्चा होती है, आवश्यकतानुसार मतदान होता है। रहस्यपूर्ण बात यह है कि अनुच्छेद 35 ए को संसद में कभी पेश ही नहीं किया गया। इस पर कभी बहस नहीं हुई। इसे तो चोरी-छिपे अंदाज में, राष्ट्रपति के आदेश पर, 1954 में संविधान में शामिल कर दिया गया।
कुछ लोगों का तर्क हो सकता है कि अनुच्छेद 370 राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह जम्मू-कश्मीर पर लागू किए जाने के मामलों में संविधान में फेरबदल कर सकते हैं। अगर इसे सही माना जाए, तो राष्ट्रपति को इस प्रकार का अपरिमित अधिकार दिया जाना अपने आप में असंवैधानिक है। अगर फेरबदल करने का अधिकार माना जाए, तो भी उसमें नए प्रावधान जोड़ने का अधिकार नहीं होता है। अनुच्छेद 35 ए किसी पुराने अनुच्छेद में किया गया फेरबदल नहीं था, वह अपने आप में एक नया प्रावधान है।
इस संवैधानिक प्रावधान का इरादा क्या था? इसका शीर्षक अपने आप में पूरी चुगली करता है। प्रावधान के शीर्षक की शुरुआत होती है 'सेविंग्स ऑफ लॉज' से। वास्तव में इस तरह के प्रावधानों को उन हरकतों के बचाव के लिए जोड़ा जाता है, जो अन्यथा असंवैधानिक होते हैं। प्रावधान कहता है कि इसका उद्देश्य स्थायी नागरिकों के 'विशेष अधिकारों और विशेषाधिकारों' की रक्षा करना और बाकी लोगों को इन अधिकारों तक पहुंचने से रोकना है। खास बात यह है कि प्रावधान के अंत में साफ शब्दों में कहा गया है- ऐसे किसी भी कानून को, जो विशेष अधिकार और विशेषाधिकार देता है, कभी भी इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकेगा कि वे मूलभूत अधिकारों के विपरीत हैं।'
माने इस अनुच्छेद को लिखने वाले अच्छी तरह जानते थे कि वे जो भी कुछ कर रहे हैं, वह सिरे से असंवैधानिक है। इतना ही नहीं, उन्होंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधिकार को भी परोक्ष रूप से समाप्त करने की कोशिश की थी। जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र ने अभी अपनी याचिका दायर नहीं की है, सर्वोच्च न्यायालय ने अभी इस पर कोई निर्णय नहीं दिया है कि यह प्रावधान संवैधानिक है या नहीं लेकिन, जम्मू-कश्मीर सरकार को इस प्रावधान के रचयिता यह प्रमाण पत्र दे गए हैं कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय चाहे जो फैसला करता रहे, आपकी सारी गतिविधियां संविधान सम्मत ही रहेंगी।
कितनी संविधान सम्मत रहेंगी? इसका एक अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जैसे ही जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र द्वारा अनुच्छेद 35ए को चुनौती देने के इरादे की खबर सामने आई, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट करके कहा कि उनकी पार्टी-नेशनल कांफ्रेंस-अनुच्छेद 35ए को हटाने की कोशिश के खिलाफ पूरे जोश से लड़ेगी। जब उमर अब्दुल्ला के ट्वीट के जवाब में कुछ लोगों ने पूछा कि क्या उन्हें यह मंजूर है कि लाखों लोग मूलभूत अधिकारों से वंचित रहें, तो उमर अब्दुल्ला चुप्पी साध गए।
विश्व के किसी लोकतंत्र में, संविधान के किसी प्रावधान के अपने आप में संविधान सम्मत होने का प्रमाण पत्र मौजूद होने का कहीं कोई उदाहरण नहीं है। भारत का संविधान किसी भी परिस्थिति में किसी गैर संवैधानिक प्रावधान की समीक्षा करने का सर्वोच्च न्यायालय को पूरा अधिकार देता है। यहां तक कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारत के संविधान के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की थी तो सर्वोच्च न्यायालय ने बाद में उन्हें खारिज कर दिया था।
संविधान के अनुच्छेद 14 में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्राप्त है, जबकि अनुच्छेद 35ए इस समानता को समाप्त कर विशेष अधिकार प्राप्त नागरिकों का एक वर्ग खड़ा कर देता है। पश्चिमी पाकिस्तान से पलायन करके भारत आने वाले नागरिक देश के विभिन्न राज्यों में बसे हैं। हर राज्य में उन्हें नागरिकों को प्राप्त सारे अधिकार मिले हुए हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर इसका अपवाद बना हुआ है।
इसी प्रकार अनुच्छेद 35ए जिस तरह राज्य में बसने और अचल संपत्ति खरीदने पर रोक लगाता है, वह भी भारतीय संविधान पर सीधा आक्षेप है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) में सभी नागरिकों को देशभर में कहीं भी बसने की पूरी आजादी है। अनुच्छेद 35ए प्रदेश में उन पर जिस तरह के प्रतिबंध लगता है, उसका कहीं कोई औचित्य नहीं है।
अनुच्छेद 35ए सिर्फ नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं करता। वह पुरुषों और महिलाओं के बीच भी भेदभाव करता है। सारे विशेषाधिकारों का आधार बनने वाला स्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र विरासत में उपलब्ध होता है। लेकिन इस विरासत का अधिकार सिर्फ पुरुषों को है, महिलाओं को नहीं। राज्य सरकार इस आशय का एक काय् रकारी आदेश जारी कर चुकी है जिसके तहत जब भी कोई स्थायी नागरिकता प्राप्त महिला राज्य के बाहर के किसी व्यक्ति या राज्य के अंदर किसी स्थायी नागरिकता विहीन व्यक्ति से विवाह करती है, तो वह अपनी स्थायी नागरिकता से हाथ धो बैठती है। इसी के साथ राज्य में मौजूद संपत्ति से उसके अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं। वह और उसकी संतानें राज्य में उच्च शिक्षा लेकर सरकारी नौकरियों तक तमाम अधिकारों से वंचित हो जाती हैं।
सुशीला साहनी बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य मामले में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि महिलाओं को संपत्ति के अधिकारों से वंचित करना असंवैधानिक है। इसके बावजूद यह व्यवस्था आज भी बरकरार है। राज्य सरकार ने इस फैसले से पार पाने के लिए विधानसभा से एक प्रस्ताव पारित करवाकर इसे खारिज कर दिया है। यह प्रस्ताव अब विधान परिषद में विचाराधीन है।
अनुच्छेद 35ए के तहत सरकारी नौकरियों में भेदभाव करना भी भारत के संविधान से मेल नहीं खाता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि किसी भी सरकारी नौकरी के लिए किसी को भी समान अवसर देने से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन राज्य सरकार ने बेहद चतुराई का परिचय देते हुए सेवा नियमों को इस तरह बनाया है जिसमें स्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र से संबंधित मामलों पर सिर्फ राज्य सेवा के अधिकारी ही कोई निर्णय ले सकते हैं। कोई आईएएस अधिकारी, अपने विभाग में वरिष्ठ होने के बावजूद इस तरह के विषय पर निर्णय नहीं ले सकता है। इस तरह से भेदभाव की नीति न केवल सरकार द्वारा चलाई जाती है बल्कि खुद सरकार के भीतर भी बनी हुई है।
राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्तियों के मामले में तो अनुच्छेद 35ए की भूमिका बहुत ही शर्मनाक है। अनुच्छेद 35ए के तहत राज्य सरकार को यह अधिकार प्राप्त है कि वह सिर्फ राज्य के 'स्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र' प्राप्त नागरिकों को ही छात्रवृत्ति और अन्य सहायता दे सकती है। राज्य सरकार इसी संदिग्ध प्रावधान का प्रयोग उन छात्रवृत्तियों के मामले में भी कर रही है, जिनके लिए केंद्र सरकार से धन उपलब्ध कराया जाता है। जम्मू-कश्मीर राज्य में छह दशकों से रहते आ रहे लोग, जिनके पास स्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र नहीं हैं, इन छात्रवृत्तियों से वंचित हैं।
सवाल सिर्फ सरकारी नौकरियों और सरकारी वजीफों का नहीं है। नितांत गरीबी का सामना करने वाले लोगों के लिए बनी इंदिरा आवास योजना और मनरेगा जैसी योजनाओं का लाभ भी उन लोगों को उपलब्ध नहीं है, जिनके पास स्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र नहीं है। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि इन लोगों में से बड़ी संख्या अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों की है। उन्हें भी सिर्फ इस कारण इन योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिल सकता है क्योंकि एक ओर तो उनके पास स्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र नहीं है, और दूसरे अनुच्छेद 35ए इस भेदभाव को एक संरक्षक आवरण दिए हुए हैं।
अनुच्छेद 35ए की शरारत यहीं समाप्त नहीं होती। स्थायी नागरिकता को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है कि 1947 के बाद राज्य में आने वाले लोगों को स्थायी नागरिकता नहीं मिल सकती। इस परिभाषा को बदले जाने की गुंजाइश जरूर छोड़ी गई है, लेकिन ऐसा करने के सारे अधिकार संविधान के अनुच्छेद 35ए के तहत राज्य विधानसभा को दे दिए गए हैं। इसका एक अत्यंत वीभत्स उदाहरण राज्य में रह रहे हजारों सफाईकर्मियों का है। 1957 में राज्य सरकार के तहत काम करने वाले सफाईकर्मियों ने हड़ताल कर दी थी। जम्मू-कश्मीर सरकार ने उनकी पूर्ति पंजाब से सफाईकर्मियों को बुलाकर करने की कोशिश की। उन्हें आश्वासन दिया गया था कि उन्हें भी स्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र दिया जाएगा। यह प्रमाण पत्र तो उन्हें मिला, लेकिन उन पर सफाईकर्मी ही बने रहने की शर्त लगा दी गई। इसका अर्थ यह है कि जब तक वे और उनकी संतानें सफाईकर्मी बने रहती हैं, तब तक वे जम्मू-कश्मीर राज्य के स्थायी नागरिक माने जाएंगे और जैसे ही वे किसी अन्य रोजगार में लगते हैं, वे अपनी स्थायी नागरिकता खो देंगे, भले ही उन बच्चों ने कितनी भी ऊंची शिक्षा क्यों न प्राप्त की हो। दासता की ऐसी और संविधान लिखित परंपरा विश्व में शायद ही कहीं हो। यह बंधुआ मजदूरी अनुच्छेद 35ए का एक 'साइड इफेक्ट' है।
अनुच्छेद 35ए वास्तव में रहस्य है। संविधान में अनुच्छेद 35ए, जिसमें 'ए' का अक्षर बड़ा हो, कहीं नहीं है। इसके अस्तित्व के बारे में कई संविधान विशेषज्ञ भी अनभिज्ञ हैं। तमाम व्यावहारिक कारणों से, यह संविधान का भाग नहीं है, लेकिन संविधान की पूरी शक्ति के साथ लागू जरूर है।
वे हजारों हिंदू, जिनमें से अधिकांश वंचित वर्ग के थे, 1947 में अपने जीवन, अपने सम्मान और अपनी संस्कृति की खातिर भागकर जम्मू आए थे। लेकिन तब से आज तक वे पुन: अपने जीवन और अपने सम्मान के लिए संघर्ष ही करते आ रहे हैं। वे स्वयं को एक ऐसे राज्य में फंसा हुआ महसूस कर रहे हैं, जहां उन्हें मूलभूत नागरिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया है। इन लोगों का स्पष्ट मानना है कि जो अधिकार सभी भारतीयों को प्राप्त हैं, उनसे उन्हें वंचित रखने के लिए राज्य में आज तक रहा राजनीतिक नेतृत्व, संविधान का अनुच्छेद 370 और श्रीनगर की राजनीतिक श्रेष्ठि वर्ग में मौजूद लोगों की लोकतंत्र विरोधी सोच जिम्मेदार है।
इस अनुच्छेद के संदर्भ में जम्मू कश्मीर अध्ययन केन्द्र ने गत 11 जुलाई, 2015 को नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में एक सेमिनार आयोजित किया। इस अनुच्छेद पर जब गहनता से विचार किया गया तो मालूम हुआ कि जम्मू-कश्मीर में छह दशकों से वहां के लोगों के साथ अपने ही देश में सौतेला व्यवहार होता आ रहा है, लेकिन की पूर्ववर्ती राज्य सरकारों ने या केन्द्र में रही कांग्रेस सरकारों ने कभी इस पर गंभीरता से मंथन नहीं किया।
आज प्रदेश के युवा 'परमानेंट रेजीडेंट सर्टिफिकेट' (पीआरसी) न होने से रोजगार और उच्च शिक्षा के लिए भटक रहे हैं। गोरखा, वाल्मीकि और दूसरे समाज के लाखों लोगों के साथ सौतेला व्यवहार होता आ रहा है। वाल्मीकि समाज से संबंध रखने वाला बच्चा यदि सफाई कर्मचारी के पद पर ही नौकरी पाता है तो वह पूरे जीवन नौकरी करते हुए उसी पद से सेवानिवृत्त हो जाता है। सेमिनार में अध्ययन केन्द्र के सचिव आशुतोष भटनागर ने कहा कि जम्मू-कश्मीर के लोग 'अनुच्छेद-35 ए' की विसंगति का शिकार हैं और न्याय के लिए जूझ रहे हैं। यहां तीन पीढि़यां इस पक्षपात का सामना कर चुकी हैं और चौथी पीढ़ी उसका शिकार बनने के लिए चौखट पर खड़ी हुई है। इन लोगों को मत देने का अधिकार नहीं है। आज इस अनुच्छेद को लेकर संशोधन करने की आवश्यकता है। इस विषय पर अपने विचार रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता व पूर्व केन्द्रीय मंत्री जगदीप धनकड़ ने कहा कि 'अनुच्छेद 35 ए' को वर्ष 1954 में राष्ट्रपति द्वारा जम्मू-कश्मीर में लागू कर दिया गया। इसके बाद से ऐसे लोग, जिन्हें वहां रियासत के समय राजा ने राज्य में बसाया था, आज मुहाने पर खड़े हैं। संविधान का अवलोकन करते हैं तो पता नहीं चलता है कि वास्तव में यह अनुच्छेद है कहां?
तत्कालीन राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से उस समय बिना संसद की मंजूरी के पिछले दरवाजे से इसे लागू कर दिया गया। उन्होंने केशवनांद भारती वाद का जिक्र करते हुए कहा कि तब सर्वोच्च न्यायालय के 13 न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट किया था कि पूरी संसद मिलकर भी संविधान के मूल ढांचे को नहीं छू सकती है। लेकिन अपने ही देश में लोगों को स्वतंत्रता पूर्ण रूप से नहीं मिली है तो फिर 10 दिसम्बर को अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस मनाए जाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। आज जम्मू-कश्मीर की जनता 'पीआरसी' और 'नॉन पीआरसी' दो श्रेणी में बंट चुकी है। इस अस्थाई व्यवस्था को हटाना होगा। -अनिरुद्ध राजपूत, साथ में आभा खन्ना
(श्री अनिरुद्ध राजपूत सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता और जम्मू कश्मीर अध्ययन केन्द्र के निदेशक हैं। सुश्री आभा खन्ना जम्मू कश्मीर अध्ययन केन्द्र की निदेशक हैं।)
यह है अनुच्छेद 35ए
– अनुच्छेद 35ए पिछले दरवाजे (राष्ट्रपति आदेश) से किया गया संविधान संशोधन है, जिसमें संसद को शामिल नहीं किया गया था।
-यह अनुच्छेद 370 के दुरुपयोग का एक उदाहरण है।
-यह अनुच्छेद हमारे संविधान के मौलिक ढांचे का उल्लंघन है। यह संविधान के प्राक्कथन में प्रदत्त कुछ मौलिक अधिकारों को रोकता है।
-अनुच्छेद 35ए के क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप लाखों भारतीय नागरिकों को न्यायिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों तथा बराबरी के दर्जे से वंचित होना पड़ा है। इसने व्यक्ति के सम्मान को सुनिश्चित करते हुए बंधुत्व के प्रसार को बाधित किया है और राष्ट्र की एकजुटता और एकात्मता को चोट पहुंचाई है।
अनुच्छेद 35ए से उपजे सवाल
-अनुच्छेद 35ए का संवैधानिक दर्जा आखिर है क्या?
-आखिर भारत के राष्ट्रपति संसद की भूमिका अपनाकर बिना संसद की सहमति के क्या संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव कर सकते हैं?
-क्या लोकतांत्रिक भारत अपनी आबादी के किसी वर्ग को देश के किसी भी हिस्से में दूसरे दर्जे के नागरिक के तौर पर देखे जाने की अनुमति दे सकता है?
-क्या हमको, भारत के जिम्मेदार नागरिकों के तौर पर संवैधानिक प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से नजरअंदाज करने के इस मामले को चुनौती नहीं देनी चाहिए?
– उन लाखों लोगों को तुरंत राहत पहुंचाने के लिए क्या किया जा सकता है जो दशकों से इस संवैधानिक धोखधड़ी की वजह से पीड़ा झेल रहे हैं?
अंतहीन करुण गाथा
स्थायी निवास प्रमाण-पत्र का प्रसंग आते ही रश्मि शर्मा सिसकती हुई कहती हैं कि जम्मू कश्मीर कीस्थाई नागरिकता होने के बावजूद न तो मैं अपने बच्चों को सही ढंग से पढ़ा सकती हूं और न ही उनके लिए रोजगार की आशा कर सकती हूं। मेरी एकमात्र सबसे बड़ी गलती यह है कि मैंने एक ऐसे व्यक्ति से विवाह किया जिसके पास यहां स्थाई आवास की सुविधा नहीं थी। जम्मू-कश्मीर का निवासी होने के बावजूद मेरे पति के पास स्थायी निवास प्रमाण पत्र नहीं है क्योंकि यहां की स्थाई निवासी उनकी मां ने एक ऐसे व्यक्ति से विवाह किया था जो कि यहां के स्थाई निवासी न होकर हिमाचल मूल के थे। दो पीढि़यों की महिलाओं की यह गाथा दु:खदायी है। हमारे बच्चे किसी अपराध की सजा नहीं भुगत रहे हैं बल्कि यहां की दुविधामय व्यवस्था से पीडि़त हैं।
हैरान है गोरखा समाज
गोरखा समाज से जुड़े सेवानिवृत्त कैप्टन रघुनंदन सिंह कहते हैं कि हमारे पूर्वज महाराजा रणजीत सिंह की पलटन में थे। स्वतंत्रता से पूर्व ही जम्मू-कश्मीर के राजा ने गोरखा समाज को युद्ध करने के लिए यहां पर बसाया था। आज जम्मू-कश्मीर में करीब 50 हजार आबादी गोरखा समाज की है, लेकिन सभी के समक्ष पीआरसी की दिक्कत है, सरकार ने अब मूल निवास प्रमाणपत्र भी वर्ष 2005 के बाद से बनाना बंद कर दिया है।
विभाजन सा पीड़ादायी
पश्चिमी पाकिस्तान से आए एक शरणार्थी मंगत राम बताते हैं कि 1947 के विभाजन के समय पश्चिमी पाकिस्तान से आए हमारे जैसे कई लोग छह दशक बाद भी शरणार्थियों के रूप में ही शिविरों में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। 3 पीढि़यों बाद भी नागरिक अधिकार और सुविधाएं नसीब नहीं हुई हैं, जबकि दिल्ली, मुम्बई और सूरत जैसे शहरों में बसाये गए शरणार्थी अच्छी स्थिति में हैं, उन्हें आवास, शिक्षा और रोजगार उपलब्ध हैं।
पहचान मात्र सफाईकर्मी
वाल्मीकि समाज से जुड़े जम्मू-कश्मीर निवासी यशपाल भारती कहते हैं कि भारतीय संविधान में अस्पृश्यता और भेदभाव के प्रतीक जाति आधारित विभाजन को हतोत्साहित किया गया है जबकि जम्मू-कश्मीर में हम वाल्मीकि समाज के लोग चाहे कितना भी क्यों न पढ़-लिख गए हों, हमें नगर-निगम में सरकारी नौकरियां सफाईकर्मी से ज्यादा बड़ी नहीं मिलतीं और स्थाई निवासी प्रमाण-पत्र के अभाव में पदोन्नति की कल्पना भी नहीं कर सकते।
1957 में लगभग 200 वाल्मीकि परिवार सफाईकर्मी के रूप में रोजगार हेतु पंजाब से जम्मू-कश्मीर लाए गए थे। आज हमारे बच्चे शिक्षित और स्नातक होने के बावजूद सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर सकते। इससे बड़ी विडम्पना और क्या हो सकती है।
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