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भारतीय संस्कृति में गुरु को श्रेष्ठ पदवी प्रदान की गई है। गोविन्द का साक्षात्कार करवाने वाले गुरु से बड़ा कोई नहीं है। व्यक्ति के अविवेक को दूर कर उसको सही दिशा गुरु ही दिखाता है। गुरु मन में विकार उत्पन्न नहीं होने देता, गुरु हृदय और मष्तिष्क के तम को दूर कर सात्विक मार्ग की ओर प्रवृत्त करता है। गुरु आत्मविश्वास को बढ़ाता है। गुरु वटवृक्ष सा छाया देने वाला आकाशधर्मा दृष्टि का प्रतिरूप होता है। गुरु दर्पण है जिसमेंे शिष्य स्वयं को देखता है और तदनुरूप परिष्कृत और परिमार्जित करता है। गुरु – शिष्य परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, एक-दूसरे के अभाव में इस अवधारणा की कल्पना नहीं की जा सकती है। भारतीय परम्परा में गुरु-शिष्य की एक लम्बी श्रृंखला है जो प्रत्येक युग और कालखण्ड में विद्यमान रही है, चाहे वह विश्वामित्र-राम हों, संदीपनी-कृष्ण, कालांंतर में समर्थ रामदास-छत्रपति शिवाजी अथवा रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद। गुरु गुरुता और श्रेष्ठता का प्रतीक है जिसके वंदन से और स्मरण से सफलता, यश और उत्तरोत्तर विकास स्वाभाविक रूप से संभव हो जाते हैं। गुरुपूर्णिमा के इस पावन उत्सव पर प्रस्तुत है गुरु को समर्पित पाञ्चजन्य का यह विशेष आयोजन।
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