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क्या सचमुच सम्पूर्ण विश्व में मुस्लिम जनसंख्या बाकी सबको पीछे छोड़ने में सफल हो जाएगी? यदि इस्लाम के अनुयाई संख्या की दृष्टि से अपना कीर्तिमान स्थापित करने में सफल हो गए तो क्या दुनिया खतरे में पड़ जाएगी? मध्यपूर्व से निकले मत-पंथों में ईसाइयत आज अव्वल नम्बर पर है। मजहब के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने ही सर्वप्रथम मिशनरियों को जन्म दिया और बिना छिपाए सम्पूर्ण विश्व को इस बात से अवगत करवा दिया कि सम्पूर्ण जगत को ईसाई बनाना उनका दायित्व भी है और कर्त्तव्य भी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने विश्वविजेता बनने के लिए ढेर सारे प्रयास भी किए। इतना ही नहीं साम, दाम, दंड और भेद की नीति को भी अपनाया। दो विश्वयुद्ध भी जीत लिये। समस्त दुनिया को अपने फौजी बूटों के तले कुचलने में भी कसर नहीं छोड़ी। जनसंख्या की दृष्टि से वे नम्बर एक पर भी पहुंच गए लेकिन फिर भी सारी दुनिया को ईसाई नहीं बना सके। उसी शैली में आज मुसलमान बंधु इस बात की डींग मार रहे हैं कि 2050 तक इस्लाम दुनिया का अव्वल नंबर का मजहब बन जाएगा यानी मुस्लिम जनसंख्या विश्व में सबसे अधिक हो जाएगी। कोई उनसे पूछे कि मध्य पूर्व के देशों में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान में भी आज मुस्लिम अनुयाइयों का वर्चस्व है तो क्या वहां सब कुछ उनके अंकुश में है? मुस्लिम देशों में ही सबसे अधिक राजनीतिक बगावतें होती हैं और कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता है कि जब वहां कोई न कोई विद्रोह जन्म नहीं लेता हो? मजहबी आधार पर वहां समय-समय पर अनेक मत जन्म लेते रहे हैं। मुस्लिम राष्ट्रों का एकाधिकार खनिज तेल पर है लेकिन क्या वे उसके भाव तय कर सकते हैं? क्या उनमें राजनीतिक एकता है? दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाले देश बन जाने पर भी वे कौन सा कीर्तिमान स्थापित कर देने वाले हैं? सबसे अधिक जनसंख्या वाला मजहब हो जाने पर कौन सा तीर मार लेने वाले हैं? उनका सपना वैसा ही होगा जैसा कि चार अंधों ने हाथी देखा। इसलिए मुसलमान नेता जो बार-बार धमकी देेते हैं वे अपने मतभेद, अशिक्षा और पिछड़ेपन के लिए भी भीतर झांककर देख लें। जनसंख्या का भूत किसी नादान को डरा देने के लिए तो पर्याप्त है लेकिन यथार्थ के धरातल पर टिकाऊ नहीं।
मुस्लिम जनसंख्या को लेकर जो मुंगेरीलाल के सपने देखे जा रहे हैं उसका चिंतन भी कर लेना चाहिए। पीयू शोध संस्था का कहना है कि 2050 तक मुसलमानों की आबादी सम्पूर्ण आबादी की 30 प्रतिशत हो जाएगी। यद्यपि नम्बर एक पर तो ईसाई ही होंगे और दुनिया में तीसरे नम्बर पर हिन्दू जनसंख्या होगी। भारत में तो हिन्दू बहुसंख्यक ही होंगे लेकिन इंडोनेशिया में मुसलमान बहुसंख्या में हो जाएंगे। भारत में बहुमत तो हिन्दुओं का ही रहेगा लेकिन आज की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या में बढ़ोतरी हो जाएगी। विश्व में जहां तक ईसाई जनसंख्या का प्रश्न है वह नम्बर एक पर ही रहने वाली है। दुनिया में किसी मत-संप्रदाय के तीसरे नम्बर का सवाल है तो तीसरा नम्बर नास्तिकों का है जो धर्म में विश्वास नहीं रखते। यानी 'निधर्मी' तीसरे नम्बर पर हैं। आगामी चार दशकों में जिनकी संख्या विश्व में 19.3 अरब तक पहुंच जाएगी। मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर 73 प्रतिशत, ईसाई 35 और हिन्दुओं की वृद्धि दर 34 प्रतिशत होगी। मुसलमानों में एक महिला 3.1, ईसाई महिला 2.7 और हिन्दू महिला औसतन 2.4 बालकों को जन्म देती है। 2010 में सम्पूर्ण दुनिया में 27 प्रतिशत आबादी 15 वर्ष से कम आयु की थी वहीं 34 प्रतिशत मुस्लिम आबादी 15 वर्ष से कम आयु वर्ग की थी। हिन्दुओं में यह जनसंख्या 30 प्रतिशत थी। 2050 तक चार करोड़ लोग ईसाई मत अपना लेंगे, लेकिन 10 करोड़ 60 लाख लोग ईसाई मत त्याग देंगे। इस्लाम स्वीकार करने वाले 1 करोड़ 12 लाख लोग होंगे लेकिन 92 लाख छोड़ने वाले भी होंगे। नास्तिकों की संख्या 97 लाख 80 हजार हो जाएगी। हिन्दू धर्म अंगीकार कर लेंगे। नए यहूदी बनने वालों की संख्या 3 लाख 20 हजार होगी। 3 करोड़ 37 लाख लोग बौद्ध मत अपना लेंगे लेकिन उनकी दुगुनी संख्या इसे छोड़ भी सकती है। इस प्रकार हर मत-संप्रदाय में आना-जाना चलता रहेगा। उक्त शोध संस्था का यह भी कहना है कि किसी मत के मानने वालों की जब संख्या बढ़ती है तो उसके साथ-साथ अन्य मतावलंवियों के साथ उसका टकराव भी बढ़ना स्वाभाविक है।
सर्वेक्षण संस्था ने यह भी प्रश्न उठाया है कि क्या मुस्लिम ईसाइयों की बराबरी कर सकेंगे? जो अधिक संख्या में होता है, क्या वही महत्व की भूमिका अदा कर सकता है? यदि अधिक जनसंख्या ही ताकत का प्रतीक है तो फिर यहूदी तो आज की दुनिया में केवल 2 प्रतिशत ही हैं फिर क्या कारण है कि वे सब पर भारी हैं। इतनी छोटी अल्पसंख्यक जाति विश्व की अर्थव्यवस्था और विज्ञान के क्षेत्र में सब पर भारी कैसे पड़ सकती है? इसलिए संख्या ही ताकत की एकमात्र कसौटी नहीं है। भीड़ और भेड़ की तुलना सिंह से नहीं हो सकती है। दुनिया में अब तक एक भी ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिला है कि जिन देशों में मुस्लिम जनसंख्या धड़ल्ले से बढ़ी हो उन्होंने कोई चमत्कार करके दिखाया हो। हर देश की सरकार ने केवल और केवल इसके नाम पर जब चाहे तब भीड़ को अपनी सत्ता कायम करने के लिए अथवा अन्य मत-पंथ के देशों पर बल्कि मुस्लिम राष्ट्रों पर भी आक्रमण करने से नहीं चूके हैं। यही कारण है कि कभी पाकिस्तान से बंगलादेश को अलग होना पड़ा है बल्कि शिया- सुन्नी की आग में भी निरन्तर जलते रहना पड़ता है। यह भी निश्चित है कि आने वाले दिनों में मुसलमानों का टकराव ईसाइयों और यहूदियों के साथ-साथ हिन्दुओं से भी बढ़ेगा। जब तक पाकिस्तान की मांग नहीं उठी थी तब तक मुसलमानों के साथ उनका मेल मिलाप रहा। पाकिस्तान के निर्माण में मुसलमानों ने जब हिंसा और प्रतिशोध का मार्ग अपनाया तब यह दूरी बढ़ती चली गई। इसके उपरांत भी मुसलमानों की नागरिकता और राष्ट्रीयता पर प्रश्न नहीं उठाया। अब भी भारतीय मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं बदलता है तो यह एक चिंता उपजाने वाली बात होगी। उन्हें याद रखना चाहिए कि जब से मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाया है उसके बाद विश्व के सभी मतावलम्बियों का उन पर से विश्वास उठ गया है। किसी भी मत-संप्रदाय का व्यक्ति नहीं चाहेगा कि उनका देश टूटे? मध्यपूर्व की हिंसा में जिस तरह से मुसलमान भागीदार बना हुआ है उससे तो यही आभास होता है कि वे स्वयं ही आपस में लड़कर अपने अस्तित्व के लिए खतरा बन रहे हैं। दुनिया में जिस पर आतंकवाद का 'लेबल' लग चुका है, क्या वह इस बात का सूचक नहीं है कि अरबों की संख्या वाला मत स्वयं की ही आत्महत्या पर उतारू है? पीयू शोध संस्था का विश्लेषण भले पर कुछ कहे, जनसंख्या की दृष्टि से हर समुदाय को इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है।
मुजफ्फर हुसैन
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