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बंगलादेश। बंगदेश। नाम समृद्ध बंग परंपरा की खबर देता है। लेकिन, बंगाल की खाड़ी उबल रही है। मुद्दा इसी पहचान का है। एक तरफ है, 'आमार बंगला, सोनार बंगला' तो दूसरी तरफ है-'आमार सोबोई तालिबान, बंगला होबे अफगानिस्तान।' एक तरफ मुजीबुर्रहमान की क्रांति है, तो दूसरी तरफ जनरल नियाजी की हैवानियत। मुक्ति बाहिनी की विरासत के आड़े खड़ा है जमाते इस्लामी, बंगलादेश के युद्ध अपराधों का इतिहास। एक रात सड़क पर मशालों और मोमबत्तियों का सैलाब दिखाई देता है, तो दूसरे दिन उसी सड़क पर तलवार और चाकू चमकते हैं। बंगलादेश इतिहास के दोराहे पर खड़ा है। सवाल है कि ये किसके सपनों का बंग होगा? ये जमीन काजी नजीरुल इस्लाम की मानवता से महकेगी या जिन्ना की सोच एक बार फिर कहर बरपाएगी?
पिछले मई माह में मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी से संबंधित ब्लॉगर बिजॉय दास की सरेराह नृशंस हत्या कर दी गई। इसके पहले फरवरी में उनके सहयोगी ब्लॉगर अविजीत रॉय का भी यही हश्र किया गया था। इनको मारने वाले जिहादी तत्वों ने इन्हें इस्लाम का दुश्मन बतलाते हुए दूसरे ब्लॉग लेखकों को भी अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा। जिहादियों ने सनसनी तो फैला दी, लेकिन बहाव को रोकने में कामयाब नहीं हुए। कारवां अब आगे निकल चुका है। इसकी शुरुआत के संकेत फरवरी 2013 में ही मिल गए थे जब शाहबाग के प्रदर्शनकारियों ने बंगलादेश के इतिहास को एक नया मोड़ दिया था। ढाका का शाहबाग चौक। बंगलादेश मुक्ति संघर्ष का पहला बलिदान स्थल। 21 फरवरी 1952 को यहां पाकिस्तानी फौज ने ढाका विश्वविद्यालय के 4 छात्रों को मौत के घाट उतार दिया था, क्योंकि वह बंगाल (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) पर उर्दू थोपे जाने के सरकारी फरमान का विरोध कर रहे थे। तब से ये जगह बंगला राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गई। संयोग ही है कि वह स्थान यहां से ज्यादा दूर नही है, जहां पाकिस्तान की फौज ने भारतीय सेना के सामने हथियार डाले थे। फरवरी 2013 में जब बंगलादेश में बंगला मुक्ति संघर्ष के युद्ध अपराधियों को लेकर उथल-पुथल मची थी, तब ढाका की सड़कों पर एक जनसैलाब उमड़ा। बंगलादेश का ध्वज लहराते, 1971 के मुक्ति युद्ध के नारे लगाते लाखों युवा। 'जॉय बंगला'़.़.़.़तुमी के? आमी के? -बंगाली, बंगाली'़.़.़.'आमादेर एक ही दाबी, रजाकार एर फाशी (हमारी एक ही मांग-रजाकारों को फांसी दो)। ये बंगला राष्ट्रवाद का उभार था।
उनकी मांगें इस प्रकार थीं-एक, 1971 के युद्ध अपराधियों को फांसी दी जाए। दो, जमाते इस्लामी और उसके छात्र संगठन 'इस्लामी छात्र शिविर' पर प्रतिबंध और उनके द्वारा संचालित कंपनियों एवं संस्थानों की तालाबंदी और तीसरा, बंगला मुक्ति युद्ध के मूल्यों पर बंगलादेश की भावी दिशा तय हो। बंगलादेश के शिक्षित युवा पाकिस्तानी फौज, जमात के गुगोंर् और रजाकारों द्वारा की गई तीस लाख बंगालियों की हत्या और लाखों बलात्कारों को भूलने को तैयार नहीं हैं। द्वितीय विश्वयुद्घ में यहूदियों के नरसंहार के लिए जिम्मेदार हिटलर और नाजी सेना ने लगभग ढाई साल में 60 लाख यहूदियों को मौत के घाट उतारा था, लेकिन तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में तो कुछ ही महीनों में बीस लाख लोग कत्ल कर दिए गए थे। 5 फरवरी 2013 को युद्ध अपराधों की सुनवाई कर रही अदालत में 'मीरपुर का कसाई' के नाम से कुख्यात अब्दुल कादिर मुल्ला पर फैसला आना था। उस पर 344 बंगालियों की हत्या का आरोप था। आरोप सिद्ध हो चुके थे। फरियादी मौत की सजा के ऐलान का इंतजार कर रहे थे। लेकिन फैसले ने उन्हें हतप्रभ कर दिया। सैकड़ों हत्याओं और बलात्कारों के आरोपी को अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई। सकते में आए बंगला राष्ट्रवादियों के क्रोध में उस समय घी पड़ गया जब अब्दुल कादिर मुल्ला ने दो उंगलियों से विजय का संकेत किया, और अदालत में भाषण शुरू कर दिया।
दोपहर 12 बजे की इस घटना के तीन घंटे बाद शाहबाग चौक पर युवा जुटने लगे। इन युवाओं का नेतृत्व कुछ आजाद खयाल ब्लॉगर कर रहे थे। शाहबाग चौक पर वातावरण गर्माता गया। आने वाले दिनों में यहां हजारों युवा उमड़ने लगे। सोशल मीडिया सूचनाओं के आदान-प्रदान का माध्यम बना। धीरे-धीरे शाहबाग चौक ने सारी दुनिया के मीडिया का ध्यान खींच लिया। खास बात ये थी कि इस आंदोलन को चलाने वाला बंगलादेश का सबसे बड़ा समुदाय था- मध्यमवर्गीय युवा। इसी बीच आंदोलन का नेतृत्व कर रहे ब्लागर्स में से एक अहमद रजीब हैदर की 15 फरवरी को हत्या कर दी गई। हत्यारे जमाते इस्लामी से संबंधित थे। हत्या करने का तरीका जमात के मंसूबों को जाहिर कर रहा था। रजीब की हत्या के दिन उसके नाम से एक जाली ब्लॉॅग बनाया गया, जिसमें मोहम्मद और इस्लाम के खिलाफ अपशब्द लिखे गए, फिर इसको कारण बताकर रजीब की हत्या कर दी गई।
रजीब के खून ने आंदोलन को और गर्मी दी। संसद ने अब्दुल कादिर मुल्ला के मामले में पुनर्विचार पर एकराय दी। 21 फरवरी को शाहबाग आंदोलन विसर्जित हुआ और 22 फरवरी को जमाते इस्लामी ने लाठियों, तलवारों और पेट्रोल बमों के साथ मोर्चा खोल दिया। ढाका की बैतल इस्लाम मस्जिद के सामने जालीदार टोपियां पहने, दाढि़यां लहराते हजारों युवा प्रकट हुए। ये मदरसों और दूसरे इस्लामिक संस्थानों से निकली हुई भीड़ थी जो कुछ भी सुनने-समझने के लिए तैयार नहीं थी। पुलिस पर पत्थर फेंके गए, आगजनी हुई। पत्रकारों को बुरी तरह पीटा गया। महिलाओं के उस ओर जाने पर जमात ने प्रतिबंध लगा दिया। जो महिलाएं जाने अनजाने उस ओर से निकलीं उन पर हमले हुए। हमलावरों ने योजना बनाई कि पुलिस को मस्जिद में घुसने को मजबूर किया जाए ताकि मामले को तूल दिया जा सके। लेकिन पुलिस उनकी चाल में नहीं फंसी। देखते ही देखते पूरे ढाका में फसाद शुरू हो गया। फिर बंगलादेश के दूसरे शहर भी इसकी चपेट में आने लगे। गैर मुस्लिमों पर हमले किए जाने लगे। हरे इस्लामी झंडे लहराए गए और जगह-जगह बंगलादेश के झंडे को जलाया जाने लगा। चटगांव और सिलहट में पुलिस चौकियों पर हमले हुए। इसकी प्रतिक्रिया हुई। शाहबाग के प्रदर्शनकारी फिर शाहबाग चौक पर इकट्ठे होने लगे। इस घटनाक्रम ने बंगलादेश के समाज और राजनीति में उथल-पुथल मचा दी।
बंगलादेश की ये सारी उथल-पुथल तारीख में एक सदी पीछे जाकर जुड़ती है। ढाका में ही मुस्लिम लीग की स्थापना हुई थी। पाकिस्तान बनते ही पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली मुस्लिमों के सपने खाक में मिलना शुरू हो गए। जल्दी
ही उन्हें एहसास हो गया कि इस्लाम के नाम पर देश नहीं खड़ा किया जा सकता। पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में हर चीज अलग थी। रूप-रंग, कद-काठी, बोलचाल, रहन-सहन, खान-पान, भौगोलिक परिस्थितियां, आर्थिक कारक सब कुछ, सिवाय इस्लाम के। लेकिन हम मजहब होना धरती के इन दोनों हिस्सों के बीच कोई गर्मजोशी पैदा नहीं कर सका। बंगालियों के लिए पहला झटका आया जब उन्हें बंगला की जगह उर्दू अपनाने को कहा गया। वैसे भी इसकी शुरुआत जिन्ना खुद ही कर गए थे। जल्दी ही दूसरे अंतर भी दिखने लगे। पश्चिमी पाकिस्तान के अरब सम्मोहित हुक्मरानों ने बंगला मुसलमानों को मुसलमान मानने से भी इंकार कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान में पंजाब से भेजे गए गवर्नर मलिक फिरोज नून ने एक पत्रकार वार्ता में बयान दिया कि बंगाली आधे मुसलमान हैं, क्योंकि वे हलाल किए बिना मांस खाते हैं।
इस पर बड़ा बवाल मचा। वरिष्ठ बंगाली नेता मौलाना भशानी ने तल्ख होकर कहा-'क्या खुद को मुसलमान सिद्ध करने के लिए हमें अपनी लुंगी उठानी पड़ेगी?' मजहब का अधकच्चा धागा तोड़ दिया गया था। यही कारण है कि जब 1971 में इस्लाम के इन 'ठेकेदारों' की संगीनंे बाहर निकलीं तो उन्होंने सभी 'बंगला काफिरों'का खून बेहिचक पिया। कटुताएं सिर्फ मान्यताओं तक सीमित नहीं थीं। जमीन पर भेदभाव की गहरी दरारें थीं। पहले पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं और फिर पाकिस्तान के पंजाबी मुुस्लिम एस्टेब्लिशमेंट ने पूर्वी पाकिस्तान के साथ भेदभाव को परम्परा बना दिया। पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली पाकिस्तान की आबादी का 54 फीसदी थे। अधिक पढ़े-लिखे थे, लेकिन उनकी पाकिस्तान में हैसियत क्या थी, इसकी बानगी देखिए 1967 के आंकड़े वाले बॉक्स में।
विकास मद के 80 प्रतिशत खर्चे पश्चिमी पाकिस्तान में किए जा रहे थे, जबकि राजस्व की अधिकांश उगाही पूर्वी पाकिस्तान से हो रही थी। बेईमानी का दायरा बढ़ते-बढ़ते राजनैतिक प्रतिनिधित्व तक आ पहुंचा था। पाकिस्तान को अपनी मुट्ठी में बंद किए हुए नेताओं और तानाशाहों को बंगालियांे की 54 प्रतिशत आबादी से भय लगता था। इसी बीच सैनिक तानाशाही के प्रयोग भी शुरू हो गए थे। पहले तानाशाह अयूब खान के आने के बाद पाकिस्तान की पूरी ताकत पंजाबी मुस्लिमों के हाथों में सिमट गई। अयूब चुनावों को आगे सरकाते रहे, जिससे विशेष तौर पर बंगाल में गुस्सा बढ़ता रहा। क्षीण होती बंगला आशाओं के बीच शेख मुजीब बंगालियों के सर्वमान्य नेता बनकर उभरे।
1970 के आम चुनावों में बंगला राष्ट्रवाद का राजनैतिक प्रकटीकरण हुआ। मुजीब की पार्टी आवामी लीग ने पाकिस्तान की नेशनल असेंबली की 313 सीटों में 167 जीत लीं। दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी। उसे 88 सीटें मिली थीं। स्पष्टत: बंगाली पाकिस्तान के भाग्य विधाता बनने जा रहे थे। पूर्वी पाकिस्तान की उम्मीदें और पश्चिमी पाकिस्तान का भय दोनों आसमान छूने लगे। राष्ट्रपति याहिया खान ने लोकतांत्रिक सरकार की राह प्रशस्त करने के स्थान पर सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को लटकाना शुरू कर दिया। बंगालियों के साथ किए जा रहे ऐसे कपट में भुट्टो जैसे नेता, और फौज भी बराबर के साझीदार थे। इस धोखाधड़ी से खीझे हुए बंगालियों ने बगावत के सुर बुलंद कर दिए, जिसकी अंतिम परिणिति इतिहास के भीषणतम नरसंहार के रूप में हुई।
याहिया खान ने बलूचिस्तान के कसाई के नाम से जाने वाले टिक्का खान को पूर्वी पाकिस्तान का गवर्नर बनाया, ताकि बंगाल के राजनैतिक उभार को कुचला जा सके। मुजीब भी अब आर-पार की लड़ाई का मन बना चुके थे। अयूब खान, भुट्टो और याहिया खान मिलकर बंगालियों के सफाए की योजना बनाने लगे। 25 मार्च 1971, पूर्वी पाकिस्तान के दस दिन के दौरे के बाद राष्ट्रपति याहिया खान ने ढाका हवाई अड्डे से उड़ान भरी। कुछ घंटों बाद जब याहिया खान कराची पहुंच गए पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी फौज ने खून उलीचने की तैयारी शुरूकर दी। रात डेढ़ बजे शेख मुजीब को परिवार सहित बंदी बना लिया गया और उनका घर ध्वस्त कर दिया गया। 26 मार्च की सुबह से पाकिस्तानी फौज की संगीनें बंगाल की छाती में गहरे उतार दी गईं। कराची स्थित समाचार पत्र मॉर्निंग न्यूज के उप-संपादक एन्थोनी मस्करेन्हास अप्रैल 1971 को पूर्वी पाकिस्तान गए। वहां पर उन्होंने पाकिस्तानी फौज, जमाते इस्लामी और रजाकारों द्वारा किया जा रहा हैवानियत का नंगा नाच देखा। वे इतने व्यथित हुए कि अपने परिवार समेत सदा के लिए पाकिस्तान छोड़ दिया। उन्होंने तय किया कि 'या तो मैं सब कुछ लिखूंगा नहीं तो लिखना ही छोड़ दूंगा।' 13 जून 1971 को संडे टाइम्स में एंथोनी का लेख छपा। और दुनिया को पूर्वी पाकिस्तान में जारी भारी नरसंहार का पता चला। बाद में एंथोनी ने 'रेप ऑफ बांग्लादेश' नामक किताब भी लिखी। इस किताब में लेखक ने बताया है कि किस प्रकार पाकिस्तानी फौज की खुफिया शाखा ने नरसंहार का ब्लू प्रिंट तैयार कर रखा था। नरसंहार के लिए लक्षित लोगों को इस प्रकार श्रेणियों में बांटा गया था-(1) ईस्ट बंगाल रेजिमेंट के सैनिक, ईस्ट पाकिस्तान राइफल्स और पुलिस के जवान और अर्ध सैनिक बल, अंसार तथा मुजाहिद के लोग। (2) पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे सभी हिन्दू, महिलाओं बच्चों समेत। (3) आवामी लीग के बड़े नेताओं से लेकर ब्लॉक और गांव स्तर के कार्यकर्ताओं तक। (4) कॉलेज एवं महाविद्यालयों के छात्र एवं छात्राएं, दोनों। (5) बंगाली बुद्धिजीवी जैसे शिक्षक, प्रोफेसर, डॉक्टर, वकील, पत्रकार आदि। 26 मार्च 1971 की सुबह ही पिलखाना की ईस्ट पाकिस्तान राइफल्स की रिहायशी कॉलोनी को चारों ओर से घेरकर तोपों, टैंकों और स्वचालित हथियारों से हमला बोल दिया गया। राजबाग पुलिस हेडक्वाटर पर भी ऐसा ही हमला हुआ। पुलिस वाले 18 घण्टों तक पाकी फौज से लड़ते रहे, लेकिन अंतत: अपने बीवी-बच्चों समेत कत्ल कर दिए गए। हिन्दुओं के गांव के गांव बारूद की भेंट चढ़ा दिए गए। महिला छात्रावासों को चकलाघर बना दिया गया, जहां पाकिस्तानी फौजी महीनों तक छात्राओं से बलात्कार करते रहे। ढाका के बाजारों मेें राह चलते लोगों पर अकस्मात गोलियां बरसाई गईं। कम उम्र के लड़कों को पकड़कर आर्मी अस्पताल ले जाया जाता और उनके खून की आखिरी बूंद तक निकाल ली जाती, ताकि इस खून को पाकिस्तानी फौजियों के लिए इस्तेमाल किया जा सके। पिता के सामने बेटी और पति के सामने पत्नी पर अत्याचार हुए। इस सिलसिले को शहर-शहर, गांव-गांव दोहराया गया। पाकिस्तानी फौज की इस नृशंसता में बंगलादेश की जमाते इस्लामी, उसकी छात्र शाखा और रजाकारों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। नारा था शुद्ध अरब छाप गैर भारतीय इस्लामी राज्य की स्थापना का। इसीलिए अत्याचारों में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। जमात के इन कट्टरपंथियों की पाशविकता ने बंगालियों के दिलों को छलनी कर दिया। तबसे आज तक इन युद्ध अपराधियों को सजा दिलवाना अधिकांश बंगलादेशियों के लिए बेहद भावनात्मक और स्वाभिमान से जुड़ा मुद्दा है। इसलिए जब 2009 में इन युद्ध अपराधियों का न्याय करने के लिए इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल, बंगलादेश का गठन हुआ, तब बंगलादेश के समाज और राजनीति में परस्पर विरोधी दो धड़े उभरकर दिखने लगे। एक तरफ वे लोग थे जो अत्याचारियों को फांसी की मांग कर रहे थे, और दूसरी तरफ वे थे जो इन कसाइयों को इस्लाम का रखवाला बताकर उन पर मुकदमे चलाने का विरोध कर रहे थे। यहीं से शाहबाग चौक के विरोध प्रदर्शन और जमाते इस्लामी के हिंसक हमलों की पृष्ठभूमि तैयार हुई। 12 दिसंबर 2013 को अब्दुल कादिर मुल्ला को फांसी दे दी गई। देलवार हुसैन सैयदी, जो जमात का उपाध्यक्ष है, को आजीवन कारावास की सजा हुई तो पूरे बंगलादेश में दंगे फैल गए। 80 लोग मारे गए और 2000 के करीब घायल हुए।
अप्रैल 2014 में एक और युद्ध अपराधी गुलाम आजम को फांसी हुई तो जहां एक ओर जमात उन जैसी जमातों ने उसका मातम बनाया, वहीं दूसरी ओर लोगों ने आवाज बुलंद की, कि पाकिस्तान के पिट्ठू गुलाम आजम को बंगलादेश में नहीं दफनाया जा सकता, उसको दफनाने के लिए पाकिस्तान भेज दिया जाए। विपरीत भावनाओं का ये उबाल ही बंगलादेश के भविष्य का दोराहा है। राजनीति भी दिलचस्प मोड़ पर है। सत्तारूढ़ दल शाहबाग के साथ दिखता है तो विरोधी बीएनपी जमात की जमात में शामिल है। इस राजनीतिक विभाजन की जड़ें बंगलादेश मुक्ति के बाद के घटनाक्रम में समायी हुई हैं। शेख मुजीब अपार जनसमर्थन के साथ आजाद बंगलादेश के प्रथम प्रधानमंत्री बने। शेख अनुभवी थे। लोगों की आशाओं का केंद्र थे। लेकिन वे ये समझने में चूक गए कि बंगलादेश के नव संगठित सैन्य बल पाकिस्तान की हत्यारी सेना के साथ हमनिवाला रहे लोगों से ही बना है। जिहाद की घुट्टी पीकर पले-बढ़े कई सैनिक अधिकारी अब बंगलादेश की सेना के शीर्ष पदों पर थे। उनके पाकिस्तान के खुफिया सूत्रों और पाकिस्तानी फौज के साथ संपर्क भी थे। एक दिन प्रधानमंत्री मुजीब को सूचना मिली कि बंगलादेश के सुरक्षा तंत्र के अंदर एक पाकिस्तान मार्का तख्तापलट आकार ले रहा है। मुजीब ने इस तरफ बहुत ध्यान नहीं दिया और इसकी कीमत उन्होंने अपने परिवार सहित जान देकर चुकाई। कीमत बंगलादेश को भी चुकानी पड़ी। नवनिर्मित लोकतंत्र और प्रगतिशील सपनों का अकस्मात गला घोंट दिया गया था।
शेख मुजीबुर्रहमान और उनके साथियों की हत्या और तख्तापलट होते ही बंगलादेश की सेना के पाकिस्तान परस्त इस्लामिक कट्टरपंथी तत्व सक्रिय हो गए, साथ ही कुछ समय से निष्क्रिय दिखने वाली इस्लामिक तंजीमें भी सतह पर लौट आयीं, और समाज के अंदर इस्लामिक कट्टरपंथ को हवा देने लगीं, जो सदा से ही सुलग रहा था। नवनिर्मित बंगलादेश में गैर मुस्लिमों, विशेषकर हिन्दुओं पर (1972 से 1975 तक, छोटे से शांतिकाल के बाद) हमले पुन: शुरू हो गए, जो आज तक जारी हैं। नव तानाशाह एक बार पाकिस्तान की ओर मुड़े। पाकिस्तान आईएसआई ने बंगलादेश के गुप्तचरों को प्रशिक्षित करना प्रारम्भ किया। पाकिस्तान ने बंगलादेश और पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों के पूर्व संबंधों (1971 पूर्व) का उपयोग कर बंगलादेश के खुफिया तंत्र को अपने शिकंजे में कस लिया। आज बंगलादेश की खुफिया सेवा डीजीएफआई (दी डायरेक्टरेट जनरल ऑफ फोर्सेस इंटेलिजेंस) का पूरा तंत्र पाकिस्तान की आईएसआई के तंत्र पर ही आधारित है।
ये नजदीकियां आज भी बंगलादेश की सरकार को भारी पड़ रही हैं। अनेक बार तख्तापलट और तख्तापलट की कोशिशें हो चुकी हैं। बंगलादेश की दो प्रमुख पार्टियां-बी एन पी-बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी और बीएएल-बंगलादेश आवामी लीग हैं। सैनिक तानाशाही का समय छोड़कर इन्हीं दो पार्टियों के हाथ सत्ता रही है। आवामी लीग शेख मुजीब की पार्टी है। आज उसकी प्रमुख और बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना मुजीब की उन दोनों बेटियों में से एक हैं जो 15 अगस्त 1975 की रात देश से बाहर होने के कारण जिंदा बच गयी थीं। आवामी लीग की स्थापना 1942 में हुई। संस्थापक थे पहले खिलाफत आंदोलन के नेता मौलाना भशानी, दूसरे थे कुख्यात डायरेक्ट एक्शन डे (16 अगस्त 1946) के खलनायक शहीद हुसैन सुहरावर्दी और तीसरे शमसुल हक। समय के साथ आवामी लीग ने बहुत कुछ सीखा। पार्टी ने बहुत कुर्बानियां भी दी हैं। आज आवामी लीग की सरकार बंगलादेश में कट्टरपंथ से निपटने की कोशिश कर रही है।
बीएनपी बंगलादेश की मुक्ति के बाद (1978) में बनी। संस्थापक थे पुराने सैनिक अधिकारी लेफ्टिनेंट जियाउर रहमान। जियाउर रहमान शेख मुजीब की सरकार के तख्तापलट और फिर उनकी हत्या के मुख्य आरोपियों में से थे। सैनिक शासन में वे चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर और 1977 में राष्ट्रपति बने। 1981 में उनकी हत्या के बाद से बीएनपी उनकी पत्नी बेगम खालिदा जिया के हाथ में है। खालिदा तीन बार बंगलादेशकी प्रधानमंत्री रह चुकी हैं। बीएनपी, जो वर्तमान 'जातियो संगशाद' (लोकसभा बंगलादेश) में प्रमुख विपक्षी दल है, मध्य दक्षिणपंथी पार्टी कही जाती है। पार्टी स्वयं को बंगलादेश में 'मुस्लिम बहसंख्यकों की इस्लामी चेतना' कहती है। बंगलादेश में सभी इस्लामिक कट्टरपंथी दलों से इसका प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष गठजोड़ है। जमाते-इस्लामी बंगलादेश और इस्लामी ओकिया जोत इसके साझीदार हैं। खालिदा जिया का प्रधानमंत्रित्वकाल बंगलादेश के अल्पसंख्यक हिन्दुओं, ईसाइयों आदि के लिए भयानक दु:स्वप्न साबित हुआ। खालिदा के 2001 से 2006 तक के शासनकाल की व्याख्या करते हुए 30 दिसंबर 2006 को स्टेट्समेन के संपादकीय में लिखा गया-'खालिदा के शासन में बंगलादेश का पूर्णरूपेण इस्लामीकरण और सम्प्रदायीकरण किया गया। सन्देश दिया गया कि बंगलादेश पर गैर मुस्लिमों का कोई अधिकार नहीं है। और उनके (गैर मुस्लिमों) के लिए यही बेहतर होगा कि वे भारत भाग जाएं, क्योंकि 2001 में चुनाव जीतते ही बेगम जिया और उनकी साझीदार जमाते इस्लामी ने अपने हिंसक आतंकियों (स्टॉर्म ट्रूपर्स) को हिन्दुओं , ईसाईयों, बौद्धों और संथालों पर खुला छोड़ दिया। खालिदा ने अल्पसंख्यक महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कारों और उनकी संपत्ति के विध्वंस को अपनी अनुमति दी।'जब शाहबाग चौक पर प्रदर्शन हो रहे थे तो बीएनपी ने असंतोष की आंच पर राजनैतिक रोटियां सेंकने की सोची लेकिन थोड़े दिनों के प्रहसन के बाद पार्टी एक बार फिर जमाते इस्लामी की गोद में जा गिरी।
2013 से बंगलादेश लगातार सुलग रहा है। ये ऐसी लड़ाई है जिसमंे युवा ब्लॉगर स्वतंत्रता और न्याय की लड़ाई के प्रतीक बन गए हैं। वे अपनी जान गंवाकर, खून बहाकर भी इस अलख को जगाए हुए हैं। दूसरी तरफ बंगलादेश के एक बड़े वर्ग पर कट्टरपंथियों का खासा प्रभाव है जिनमें जमाते-इस्लामी, इस्लामिक छात्र शिविर, इस्लामी ओकियो जोत, हरकत उल जिहाद अल इस्लामी, जिहादी मूवमेंट ऑफ बंगलादेश (जेएमबी), अराकान रोहिंग्या नेशनल ऑर्गनाइजेशन, जाग्रतो मुस्लिम जनता, तब्लीगे-जमात और अहले-हदीस-बंगलादेश शामिल हैं। हाल ही में जब एक और ब्लॉगर बिजय दास की ह्त्या हुई, हत्यारों ने दूसरे ब्लॉग लेखकों को भी चुप होने अथवा सर कटवाने के लिए तैयार रहने की चेतावनी दी। इस समय 80 के लगभग युवा ब्लॉगर कट्टरपंथियों की हिटलिस्ट में हैं। इन्हीं में से एक अनन्य आजाद ने एक समाचार पत्र को बतलाया कि 'मेरे लिए खूनखराबा और मौत की धमकियां कोई नई बात नहीं है। मेरे पिता और लेखक हुमायूं आजाद की भी सरेराह हत्या कर दी गयी थी। हाल ही में मुझे फेसबुक पर धमकी मिली कि मेरे पिता नास्तिकों के सरदार थे और उनका बेटा होने के कारण मैं भी उन्हीं की तरह मार डाला जाऊंगा। मेरा गला चीर दिया जाएगा। मेरे पिता के हत्यारे आज तक नहीं पकड़े जा सके हैं।' काजी नजीरुल इस्लाम ने एक कविता लिखी थी-'भोय कोरिबो ना, हे मानोबता।' इस महान कवि की धरती पर आज भय व्याप्त है। लेकिन उम्मीदों को बल मिलता है जब सारी धमकियों को दरकिनार कर युवा लेखक अपने को अभिव्यक्त करते हैं। जब शाहबाग चौक पर इकट्ठे हुए युवा मजहबी पहचान को किनारे कर एक सुर में चिल्लाते हैं 'तुमी के? आमी के? ़.़.़बंगाली, बंगाली'। ये बंगला पहचान ही वह उम्मीद की किरण है जो धरती के सबसे सघन बसे इस हिस्से को जिन्ना और नियाजी के प्रेतों से मुक्त करवा सकती है। मजहब के नाम पर मुर्दाखोरी करने वालों की जमात से युवा विद्रोहियों की ये लड़ाई क्या रंग लाती है, इस पर सारी दुनिया की निगाहें टिकी हैं। -प्रशांत बाजपेई
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