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संसार में भेद में अभेद और अभेद में भेद सर्वत्र है। आत्मा, परमात्मा होते हुए भी अलग है और अलग होते हुए भी एक है, केवल बोध होने की देर है । बोध होते ही जीव ब्रह्म हो जाता है, बुद्ध हो जाता है, प्रकट परमात्मा हो जाता है। संसार की समस्त शक्तियां उसके वश में हो जाती हैं। विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं – प्रकाश स्थूल वस्तु है भी और नहीं भी। इसी तरह योग के विभिन्न मार्ग एक होकर भी अनेक और अनेक होकर भी एक हैं । समाधि या मोक्ष प्राप्ति की दिशा में, जाने या अनजाने में किया गया हर साधन योग ही है। योग में उपलब्धि दो तरह से होती है- साधक के अपने प्रयत्न से; और गुरु कृपा – बोध युक्त गुरु की कृपा से। साधन और कृपा भी परस्पर बंधे हैं। साधन करने पर ही कृपा प्राप्त होती है और परमात्म-कृपा से ही साधन में प्रवृत्ति होती है। साधक की उत्कंठा जितनी अधिक होती है परिणाम उतना जल्दी प्राप्त होता है। नरेंद्र के मन में उठे तीव्र संवेग को कृतार्थ कर श्री रामकृष्ण परमहंस की कृपा ने पल भर में स्वामी विवेकानंद बना दिया । इस मार्ग या परंपरा में साधन तो किया जाता है परंतु गुरु प्रसाद (प्रसन्नता) ही उपलब्धि का मुख्य हेतु होता है । पूर्ण, स्वरूपोपलब्ध योगी जब साधक के प्रयत्न या संवेग से प्रसन्न होकर या फिर अहेतु (बिना कारण) की कृपा करके अपनी शक्ति का संचार शिष्य में करते हैं तब योग घटित होता है। साधक की करने की सामर्थ्य से परे की चीजें होती हैं। वह ध्यान, समाधि, तन्मयता की स्थिति में चला जाता है और ये स्थिति घंटों या कभी-कभी कई दिनों तक बनी रहती है । कभी साधक को पता भी नहीं होता और उसके आसन हो रहे होते हैं, प्राणायाम और अन्य क्रियाएं होने लगती हैं। सांसारिक दृष्टि से देखने पर वे बेसुध या नशे जैसी स्थिति में दिखाई देता है, लेकिन उसकी आवश्यकता के अनुसार उसके शरीर की क्रियाएं, चिति शक्ति – चेतना या कुण्डलिनी करा रही होती है ; जबकि मन उसका लीन होता है । चित्त की शुद्धि कुछ अधिक हो तो शांत बैठकर समाधि का आनंद लूटता है। बोलकर, स्पर्श से, दृष्टि से, पुष्प आदि के प्रसाद द्वारा या केवल संकल्प से, पूर्ण गुरु का अपने शिष्य में शक्ति का संचार करना शक्तिपात कहलाता है। (आजकल रेकी, प्राणिक हीलिंग, या थोड़ी बहुत साधना करने वाले लोग, प्राण के थोड़े बहुत आदान प्रदान को शक्तिपात कहने लगे हैं जो गलत है । ऐसी शक्तिपात दीक्षा, पूर्ण योगी, आमतौर पर एकांत में या गिने चुने लोगों के सामने करते हैं। इंग्लैंड के प्रोफेसर हिल्स ने अपने मित्र एक प्रोफेसर को (15 मिनट बाद जिनका व्याख्यान था) भेजा, ये देखने के लिए कि यहां एक योगी जो पुष्प का प्रसाद देते हैं उससे होता क्या है? जिज्ञासु प्रोफेसर को प्रसाद देकर बैठा दिया गया, वह ध्यान में चले गए। प्रोफेसर हिल्स आदि के उठाने से भी वो नहीं उठे, व्याख्यान का समय जाता रहा । 4-5 घंटे बाद उन योगी द्वारा उठाने पर उसने कहा कि हमें वास्तव में योगी मिले हैं। और उन योगी ने कहा- योग भारत की विद्या है, (केवल) भारत में ही योग को समझते हैं इसलिए योग की 'यूनिवर्सिटी' कहीं हो तो वह भारत में ही हो। योगीजन बताते हैं कि जन्म जन्मांतर में सब तरह की साधनाएं करने के बाद ऐसे पूर्ण योगी की शरण प्राप्त होती है।
योग, उसके भेद, अंग और उपांग
आलस्य से मोटापा बढ़ता है और मोटापा बढ़ने से आलस्य आता है। तनाव से कार्यक्षमता घटती है और कार्यक्षमता घटने से तनाव बढ़ता है । क्रोध से रक्तदाब बढ़ता है और रक्तदाब बढ़ने से क्रोध आता है। आप एक अवगुण को प्रश्रय दे तो दूसरे अवगुण भी बढ़ने लगते हैं। एक गुण को बढ़ाओ तो और गुण भी बढ़ने लगते हैं। समान को आकर्षित करता है और विपरीत को दबाता है। आप यौगिक सूक्ष्म व्यायाम कीजिए, मोटापा और आलस्य दोनों भागेंगे । आप ॐकार जाप शुरू कीजिए, तनाव भागेगा कार्यक्षमता बढ़ेगी। आप शीतली प्राणायाम कीजिए, क्रोध और उच्च रक्तदाब दोनों घटने लगेंगे। इसी तरह योग साधना के एक उपादान सत्य को धारण करेंगे तो चोरी और हेराफेरी अपने आप छूट जाएगा। शरीर आत्म भाव – शरीर को मैं मानने से ऊपर उठने की कोशिश करेंगे तो वितृष्णा अपने आप आ जाएगी। भक्तों के संपर्क में रहेंगे तो भक्तिभाव बढ़कर परमात्मा को ही करण-कारण देखने लगेंगे और उससे कर्तापन का भाव छूट जाएगा। हर व्यक्ति की सामर्थ्य अलग है , पसंद अलग है, गुण, कर्म, स्वभाव अलग हैं। जो आपके लिए सहज हो, किसी एक साधन को पकड़ लीजिए, बाकी सब साधन अपनेआप चल पड़ेंगे। अपने स्वभाव के विपरीत जाएंगे तो ज्यादा दिन करना मुश्किल होगा, उक्ताहट होने लगेगी।
– पाञ्चजन्य ब्यूरो
योग आध्यात्मिक कामधेनु है। उससे जो कुछ मांग जाए वह मिल सकता है।
-डॉ. संपूर्णानंद, दार्शनिक एवं पूर्व मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश
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